जिन्न की साइकिल सवारी

सत्येंद्र प्रकाश*

सत्येंद्र प्रकाश इस वेब पत्रिका पर पिछले कुछ समय से निरंतर लिख रहे हैं और मानव मन की अतल गहराइयों को छू सकने की अपनी क्षमता से हमें अच्छे से वाक़िफ करवा चुके हैं। यहां प्रकाशित उनकी कुछ रचनाएंजैसे “और कल्लू राम को प्यारा हो गया”, “एक हरसिंगार दो कचनार“,  “तीन औरतें एक गांव की” और “टूर्नामेंट का वो आखिरी मैच” इत्यादि आप पढ़ ही चुके होंगे। बिहार की ग्रामीण पृष्ठभूमि से उनकी आज की कहानी भी काफी रोचक बन पड़ी है।

हर रोज़ की तरह आज भी दरवाज़े पर लोगों की भीड़ जमा है। कुछ इलाज के लिए आए मरीज हैं, तो कुछ थाने में पैरवी की गुहार लगाने वाले। रोजमर्रा की ज़रूरतों के लिए उधार माँगने वाले भी उपस्थित लोगों में शामिल हैं। हाँ, वो सब भी जो रोज़ गप्प-शप्प का आनन्द लेने यूँ ही आ बैठते, मौजूद हैं ही। पर आज फ़र्क ये है कि लोग कुछ ज़्यादा ही बेसब्र दिख रहे हैं। वैसे तो गप्प करने सुनने वालों को छोड़ बाकी सभी को तो रोज़ ही जल्दी होती। मरीज के साथ आए लोग हों या सिफारिशी, सभी को अपना काम-काज भी तो देखना होता। कर्ज़ की उम्मीद में आए लोगों को तो खासी जल्दी रहती। कोई आवश्यक काम लटका हो तभी तो ऋण की जरूरत पड़ती है।

लेकिन आज की बेसब्री बिल्कुल अलग है। इलाज, सिफारिश या उधार के अलावा भी कोई बात है जो मौजूद भीड़ को आतुर किए हुए है। सभी को वैद्यजी की प्रतीक्षा है। आम तौर पर वैद्यजी का आसन दुआर (घर के सामने की खुली जगह) पर सुबह सुबह ही लग जाता। शौच आदि के पश्चात। उनकी चाय का प्याला भी वहीं आ जाता। बीच बीच में चाय की चुस्की लेते हुए वे  मरीज़ों की बीमारी पूछ लेते। वैद्यकी में नाड़ी देखना अनिवार्य है। सो चाय के प्याले को सामने मेज़ पर रख वैद्यजी रोगी की नब्ज़ टटोल लेते। फिर अगली चुस्की के साथ कफ, पित्त और वात में किसका आधिक्य या असंतुलन मौजूदा बीमारी का मूल है, वैद्यजी मरीज को बताते। उपचार और परहेज़ बता एक मरीज़ से फारिग होते कि अगला अपनी तकलीफ बताना शुरू कर देता।

मरीजों को देखने के क्रम के बीच, वैद्यजी थाने या कचहरी की पैरवी की गुहार लगाने वालों की भी सुन लेते। उचित राय देकर, या फिर किसी और दिन साथ थाना चलने का आश्वासन देकर उन्हें विदा करते। हाँ, ऋण या उधार की उम्मीद में आने वालों को कितनी भी जल्दी हो, अत्यधिक सब्र का परिचय देना होता। उनकी बारी आखिरी में आती। सबसे निपटने के बाद। उधार की रकम उस दिन मरीजों से हुई आमदनी पर जो निर्भर होता। वैद्यजी का यह कोई प्रण नहीं था, पर सामान्यतः वे अलमारी में सहेजी रकम उधार देने के वास्ते नहीं निकालते। कोई बहुत बड़ी मुसीबत में हो तो बात और होती। तब इस सामान्य नियम को ताक पर रख अलमारी को कष्ट देने से वैद्यजी गुरेज़ नहीं करते।

