गांधीवादी मृदुता और लोहियावादी विद्रोह का समन्वय थे श्रीनाथ मोदी

अव्यक्त*

क्या आप किसी ऐसे सफल व्यवसायी की कल्पना कर सकते हैं जिसने सफल होते हुए भी अपनी कोई व्यक्तिगत संपत्ति ना बनाई हो, उसका कोई व्यक्तिगत बैंक अकाउंट ही ना हो? हमसे एक-दो पीढ़ी पहले शायद ऐसा संभव था – तभी तो गांधी जी के आदर्शों प्रभावित श्रीनाथ जी ने अच्छी-ख़ासी सरकारी नौकरी छोड़ कर समाज-सेवा का व्रत ले लिया और सेवा करते हुए किसी पर भार भी ना बनें, इसलिए पुस्तकों के क्षेत्र के व्यवसायी भी बने और समाज-सुधार के उद्देश्य से दर्जनों छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ लिखीं और जैनेन्द्र कुमार जैसे नामचीन लेखकों से भी लिखवाईं। तमाम बाधाएँ और विरोध भी सहे। अंग्रेज़ सरकार ने जहां इनकी शुरुआती रचनाओं को समाज-सुधार में उनके योगदान के कारण शिक्षा विभा की ओर से प्रकाशित भी करवाया तो वहीं उनकी कुछ कविताओं को ज़ब्त भी किया जिनमें से एक इस लेख के अंत में दी गई है। आज़ादी के बाद श्रीनाथ जी विनोबा और आगे चलकर डॉ राममनोहर लोहिया से प्रभावित रहे। उनके जीवन और कर्म पर दृष्टि डालता ‘अव्यक्त’ का यह लेख आपको रुचेगा।

विनोबा ने एक बार कहा था कि ‘राजसत्ताएँ तो अनेक आईं और गईं, परन्तु राजसत्ता ने भारत को नहीं बनाया। भारत तो बनाया यहाँ के संतों, फकीरों, और आचार्यों ने।’ आगे ‘आचार्य’ शब्द की परिभाषा बताते हुए उन्होंने कहा था- ‘संस्कृत में शिक्षक को ‘आचार्य’ कहते हैं। ‘आचार्य’ का अर्थ बताया गया है कि ‘अचिनोति अर्थान्। अचिरति। आचारं कारयति।’ यानि जो सब विषयों का अध्ययन करता है, खुद आचरण करता है, और दूसरों से आचरण कराता है, उसका नाम है ‘आचार्य’। गांधीजी, विनोबा और डॉ. लोहिया के दौर में राजस्थान की धरती पर श्रीनाथ मोदी ऐसी ही आचार्यवृत्ति वाले गांधीमना समाज-सुधारक हुए।

जिस वर्ष गांधीजी और कस्तूरबा हमेशा के लिए दक्षिण अफ्रीका से भारत रवाना हुए, उसी साल श्रीनाथ मोदी जी ने केवल 12 वर्ष की अवस्था में अपने पिता को खो दिया। इससे पूर्व का उनका बचपन राजस्थान के देसुरी तहसील के अपने गाँव खोड में बीता था। गाँव में इन्होंने बचपन से कई कुरीतियाँ देखीं थीं जिसका असर इनके बालमन पर पड़ा था। तब राजस्थान में बाज़ार में महिलाओं को जूती हाथ में लेकर चलना पड़ता था। कथित निम्न समझी जाने वाली जाति के दूल्हे घोड़ी पर नहीं बैठ सकते थे। गाँव के नाई, भांभी, कुम्हार, सुथार और दर्जी आदि को बिना पारिश्रमिक लिए बार-बार बेगार करना पड़ता था। बेगार का बोलबाला था। झाड़-फूँक, टोटकों और तरह-तरह के अंधविश्वासों से गाँव के लोग त्रस्त थे। कन्या-विक्रय, बाल-विवाह, शराब, अफीम, भांग, बनावटी रोने की प्रथा और मृत्यु-भोज आदि अनेक कुप्रथाओं में ग्रामीण समाज बुरी तरह फँसा हुआ था। ये कुप्रथाएँ ही गाँवों की आर्थिक दरिद्रता का भी कारण बनी हुई थीं। बाल श्रीनाथ का कोमल मन भी इन सबके प्रति विद्रोह कर उठता।

