शक़

शक़ कहानी की पृष्ठभूमि असम का बोड़ो जनजातीय इलाका है। कब बोड़ो अस्मिता के लिए शुरू हुई जद्दोजहद शांतिपूर्ण आंदोलन से खिसककर आतंकवाद की गोद में चली गई यह इस कहानी में बड़े ही स्वाभाविक तरीके से सामने आता है।

विनोद रिंगानिया*

बकुल और मैं छठी जमात में ही दोस्त बन गए थे। छठी जमात में वे तीनों आए थे दाखिला लेने- बकुल, दया और आनंद। एक साथ एक ही दिन। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। दो घंटियों के बीच जब समय मिलता तो दूसरी जमातों के लड़के हमारी कक्षा के आसपास मंडराते दिखते। वे खिड़की से ताक-झांक करते। कैसे हैं वे तीनों- यह स्कूल भर में उत्सुकता का विषय था।

बकुल मेरी ही बेंच पर मुझसे सटकर बैठता। हिंदी उसके लिए पानी नहीं, बल्कि एक गरम द्रव्य था, जिसे गले से उतारना मुश्किल पड़ता था। वह अदम्य आकर्षण ही होगा जो उन तीनों से यह मुश्किल काम करवा रहा था। बकुल मेरे लिए जानकारियों का खजाना था। वह जो कुछ जानता था, वह सब ताजा-हरा-नया था। कस्बे के दोस्तों में ऐसी जानकारियां और किसी के पास नहीं थीं।

“हां, मैं सूअर खाता हूं” – यह जानकारी देने के क्रम में एक दिन ऊंचे स्वर में की गई यह घोषणा विस्फोटक साबित हुई। लड़कियों में फुसफुसाहट शुरू हो गई। वे उन तीनों को अजीब नजरों से देखने लगीं। हमारी बेंच पर बैठा कस्बे का लड़का चुपचाप उठकर पिछली बेंच पर चला गया।

बकुल की दुनिया अलग थी। वहां के शब्द, उनके अर्थ अलग थे। मुझे बकुल अपनी दुनिया में ले जाता। वह रात में टेबल लैंप से पढ़ता है। गांव में बिजली नहीं है, टेबल लैंप किरासन से जलता है। उसके दो भाई ‘बिजनेस’ करते हैं। गांव से लाई कच्ची सुपारी बेचने कस्बे की हाट के कीचड़ में उँकड़ू बैठे इन ‘बिजनेसमैनों’ से मैं बकुल के साथ जाकर मिला था। बकुल सुबह पोंइता भात का नाश्ता करके आता है। रात के बचे भात को पानी में भिंगोकर रख देने पर सुबह पोंइता भात बन जाता है। उसकी एक दादी है, जिसकी उम्र सौ साल से भी ज्यादा है। गांव में पिंडली भर कीचड़ में रात को मशाल जलाकर मछली पकड़ी जाती है। उसकी दादी भी मछली पकड़ती है।

मैं उसकी भाषा सीखता। नङ बबाउ थाङ नङ अर्थात्‌ तुम कहां जा रहे हो? हिंदी में ङ का स्वतंत्र प्रयोग इतना कम है कि हम भूल ही गए कि यह एक स्वतंत्र वर्ण है। बकुल सिखाता नंग नहीं नङ | काफी मशक्कत करने के बाद ही मैं उसकी भाषा के तीन वाक्य सीख पाया।