गप्प करने और सुनने वालों को वैसे कोई जल्दी नहीं होती। पर आज वैद्यजी की प्रतीक्षा उन्हें सबसे ज्यादे है। बात ही कुछ ऐसी है, जो गप्पियों को ज़्यादा आतुर करे। वैद्यजी के बारे में जो बातें सुनने में आ रही हैं वे क्या सही हैं? उसी बात की तसदीक के लिए तो आतुरता है। आज रोगी भी बेचैन हैं उस बात की सत्यता जानने के लिए, उपचार से ज़्यादा बेचैनी उसी की है। उधार लेने वाले हों या सिफारिश की उम्मीद में बैठे लोग हों, आज सभी की बेचैनी का सबब का एक ही है। क्या वाकई वैद्यजी के साथ उनकी साइकिल पर “जिन्न” चलता है? अगर हाँ तो क्या वैद्यजी को जिन्न ने काबू कर रखा है, उनको कोई नुकसान तो नहीं पहुँचाया है? वैसे तो “जिन्न” ने वैद्य जी को कोई नुकसान पहुँचाया हो, ऐसा लगता तो नहीं है। वैद्य जी पहले की तरह ही स्वस्थ दिखते हैं। उनके व्यवहार में भी कुछ अटपटा नहीं दिखता। हो ना हो वैद्य जी ने “जिन्न” को अपने वश में कर रखा हो। हाँ शायद ऐसा ही हो। तभी तो वैद्यजी की प्रसिद्धि लगातार बढ़ रही है। उनसे इलाज कराने वालों में इलाके के  नामचीन लोग भी शुमार थे। गरीब गुरबों की तो कोई बात ही नहीं है। उनके लिए तो वैद्यजी यानि सुलभ, सस्ता और कारगर उपचार। ऐसी चर्चा कि वैद्यजी ने कई असाध्य बीमारियों का उपचार बड़ी कुशलता से किया है, आम हो चली है।

इस सूरत में “जिन्न” का वैद्यजी के वश में होना लोगों को सहज लग रहा है। लोकप्रियता और वैभव में आशातीत वृद्धि किसी अलौकिक शक्ति की देन लगने लगती है। यहाँ वैद्यजी के साथ ऐसे किसी संयोग का होना चरितार्थ होता दिख रहा है। रतनपुरा के वैद्यजी अकेले नहीं हैं अपने क्षेत्र में। कई अन्य वैद्य भी उनसे पहले से उस क्षेत्र में लोगों का उपचार कर रहे हैं। पर शफ़ा कहें या ऊपरी कृपा, वो तो रतनपुरा के इन्हीं वैद्यजी के हाथ में ही दिखती है। तभी तो दूर-दराज़ से भी मरीज़ उनसे इलाज करवाने आने लगे हैं। फिर “जिन्न” वाली बात स्वीकारने में कुछ भी असहज नहीं है। अगर लोगों को कुछ असहज कर रहा है तो वह वैद्यजी के मुहँ से इस बात की पुष्टि होने में विलंब।

जब तक वैद्यजी बाहर नहीं आ रहे हैं, उपस्थित भीड़ कयास लगाने में व्यस्त है। मूक मनन और मंथन मनुष्य स्वभाव है। और निष्कर्ष साझा कर रहस्य के पर्दाफाश की अधीरता मननशील मन की फ़ितरत। फिर गुत्थी सुलझाने का श्रेय पा लेना मन की सबसे बड़ी उत्कंठा। कयासों के बीच, “जिन्न” का वैद्यजी के साइकिल पर उनके साथ चलनेवाली बात कहाँ से निकली, पर सोच की सूई टिक गई। आगे पीछे, दायें बाएं कान फूसी के बाद स्पष्ट हुआ की पलक बढ़ई (कारपेन्टर) ने यह बात सबसे पहले कही है। भीड़ की दृष्टि पलक बढ़ई पर जा टिकी जो एक कोने में बैठा इस अधीर भीड़ की बेचैनी का लुत्फ ले रहा था।