वक्त के थपेड़ों से गुजर रहे किशोरवय श्रीनाथ अपनी उम्र के दूसरों बच्चों से ज्यादा परिपक्व और समझदारों की तरह बरतते थे। अपनी बहन के पास जोधपुर में रहकर पढ़ते हुए छात्र जीवन में ही रेज़गारी (खुल्ले पैसे) का धंधा करने लगे। विद्यालय के प्राचार्य को जब यह बात पता चली तो उन्होंने इन्हें अपने मकान पर बुलाया और परीक्षा की उत्तर-पुस्तिकाओं से खाली पन्ने निकालकर उनका उपयोग करने की पेशकश की। श्रीनाथ जी का झुकाव उच्च शिक्षा पाने की ओर था किन्तु गाँव में अपनी माता की देखभाल करने और घर की ज़िम्मेदारी उठाने के चलते वह इच्छा अधूरी ही रह गई। लेकिन जैसा कि होता है कि आचार्यवृत्ति के मनुष्यों के लिए औपचारिक उच्च-शिक्षा का न होना भी कभी बाधा नहीं बनती। श्रीनाथ जी ने अपने जीवन से इसे साबित कर दिखाया।

पढ़ाई-लिखाई में इनकी गहरी रुचि के पुरस्कार-स्वरूप इन्हें केवल 15 वर्ष की आयु में ‘देहाती मास्टर’ की नौकरी मिली और आगे छह वर्षों तक इन्हें ग्रामीण जीवन का और निकट से अध्ययन करने का अवसर मिला। उसी दौरान वे एक समाज-सुधारक धीरजमल बच्छावत जी के संपर्क में आए जिनके लिखे पैम्फ्लैट ‘लड़कियों की पुकार’ को पढ़कर ये बहुत प्रभावित हुए थे। उनके साथ मिलकर ही इन्हें समाज-सुधार के लिए गीत लिखने और उनका सार्वजनिक गायन करने की लगन लगी। ‘शुभगीत’ के नाम से इनकी गीतमाला के प्रथम भाग की 5000 प्रतियाँ प्रकाशित हुईं। पाली जैन संघ ने इसकी 2000 प्रतियाँ खरीदकर प्रचारार्थ गाँवों में बंटवाई। बाद में इसके 27 भाग छपे। पूरे देश के राजस्थानी प्रवासियों ने इन शुभगीतों को हाथोंहाथ लिया भारत-व्यापी स्तर पर इनका प्रसार हुआ।

इस दौरान ये प्राचार्य भी बने और बाद में 16 वर्षों (1928 से 1942) तक टीचर ट्रेनिंग स्कूल में प्रशिक्षक भी रहे। प्रशिक्षक रहने के दौरान ही इन्होंने ग्राम-सुधार पर ऐसा नाटक लिखा जो गाँव की चौपाल पर खेला जा सकता था। ‘गोम जाट’ के नाम से लिखे गए इस नाटक के पहले मंचन ने ही धूम मचा दी। सरल राजस्थानी में लिखे लिखे गए इस नाटक में अंधश्रद्धा, अशिक्षा और गरीबी पर तीखा प्रहार किया गया था। मुहावरेदार शैली में यह ग्रामीणों के लिए काफी मनोरंजक भी था। जल्द ही जोधपुर के आस-पास के सात गांवों – बड़ली, चौखों, पाल, झालामंड, चौपासनी, कूड़ी और मंडोर में यह नाटक खेला गया। इसके बाद तो इसके इतने मंचन हुए कि यह एक प्रकार लोक नाट्य बन गया। ‘गोम जाट’ की लोकप्रियता और जनशिक्षण में इसकी उपयोगिता देखते हुए शिक्षा विभाग ने इसे प्रकाशित कर अपनी ओर से इसका प्रसार करवाया।