तीनों को अपनी भाषा से बड़ा प्यार था। उन्होंने स्कूल के सालाना जलसे में अपनी मातृभाषा में एक गीत गाया। सारे श्रोताओं में इस गीत को समझने वाला उन तीनों के अलावा और कोई नहीं था। फिर भी उन तीनों के चेहरों पर झिझक, संकोच- इनका कोई नामोनिशान नहीं था। उन दिनों उनके लोगों में अपनी भाषा को लेकर बड़ी सरगर्मी थी। आए दिन कस्बे में उनके लंबे-लंबे जुलूस निकलते। इतने लंबे जुलूस हमने तब तक नहीं देखे थे। जुलूस में जितने मर्द होते, उतनी ही औरतें। किशोरियां, युवतियां, वृद्धाएं सभी। बकुल की दादी भी होती, जो सौ साल से ज्यादा उम्र की थी। ‘जाना पड़ता है, न जाने पर एक मन धान का जुर्माना कौन भरेगा’ – बकुल बताता।

बकुल गांव से बस में स्कूल आता था। ग्यारह किलोमीटर दूर से। एक दिन मैं बकुल के गांव गया। बस से उतरने के बाद सड़क से काफी अंदर तक पैदल चलना पड़ा था। मैं उसकी दादी को देखना चाहता था। वह मेरी दादी से काफी बूढ़ी लगती थी। चेहरे पर वैसी घनी ओर गहरी झुर्रियां मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। बकुल ने मुझे चीनी मिट्टी के कुल्हड़ में चाय पिलाई। मैंने ढेकी पर धान कूटना देखा। इकरा से बनी दीवार पर मछली पकड़ने के तरह-तरह के औजार लटके थे। वे औजार भी बांस के बने थे। बकुल मुझे बस पर चढ़ाने सड़क तक आया। बस में चढ़कर मैं बोला- नङ बबाउ थाङ नङ। बकुल हंसकर हाथ हिलाता रहा।

बकुल और उसके दोनों मित्र ज्यादा दिन हमारे स्कूल में टिक नहीं पाए। वे हिंदी सीखने आए थे। पहली बार हमारे स्कूल में तीन छात्र सिर्फ इसलिए आए थे कि उन्हें हिंदी सीखनी थी। यह स्कूल के लिए प्रतिष्ठा की बात थी। उनके जाने से स्कूल ने जैसे कुछ खो दिया। वह फिर से बंधे-बंधाएं ढर्रे पर आ गया। वही दसवीं जमात के छात्रों की गुस्ताखियां, वही प्रधानाध्यापक का बीच-बीच में आपे से बाहर हो जाना, सचिव महोदय का औचक दौरा और बड़ी छात्राओं का बेवजह खिलखिलाना- घटना के नाम पर यही सब बाकी रह गया था स्‍कूल में।

स्कूल छोड़ने के बाद भी बकुल मुझसे मिलता रहा और हमारी मित्रता प्रगाढ़ होती गई। सुपारी बाजार में अपने भाइयों के साथ अक्सर वह दिख जाता। उसने गांव के स्कूल में दसवीं पास कर कालेज में दाखिला ले लिया था। कालेज जाने के लिए वह हमारे कस्बे तक साइकिल पर आता। साइकिल को हमारे घर के बरामदे में छोडकर वह बस से कालेज जाता। उसका साइकिल पर आना हमारी दोस्ती को बनाए रखने का जरिया बन गया। जब वह कालेज से वापस लौटता तो हम देर तक गप-शप करते। कभी-कभी वह अपने लोगों के बारे में बताता। उसके लोगों के बीच हो रही नई हलचल की खबरों को फिल्‍मी नायिकाओं के किस्सों के बीच भी जगह मिल जाती।

जब मैं शहर आ गया तब भी घर जाने पर एक बार बकुल के गांव जरूर जाता। पुराने मित्र से मिलने के आकर्षण के साथ-साथ वहां जाने का एक और आकर्षण भी होता। बकुल के खेत की हरी-ताजा सब्जियां, जिनसे भरा एक बड़ा थैला् लौटते वक्‍त हमेशा मेरे साथ होता। मई-जून में उसके गांव में धान की रोपाई होती। गांव की औरतें- युवतियां -लड़कियां, सभी पानी में अपना दखना घुटनों से ऊपर किए फुर्ती से धान के पौधे रोपती होतीं। वे जोर से चिल्लाकर बकुल से अपनी भाषा में कुछ कहतीं। बकुल वापस जवाब देता तो सभी खिलखिला उठतीं। मुझे लगता वे मुझी को लेकर कोई मजाक कर रही हैं।