लकड़ी तराश कर छोटी छोटी मूर्तियाँ और खिलौने गढ़ने वाला पलक बढ़ई बातों को तराश कर कहानी गढ़ने में भी सिद्धहस्त है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह खुराफात उसी के दिमाग की उपज है। पलक को मुखातिब भीड़ से कई स्वर एक साथ निकले, लगभग डपटते हुए, सच सच बताओ यह तुम्हारे दिमाग का ही फितूर है ना। पलक की विनम्र भाषा और वाक्पटुता से तनाव पूर्ण माहौल भी सहज हो जाता। अभी माहौल तनाव का नहीं बल्कि सत्यता की पुष्टि तलाशती बेचैनी का है। पलक ने बड़ी संजीदगी से कहा, बाबू वैद्यजी के विषय में कोई उल-जुलूल बात करूँ, इतनी हिम्मत तो मुझमें नहीं है। हाँ ऐसा जरूर है कि चुहल के लिए कभी कभी मेरी बातों में मसखरापन होता है, पर वैद्यजी को लेकर मैं कोई हल्की बात नहीं कर सकता।

पलक बढ़ई वैद्यजी के परिवार का अभिन्न सदस्य है। जजमानी व्यवस्था में पुरोहित, नाऊ, कुम्हार इत्यादि के साथ बढ़ई भी परिवार के सदस्य कि तरह होते हैं। खेतों की उपज का एक अल्प भाग इन सभी का होता। बच्चे के विद्यारंभ की पटरी (तख्ती) से लेकर शादी-ब्याह  के लिए पीढ़ी, चौकी और खेती में काम आने वाले हल जुआठ आदि तमाम चीजों का निर्माण जजमानी व्यवस्था में परिवार से जुड़े बढ़ई की जिम्मेदारी होती है। इसी व्यवस्था में वैद्यजी के बड़े संयुक्त परिवार की जरूरतों के कारण पलक उनके दरवाजे से बँध से गये हैं। काम करते वैद्यजी के दरबार में चल रहे गप्प सड़ाके में शामिल हो जाना भी पलक के कर्तव्य बोध का हिस्सा है। अवसर पाकर अकेले में वैद्यजी से राज़ की कुछ बात कर लेना पलक को हिमाकत नहीं लगता।

पलक मिस्त्री (कई लोग बढ़ई की जगह को मिस्त्री कहना पसंद करते थे) वैद्यजी का मुंह लगा है, लोगों को पता था। संभवतः पलक की किसी ठिठोली के उत्तर में कभी वैद्यजी ने ही तो ऐसा कुछ नहीं कह दिया। वैद्यजी के इंतजार की इंतहा देख लोगों ने पलक से ही सुराग पाने की कवायद शुरू कर दी। दबाव में पलक ने दबी जुबान “जिन्न” के ज़िक्र की बात बतानी शुरू की। वैद्य जी का लगभग हर रोज देर रात घर लौटना सबको पता है। पलक को वैद्यजी की बड़ी फिक्र रहती।

वैद्यकी से फारिग हो हर शांम पास के गाँव के अपने मित्र ओझा जी के वहाँ चले जाते। ओझाजी उस इलाके के छोटे मोटे जमींदार थे। आदर से लोग उन्हें बाबू कह संबोधित करते। शाम में बाबू के घर दरबार सा लग जाता। हर किस्म के लोग बाबू के दरबार में शिरकत करते। उनके दरबार में उस क्षेत्र के सबसे लोकप्रिय वैद्य भी उपस्थित हों, बाबू के लिए शान की बात थी। आम तौर पर बाबू उनके परिवार के सदस्यों का अन्य लोगों से संबंध राजा और प्रजा वाला होता। पर बाबू जी ने वैद्यजी से मित्रता का भाव ही रखना उचित समझा। कदाचित वैद्यजी के स्वाभिमान को चोट न पहुँचे और वैद्यजी दरबार में बैठना छोड़ दें।

वैद्यजी भी दरबार में विशिष्ट स्थान पाकर गौरवान्वित रहते। व्यवसायिक दृष्टि से भी यह हितकर था। दरबार में बातचीत के क्रम में असाध्य रोगों के उपचार से जुड़ी वैद्यजी के किस्से आ ही जाते। और ऐसी बातें मुहाँ-मुँही दूर तक पहुँचती। इलाज के लिए आने वालों की संख्या में वृद्धि से इसकी बारम्बार पुष्टि होती रहती। परस्पर हितकर मित्रता की मियाद बड़ी होती। बाबू और वैद्यजी की दीर्घकालिक मित्रता इसका प्रमाण है।