सरल-हृदयी श्रीनाथ जी बाल मन को इतनी गहराई से समझते थे कि इन्होंने एकदम नए स्वरूप में ही गद्यात्मक पद्य में दो बाल-कहानियाँ लिखीं- चियाँ मियाँ और हम साहब, तथा तीन भालू। ये दोनों ही पुस्तिकाएँ पाठशालाओं में सहायक पुस्तकों के रूप में स्वीकृत हुईं और खूब लोकप्रिय भी हुईं। ‘चिया मियाँ और हम साहब’ तो बच्चों के बीच इतनी लोकप्रिय थीं कि इसके पढ़ने वालों ने अपनी आगामी पीढ़ियों को भी इससे परिचित करवाया। केवल नौ पन्नों की यह पुस्तिका अत्यंत रोचक तरीके से बाल-मन में सामाजिक एवं सांप्रदायिक एकता, मानवीय अंतर्निभरता और परस्पर-सहयोग जैसे जीवन-मूल्यों को आत्मसात करा देती है। बालप्रिय श्रीनाथ जी के नाटकों और शुभगीतों का मंचन बच्चे और युवा कभी सब्ज़ी मंडी के पास के चबूतरे को मंच बनाकर, तो कभी मेले तक में किया करते थे। स्वयं श्रीनाथ जी भी हाथ में या ठेले में हारमोनियम रखकर मित्रों के साथ गाते हुए मुहल्ले-मुहल्ले और गाँव-गाँव पहुँचते थे। पेट्रोमैक्स (जादू की लालटेन) के माध्यम से प्रकाश-ध्वनि और पर्दे का उपयोग कर कुरीतियों के खिलाफ संदेश गाँव-गाँव में पहुँचाते थे।

1935 में श्रीनाथ जी ने ‘ज्ञानमाला’ शृंखला के तहत समाज के ज्वलंत विषयों और कुरीतियों पर 53 पुस्तिकाओं का लेखन और संपादन करके केवल लागत मूल्य पर उनका वितरण किया। इनमें से 23 पुस्तिकाएँ इन्होंने स्वयं लिखी थीं। इन पुस्तिकाओं की विषय-वस्तु देखकर उनके सामाजिक सरोकारों का सहज ही अंदाजा हो जाता है— ग्राम-सुधार कैसे हो?, अर्द्धभारत (नारियों) की समस्या, स्त्रियों का कार्य-क्षेत्र क्या हो?, सत्यानाश कैसे हुआ?, फिर अछूत क्यों?, जापान के गांधी कौन?, चरखे की आत्मकथा, वेश्यावृत्ति कैसे रुके?, नशा या नाश?। इस शृंखला की 30 पुस्तिकाएँ उन्होंने भिन्न-भिन्न लेखकों से लिखवाए जिनमें प्रमुख थे- जैनेन्द्र कुमार, रामनाथ सुमन, संतराम बी ए और दरबारीलाल सत्यभक्त। इन सभी लेखकों को श्रीनाथ जी ने जितना बन सका उतना पारिश्रमिक भी दिया। जैनेन्द्र कुमार जी ने इस प्रसंग में कहा था कि इतना कम पारिश्रमिक अपने जीवन में पहली बार मिला। एक बार तो इन्कार भी करना चाहा, लेकिन यह श्रीनाथ जी का प्रेम ही था कि अंत में स्वीकार कर लिया।