एक बार मैं दुर्गा पूजा पर बकुल के गांव गया। वह गांव के बाहर ही दोस्तों के बीच गप्पें मारता मिल गया था। उस दिन उसके मुंह से चावल की शराब की बू आ रही थी। वह मुझे घर के अंदर ले गया। जब तक मैं उसके साथ रहा, वह पूछता रहा- यह असुर कौन है? हमीं लोगों का कोई बूढ़ा-बुजुर्ग होगा! हमारा वध किया था न तुम्हारी ‘मां’ ने। उस दिन वह इसी बात को दोहराता रहा। मैं उसे उसी तरह छोड़कर चला आया था।

इस घटना के बाद जब दुबारा बकुल से मुलाकात हुई तो वह ज्यादा गर्मजोशी के साथ मिला। अपनी पत्नी से मेरा परिचय कराया और न जाने अपनी भाषा में क्या कहा कि उसकी पत्नी खिलखिलाकर हँस उठी। शायद वह पिछली बार की घटना से शर्मिंदा था और उसकी भरपाई करना चाहता था। वह मुझे गांव में मूली के खेत दिखाने ले गया ओर इस बात को देर तक समझाता रहा कि ऊपर पत्तों को देखकर अंदर मूली की बढ़त का कैसे पता लगाते हैं। वह ज्यादा बातूनी हो गया था। घोंघे को किस तरह खाया जाता है और उड़ने वाले तिलचट्टों को कैसे भूना जाता है- यह सब वह बताता रहा। पहले अपनी बिरादरी के खाद्याभ्यास के प्रसंगों से वह कन्नी काटता था।

पिछले चार सालों से बकुल से मुलाकात नहीं हुई। चार साल पहले जब मैं घर गया तो भाई लोगों ने कह दिया- बकुल के गांव की तरफ बिल्कुल नहीं जाना है।

‘क्यों उधर कोई खतरा है?’

“हां, रेल लाइन के उत्तर की तरफ कहीं भी जाने में खतरा है। उधर जाने वालों को वे लोग बंधक बना लेते हैं।”

संयोग से बकुल मुझे कस्बे में ही डोलता मिल गया। वह पहले से काफी तगड़ा हो गया था। भाइयों की बात दिमाग में थी, लेकिन मैं उससे जी लगाकर मिला। मैंने उससे पूछा- क्या उसके गांव की तरफ जाने में खतरा है? वह बोला, “कोई खतरा नहीं है। सब कुछ सामान्य है।”

“लेकिन सुना है, उधर उग्रवादियों का काफी आना-जाना है?”

“अभी हमारे गांव में नहीं घुस पाए हैं” संक्षिप्त -सा उत्तर देकर उसने बात को मोड़ दिया।

बकुल की बात पर मैं आश्वस्त हो गया। मैं उसे घर लाया और हम दोनों ने साथ-साथ चाय पी। मैंने उसे अपना फोन नंबर दिया और कभी शहर घूमने आने के लिए कहा। उसके जाने के बाद भाई लोग उसे घर पर बुलाने के कारण मन ही मन मुझसे नाराज हुए। मैं वापस शहर लौट आया।

यह सच था कि सूबे में आतंक ने फन उठा रखा था। कस्बे में आए दिन हादसे होने लगे थे। हमारे पड़ोस के ही एक लड़के रमेश को आतंकवादी उठा ले गए। लड़का कई महीनों बाद छूट कर आया। भाइयों में से कोई जब शहर आता तो सारे समाचार मिलते। भाई ने ही मुझे फिर से हिदायत दी कि बकुल कभी मिले तो उससे बात भी न करना। …बक॒ल से बात करने में भी खतरा है। रमेश जब छूटकर आया तो बता रहा था गांव में उसे बकुल भी दिखाई पड़ा था।

