क्या देशहित में होंगे लोकसभा और सभी विधानसभाओं के एक साथ चुनाव?

आज की बात

क्या ऐसा करना संविधान की मर्यादा का उल्लंघन नहीं होगा?

लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के एक साथ चुनाव करने के मुद्दे पर मोदी जी और अमितशाह काफी गंभीर हैं। दूसरी सरकार के बनते ही विपक्ष के साथ बैठक में ये बात सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में सामने आई और आनन-फानन में इस विषय पर गहराई से विचार करने के लिए एक समिति बनाने की घोषणा हो गई हालांकि इस समिति का क्या स्वरूप होगा, ये अभी स्पष्ट नहीं है।

एक साथ चुनाव करवाने की व्यवस्था को संवैधानिक तौर पर लागू करवाना कोई आसान नहीं है लेकिन ऐसा लग रहा है कि भाजपा (अर्थात मोदी जी और अमितशाह) अब इसे लागू करवाए बिना चैन से नहीं बैठेंगे। इसके लिए संविधान में जो भी संशोधन आवश्यक होंगे, उन्हें करवाने के लिए वो दृढ़ लग रहे हैं। ऐसा लगता है कि चुनावों के दौरान एक-एक बूथ पर पूरा ध्यान देने वाली ये जोड़ी (मेरा बूथ सबसे मज़बूत) अपना आगे का काम आसान करने के लिए दृढ़-संकल्प है।

तो हमारा पहला निष्कर्ष तो ये है कि अब इस प्रक्रिया का रूकना मुश्किल है। मध्यमवर्ग के तथाकथित पढे-लिखे लोगों ने पिछले कुछ दशकों से चुनाव, लोकतान्त्रिक प्रणाली और जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के खिलाफ जो लगातार “अनमोल वचन” बोले हुए हैं, उनके चलते इस स्तंभकार को ये मुश्किल लग रहा है कि इस सरकारी मुहिम के खिलाफ कोई भी तर्क स्वीकार्य होगा। इसके उलट इसको भी नोटबंदी की तरह एक सर्जरी बताया जाएगा जिससे पीड़ा तो होगी लेकिन भ्रष्टाचार का फोड़ा कटेगा।

लेकिन इसके नुकसान नोटबंदी से कहीं ज़्यादा बड़े और गंभीर हो सकते हैं। नोटबंदी से तो अर्थव्यवस्था और रोजगार की स्थिति को एक जोरदार धक्का लगा और उम्मीद की जा रही है कि देश पर अब नोटबंदी के कुप्रभाव समाप्त-प्राय: हो गए हैं (हालांकि नोटबंदी से उपजी बेरोजगारी की स्थिति में अभी भी कोई सुधार नहीं है)। लेकिन लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने से संविधान की मूल भावना से ही छेड़-छाड़ होगी और इससे देश के संघीय ढांचे को ऐसा गंभीर नुकसान भी हो सकता है, जिसकी जल्दी भरपाई मुश्किल होगी।

चुनावों पर होने वाले सरकारी खर्चे का हव्वा (पार्टियों द्वारा विशेषकर सत्तारूढ़ दल द्वारा खर्चे का ज़िक्र ये लोग नहीं करते) जिस तरह से पेश किया जाता है, उसे देखते हुए लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने का विरोध करने वालों से लोग यही पूछेंगे कि भाई आपको क्या तकलीफ है आखिर? दरअसल ये तकलीफ बताना भी मुश्किल काम है क्योंकि अगर हम अभी ये कहेंगे कि ये तो देश को धीरे-धीरे (ज़्यादा धीरे भी नहीं) एक केंद्रीयकृत व्यवस्था की तरफ धकेलेने का षड्यंत्र है तो कौन यकीन करेगा?

अच्छा आप ज़रा सोचिए कि चलिये माना जाये कि कुछ विधान सभाओं की अवधि घटाकर और कुछ की अवधि बढ़ाकर अगर ये कर भी लिया जाये कि 2024 में सभी चुनाव एक साथ हो जाएँ तो उसके बाद की व्यवस्था कैसे सम्हालेंगे? उदाहरण के लिए यदि किसी राज्य में सत्तारूढ़ दल के एक तिहाई विधायक ये तय करें कि उन्हें सरकार का समर्थन नहीं करना और उस राज्य में सरकार गिर जाती है तो फिर चूंकि वहाँ चुनाव तो पाँच साल से पहले हो नहीं सकते, इसलिए वहाँ स्वाभाविक रूप से केंद्र में सत्तारूढ़ दल का शासन हो जाएगा। क्या यह एक सही स्थिति होगी और क्या ऐसी स्थितियों को एक स्वस्थ लोकतन्त्र में स्वीकार किया जा सकता है?