श्रीनाथ जी कोश (डायरेक्टरी) लेखन कला में भी माहिर थे। शास्त्रीय संगीत और प्राकृतिक जीवन में भी इनकी गहरी रुचि थी। जोधपुर में इन्होंने ‘प्राकृतिक चिकित्सा संघ’ की भी स्थापना की थी। जीवन के हर कार्य में निपुणता और कार्यकुशलता कैसे लाएँ, इसपर इनका विशेष जो रहता था। 1938 में इन्होंने इस विषय पर दो पुस्तिकाएँ लिखी थीं- ‘निपुण कैसे बनें?’ और ‘कार्य करने का उत्तम ढंग’। वे इंग्लैंड के हर्बर्ट एन. कैसन के ‘एफिसियेंसी मूवमेंट’ अथवा निपुणता आंदोलन से प्रभावित थे। श्री कुन्दनलाल दवे जी के सहयोग से 1956 में श्रीनाथ जी ने जोधपुर में ‘दी इंस्टीच्यूट ऑफ एफिसियेंसी’ की भी स्थापना की।

श्रीनाथ जी ने कई वर्षों तक ‘माड़वाड़ शिक्षक’ त्रैमासिक पत्रिका का संपादन किया। उन्होंने ‘हंडरेड गेम्स ऑफ साइलेंट रीडिंग’ का हिंदी अनुवाद भी किया। इसके अलावा इन्होंने बच्चों को सरल भाषा में अंकगणित सिखाने के लिए पाँच पुस्तकें भी लिखीं जो विभागीय लापरवाही की वजह से अप्रकाशित ही रह गईं। जैसा कि हर दौर में समाज सुधारकों साथ होता आया है श्रीनाथ जी को भी समाज के रूढ़िवादी तत्वों की ओर से बाधाओं का सामना करना पड़ा। इन्होंने जो मृत्यु-भोज के विरोध में बच्चों को गीत सिखाए थे, इससे कई अभिभावक नाराज हो गए और एक बार इनकी विद्याशाला में हंगामा करके उसकी आड़ में फौजदारी मुकदमा तक कर दिया। हालाँकि न्यायमूर्ति की सूझ-बूझ से वह मुकदमा खारिज हो गया।

सुधारक प्रवृत्ति की वजह से कई बार इन्हें अपने कुल-परिजनों के बीच भी कुप्रथाओं का अहिंसक और रचनात्मक विरोध कर उनका हृदय परिवर्तन करना पड़ा। स्वयं अपनी पुत्री की शादी में पारंपरिक नशीले पेय (आकोती) से स्वागत किए जाने के परिजनों के अनुरोध का इन्होंने विरोध किया। बहुत बहस-बाजी हुई तो स्वरचित गीत गाने लगे-

खोलो नशेबाज की पोल सबों रे सामने जी..

देखो लाल आँख रो रंग, समझो पीवी है इण भंग।

इनरे घरवाला है तंग, नशे रे कारणे जी…

अपने पिता की मृत्यु के समय तो श्रीनाथ जी केवल 12 वर्ष के थे, लेकिन जब बाद में उनका विवाह होने लगा तब गाँव के ओसवाल पंचों ने उनसे मृत्यु-भोज कराने को कहा। इन्होंने पंचों से कहा कि मैं मृत्यु-भोज का कट्टर विरोधी हूँ। मैं न तो मृत्यु-भोज खाने के लिए जाता हूँ और न ही खिला सकता हूँ। पंचों ने कह दिया कि मृत्यु-भोज नहीं होगा तो कोई भी नातेदार विवाह में शरीक नहीं होगा। श्रीनाथ जी कहा- ‘चाहे कुछ भी हो जाय, मैं मृत्यु-भोज नहीं करूंगा।‘ आखिरकार मृत्यु-भोज नहीं ही हुआ।