“गांव में बकुल भी दिखाई पड़ा” – मुझे भाई की इस बात पर गुस्सा आया। लेकिन मन ही मन मैं बकुल को लेकर फिर से सोच में पड़ गया। पूजा के दिन शराब के नशे में धुत उसका चेहरा मुझे याद आ गया। उस दिन वह एक पल के लिए भी नहीं मुस्कराया था। आते समय जब मैंने नङ बबाउ थाङनङ कहा तब भी नहीं।

घर जाना धीरे-धीरे कम हो रहा था। इस बीच कभी बकुल की याद नहीं आई। अचानक एक दिन परमेश्वर बदहवास- सा मेरे घर आया । आते ही बोला, “पहले दरवाजा बंद कर लो।”

उसकी बदहवासी चिंता में डालने वाली थी। “क्‍यों क्या हुआ?”

परमेश्वर ने जो कुछ बताया उसने मेरे अंदर हाहाकार मचा दिया। दो दिन पहले एक लड़के ने फोन पर उसका पता पूछा ओर थोडी देर बाद ही उसके घर आ धमका। वह अपने-आपको किसी उग्रवादी संगठन का सदस्य बता रहा था और एक मोटी रकम का मांग-पत्र थमा गया था। अब परमेश्वर चाहता था कि मैं बीच में पड़कर मामला तय करा दूं। वह मुझे सोचने का समय देकर चला गया। उसके जाने के बाद मैं चिंता में डूब गया।

सुबह ही तो पत्नी ने बताया था कि किसी बकुल नाम के व्यक्ति का फोन आया था और वह यहां का पता पूछ रहा था। इधर से कोई जवाब जाता उससे पहले ही लाइन कट गई थी। …बकुल को अचानक मेरी याद कैसे आ गई? वह क्यों मेरे घर आना चाहता है? इतने सालों में कभी नहीं आया आज ही क्‍यों? मैंने अपना सेलफोन बंद कर दिया और फोन की लाइन काटने के लिए स्क्रू ड्राइवर खोजने लगा। मैंने तय कर लिया कि बकुल ने यहां का पता जान लिया तो निश्चय ही मैं मकान बदल लूंगा।

पुलिस को इत्तला करने से कोई फायदा नहीं है। वे लोग उल्टे मुझी से पैसे ऐंठ सकते हैं। आजकल मैं नाका लगाकर दुपहिया वाहनों की चेकिंग करते अनमने-से पुलिस वालों को देखता हूँ तो बड़ी कोफ्त होती है। ये लोग अपना काम मुस्तैदी से क्‍यों नहीं करते?

विनोद रिंगानिया असम से हैं, इनकी कहानियाँ समकालीन भारतीय साहित्य सहित सभी प्रमुख पत्रिकाओं में
छप चुकी हैं। भोपाल से प्रकाशित कथादेश (भारत के हिंदी कथाकारों पर केंद्रित कथाकोश) के युवा कहानी खंड
में विनोद को स्थान मिला है। हाल ही में इनका यात्रा वृत्तांत ट्रेन टू बांग्लादेश रश्मि प्रकाशन से आया है।

3 COMMENTS

  1. काफी दिनों बाद भाई रिंगानिया जी की एक अच्छी कथा पढ़ने को मिली है। कथावस्तु बिल्कुल नई व हटके है। बोडो आंदोलन की पृष्टभूमि में लिखी यह शायद पहली कहानी है जो पढ़ने में काफी रोचक है।

  2. अति सुंदर अभिव्यक्ति, ग्रामीण परिवेश को दर्शाती एक जीवंत कहानी…

  3. कहानी का अंत नाटकीय ढंग से किया गया है।आखिर में शक हो ही जाता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here