लंबे समय तक केंद्र द्वारा अपने को शासित होने देखना किसी भी राज्य के लिए श्रेयस्कर स्थिति नहीं होगी। इसी तरह मान लीजिये किसी लोकसभा सदस्य का इस अवधि में देहांत हो जाता है तो फिर क्या बची हुई पूरी अवधि में वह क्षेत्र बिना किसी प्रतिनिधि के रहेगा? या फिर ये व्यवस्था केवल मुख्य चुनावों तक रहेगी बाकी उपचुनावों का काम पहले की तरह चलता रहेगा।

वैसे भी हमने हाल ही में देखा कि मतदाता राज्य और केंद्र में अलग अलग मापदण्डों पर अपने प्रतिनिधि चुनता है। लोकसभा चुनावों से कुछ ही महीने पहले तीन विधानसभाओं के चुनावों में मतदाताओं ने सत्तारूढ़ भाजपा को हटाकर कॉंग्रेस की सरकारें चुनी थीं लेकिन लोकसभा चुनावों के आते आते मतदाता ने केंद्र में पहले से क़ाबिज़ भाजपा को ही चुना। यदि आपको दिल्ली विधानसभा चुनावों की याद हो तो ध्यान होगा कि 2014 की मई में प्रचंड सफलता मिलने के बाद और दिल्ली में सातों सीटें जीतने के बाद भी कुछ ही महीनों बाद दिल्ली की जनता ने भाजपा को इतनी बुरी शिकस्त दी जो दिल्ली में उनकी सबसे बड़ी हार थी।

क्या उपरोक्त स्थिति ये बताने को काफी नहीं है कि मतदाता केंद्र और राज्य में अलग अलग पैमानों पर सरकारें चुनता है और यदि एक साथ चुनावों की प्रक्रिया लागू हो जाती है तो मतदाता एक ऐसे द्वंद में उलझ सकता है जहां से वह सही निर्णय ना कर सके। भारत विविधताओं से भरा देश है। यदि किसी प्रक्रिया के चलते ऐसा कुछ हो जाता है कि हमारे लोकतान्त्रिक प्रतिनिधि विविध धाराओं का प्रतिनिधितत्व नहीं करेंगे तो ये भारतीय लोकतन्त्र के लिए शुभ लक्षण नहीं होगा।

दिक्कत ये है कि उपरोक्त किसी भी परिस्थिति की गंभीरता या उसके परिणामों का अनुमान लगाना बहुत कठिन है और ये सब आपत्तियाँ इसलिए ऐसे आलोचकों का विलाप लग सकता है जिन्हें सरकार द्वारा प्रस्तावित हर कदम का विरोध करना होता है। लेकिन हमें लगता है कि यदि सचमुच लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू हो गई (जैसा कि हमने लेख के आरंभ में कहा, इसे रोकना अब विपक्ष के लिए बड़ी चुनौती होगा) तो इससे देश की संघीय व्यवस्था को गंभीर धक्का लग सकता है। संघीय व्यवस्था, जिसके अंतर्गत राज्यों को केंद्र से अलग कुछ अधिकार होते हैं ताकि देश के विभिन्न राज्य अपनी विशिष्टताएं सँजोते हुए भी एक सूत्र में बंधे रहें, इस देश की एकता बनाए रखने के लिए सबसे सबसे मज़बूत प्रावधान है और इस पर किसी भी तरह का नकारात्मक असर देश के लिए अप्रिय स्थितियाँ पैदा कर सकता है।

एक अन्य महत्वपूर्ण बात ये है कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया में उलझा देश और समाज चुनाव प्रक्रिया में अन्य वांछित सुधारों की तरफ ध्यान ही नहीं दे पाएगा। उदाहरण के लिए अभी तो ‘इलेक्टोरल बोण्ड्स’ का मामला बहुत पुराना नहीं है जिसके तहत कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को दान गुप्त कर दिया गया है और जिसका पूरा लाभ सत्तारूढ़ दल उठा रहा है जिसे ऐसे दानों का अधिकांश हिस्सा प्राप्त हो रहा है।

इसी तरह चुनावों में होने वाले खर्च को कम करने के उपायों से लेकर चुनाव आयोग की भूमिका तक और राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने से लेकर लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के प्रतिनिधितत्व को बढ़ाने जैसे जाने कितने ही विषय हैं जिन पर तुरंत विचार की आवश्यकता है लेकिन इस बहस में ऐसे सब विषय पृष्ठभूमि में चले जाएँगे।

देखना है कि हमारे राजनेता अपने दलगत स्वार्थों से उठकर किस तरह इस चुनौती का सामना करते हैं जो खर्च घटाने के नाम पर संवैधानिक मूल्यों का क्षरण करती प्रतीत हो रही है।  

विद्या भूषण अरोरा

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