अंग्रेज अधिकारी ए. पी. कोक्स तत्कालीन जोधपुर राज में शिक्षा विभाग के प्रमुख थे। प्रतिभाशाली होने की वजह से उनकी नजर श्रीनाथ जी पर रहती थी। आज़ादी का आंदोलन जोरों पर था। सरकारी सेवा में होने के बावजूद आम सभाओं में श्रीनाथ जी दर्शक के रूप में हमेशा ही जाते रहते थे। गुप्तचर विभाग ने यह सूचना ए. पी. कोक्स को दे दी। उस जमाने में अंग्रेज अफसरों को सैल्यूट किए जाने का रिवाज था। लेकिन श्रीनाथ जी द्वारा कोक्स को सैल्यूट न किए जाने से भी वे नाराज थे। कोक्स साहब तो इनको निकालने का बहाना ढूंढ़ ही रहे थे। तो पहले श्रीनाथ जी से स्काउट मास्टरी का तमगा छीना गया। और बाद में पदावनत भी किया गया। श्रीनाथ जी तो जैसे इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। अपनी अंतरात्मा के अनुकूल देश और समाज के लिए काम करने के लिए इन्होंने सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया और व्यवसायी का स्वावलंबी जीवन जीना शुरू किया। इसके लिए इन्होंने राजस्थान से बाहर कानपुर जाकर कई प्रकार की प्रबंधकीय जिम्मेदारियाँ संभाली। लेकिन जोधपुर से सरदारमल थानवी जी जैसे सात्विक व्यक्तित्व के अत्यंत स्नेहिल मनुहार पर इन्हें वापस आना पड़ा। उसके बाद से जीवनपर्यंत इन्होंने ‘सुमेर प्रेस’ और ‘किताब-घर’ के माध्यम से सबकी सेवा की।

प्रख्यात लेखक जैनेन्द्र कुमार श्रीनाथ जी को जोधपुर में एक समारोह के दौरान सम्मानित करते हुए

जैनेन्द्र जी ने कभी लिखा था— ‘आधुनिक बाज़ार अनैतिकता की व्यवस्था है। इसमें सारे मानवीय रिश्ते समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य केवल विक्रेता और खरीददार के दो वर्गों में बँट जाता है। एक का लाभ दूसरे की हानि में बदल जाता है।’ लेकिन श्रीनाथ जी ने बाज़ार के इस मायावी व्यापारी को कभी स्वयं पर हावी न होने दिया। उन्होंने इसे एक सामाजिक कर्म मानकर किया। ग्राहक के विश्वास को इसकी बुनियाद में रखा और ईमानदारी को सबसे ऊपर रखा। 1946 से आजीवन पुस्तक विक्रेता रहे। किताब-घर के माध्यम से इन्होंने पाठकीयता बढ़ाने पर भी कई प्रयोग किए। इस विशाल दुकान के हॉल में नवीनतम पुस्तके भी पुस्तक रैक से निकालकर कोई भी पढ़ सकता था। फारूक अफ़रीदी साहब ने अपने ताजे संस्मरणात्मक लेख में इस प्रसंग का जिक्र किया है। श्रीनाथ जी ने ‘प्रथम ग्राहक पुरस्कार योजना’ के नाम से एक अनोखी योजना चलाई। प्रतिदिन जो पहला ग्राहक आता था उसका पता नोट कर लिया जाता था और साल के अंत में उन्हें आमंत्रित कर उपहार दिया जाता था। विशेषकर छात्र प्रथम ग्राहक बनने को बहुत उत्सुक रहते थे और स्लेट पर अपना नाम और पता लिखा देखकर बहुत खुश होते थे। ‘बसंत पुस्तक मेले’ के नाम से जोधपुर में कई पुस्तक प्रदर्शनियाँ भी उन्होंने आयोजित की।

सन् 1968 का प्रसंग है। डॉ. लोहिया के विचारों से प्रभावित जोधपुर के कुछ प्रगतिशील युवजनों ने ‘समाजवादी युवजन सभा’ की स्थानीय इकाई के गठन के उद्देश्य से नगर परिषद् भवन के सभागार में सम्मेलन के आयोजन का फ़ैसला किया। सभा की अध्यक्षता के लिये नगर के नामचीन प्रगतिशील प्राध्यापकों व वकीलों में से कोई भी खुलकर सामने आने से राजी नहीं हुआ। तब महात्मा गांधी के अनुयायी श्रीनाथ जी ने अपनी स्वीकृति देकर युवजनों को नेतृत्व प्रदान किया। श्री कृष्णराज मेहता ने लिखा है कि जोधपुर के युवाओं के लिए श्रीनाथ जी एक ‘जंगम विद्यापीठ’ यानी चलती-फिरती पाठशाला ही थे। श्रीनाथ जी के गीत की पंक्तियों- मांडो अरटियो, सीखामण साचीरे। मांडो। गांधीजी तो देश रो उपकार करियो रे। मांडो।। ने ही युवा कृष्णराज जी में गांधीजी और खादी के प्रति आकर्षण पैदा किया था।

इस लेखक को गांधीजी, विनोबा और डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों से संस्कारित उनके दोनों पुत्रों सुज्ञान मोदी और विज्ञान मोदी को उनके जीवन को बहुत निकट से देखने-समझने का अवसर मिला। वे कहते हैं कि जीवन-पर्यंत  श्रीनाथ जी ने न कोई ज़मीन ख़रीदी, न मकान बनाया और न ही कोई ज़ेवर ख़रीदा। संस्थागत बैंक खाते से अलग अपना कोई व्यक्तिगत बैंक अकाउंट तक नहीं रखा।

श्रीनाथ मोदी आजीवन अपनी प्रसिद्धि व सम्मान से कोसों दूर रहे। फिर भी जोधपुर के नागरिकों में उन्हें 80 वर्ष की आयु में यह कह कर मना लिया कि अब तो आप अस्सी पार हो चुकें हैं और अब आपको आपके शरीर पर कोई अधिकार नहीं है। इस तरह श्री जैनेन्द्र कुमार जी की अध्यक्षता में जोधपुर के टाउन हॉल में उन्हें ‘महा नागरिक सम्मान’ से विभूषित किया गया। श्रीनाथ जी के इस अमृत महोत्सव में जैनेन्द्र जी पत्नी सहित सम्मिलित हुए और कहा कि आज मोदी जी के रूप में सचमुच एक महा नागरिक सम्मानित हुआ है।

चलते-चलते अहलकारों को ओलम्मो शीर्षक से लिखी उनकी वह कविता जिसे तत्कालीन ब्रिटिश शासन द्वारा जब्त कर लिया गया था—

पब्लिक के नौकर अहलकार अफसर मनमानी करते हैं,

ले कानूनों की ओट खोट खा जेबें अपनी भरते हैं।

दिखलाकर आँखें लाल लाल, मानो पिण्डी को पकड़ रहे,

दस्तूरी का दस्तूर बता, पब्लिक के पैसे हरते हैं।

हो एक मिनट का काम जहाँ, घंटों भर टाला करते हैं,

जो पूछें कारण देरी का तो ऐंठ बांध कर जश्ते हैं।

जिस काम के हित तनख्वाह पाते, वह करते हैं खोटाई से,

गरजें करवा कर काम करें, एहसान बड़ा सिर धरते हैं।

मन से महाराजा बन करके, हैं चार इंच ऊँचे रहते,

पब्लिक से प्रेम बढ़ाने में नाहक मन ही मन डरते हैं।

गाँवों में इनका जुल्म महा बेगारों में सब काम लहें,

पानी ईंधन दही दूध मंगा कर माल मुफ्त में चरते हैं।

नाई बारीसर बुलवा कर बरतन जूठे मंजवाते हैं,

देना उनको कुछ दूर रहा उल्टा बेइज्जत करते हैं।

अनुभव में जैसी आई है ‘श्री’धीरज’ ने सच्ची कह डाली,

सब जगह बहुत से अहलकार ऐसे कर कार गुजरते हैं।

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अव्यक्त *

*लेखक ऋषियों, तीर्थंकरों, बुद्धों, संतों तथा सूफ़ियों की भारतीय और वैश्विक परंपरा के विनम्र अध्येता हैं। सत्य, अहिंसा, सार्वभौमिक प्रेम, करुणा, अनेकांत, निर्भयता, समन्वय, मनुष्यता, सामाजिकता, दलविहीन लोकनीति और विश्वमानुषता आदि विचारों के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में व्यावहारिक प्रयोग पर शोधरत और साधनारत हैं।

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