लेकिन दरबार की कुछ अघोषित शर्तें होती। तभी तो बाबू साहब के दरबार में मौजूदगी तक कोई सभा नहीं छोड़ता। वैद्यजी की बाबू से मित्रता इस शर्त की बंदिश से परे है, पर वैद्यजी का प्रयास रहता सभा के समापन तक उनकी उपस्थिति सुनिश्चित रहे। ऐसे में घर लौटने में देर होना स्वाभाविक है।

बाबू साहब के गाँव से वैद्यजी के घर तक का रास्ता लगभग सुनसान सा है। झाड़ों और पेड़ों से घिरे रास्ते का एक हिस्सा तो रात में कतई सुरक्षित नहीं है। पलक जैसे शुभचिंतक को वैद्यजी की फिक्र हो, बिल्कुल स्वाभाविक है। दिन भर की आमदनी भी साथ होती, ऐसे में चोर उचक्कों की गिद्ध दृष्टि कब पड़ जाए पता नहीं होता। बुरी आत्माओं का शिकार होने की चर्चा भी ग्रामीण परिवेश में आम है। वैद्यजी की बेफिक्री पलक के अतिरिक्त फिक्र की वजह थी। तो अवसर पाते ही उसने पूछ ही लिया, देर रात सुनसान रास्ते में अकेले चलने में आपको डर नहीं लगता।

अपने लिए पलक के मन में चिंता देख इसका निराकरण ही वैद्यजी को उचित लगा। उन्होनें पलक से ‘राज़’ साझा कर लिया, यह कहते हुए कि ये तुम किसी को बताना मत। जानते हो मेरे साथ साइकिल पर “जिन्न” बाबा चलते हैं। जिसकी रक्षा जिन्न बाबा करें उसे किसी से कैसा डर। यह सुन पलक का मुँह खुला का खुला रह गया। भौंचक्की आँखों कुछ पल के लिए वैद्यजी को जड़वत निहारती रहीं। स्वयं को संभालते हुए पलक ने जिन्न की गुत्थी को सुलझाने हेतु वैद्यजी से आग्रह किया। बड़ी गंभीरता से वैद्ययाजी ने पलक को बताया, एक रात जब मैं लौट रहा था, झाड़ों के बीच से निकल कर एक साढ़े छह-सात फुट का गबरू जवान सड़क के ठीक बीचों बीच सामने आ खड़ा हुआ। बिल्कुल सफेद लिबास में! कडक आवाज़ में उसने कहा, “”ऐ वैद्य वहीं रुक! क्या तुम्हें मुझे देख भय नहीं हो रहा।“

“मैंने भी बुलंद आवाज में जवाब दिया, मैं क्यों डरूँ जब माँ भगवती की कृपा है मुझ पर।“ और हाँ, अपने लंबे चौड़े शरीर का तो भय बिल्कुल ही नहीं दिखाना, मेरी साइकिल में बँधी लट्ठ देख रहे हो। बड़े-बड़ों को इसने मजा चखाया है।“ पलक दम साधे सुन रहा था और जानता था कि वैद्यकी के साथ वैद्यजी का लट्ठ कौशल भी प्रख्यात है। 

“मैं तुम्हारी निडरता का कायल हो गया।“ सामने से जवाब आया। “मैं इस क्षेत्र का अधिपति जिन्न हूँ। तुमने कई गरीबों की जान बचाई है। मैं तुम्हारे निस्वार्थ सेवा भाव से प्रसन्न हूँ। आज से रात में अदृश्य रूप में तुम्हारे साथ तुम्हारी साइकिल पर रहूँगा। अब से तुम्हारी  सुरक्षा का दायित्व मेरा।“

जिस गंभीरता से वैद्यजी ने पलक को ये बात बताई, पलक के मन में अविश्वास की रति भर भी गुजाइश नहीं रह गई थी। हाँ, उसके दिलों दिमाग की क्षमता इतनी गंभीर बात पचा  पाने की थी नहीं। सो उसने गाँव के नाऊ को ये बात बता दी, उसी हिदायत के साथ जिस हिदायत के साथ वैद्य जी ने उसे ये बात बताई थी। यानि यह बात तुम किसी और को बताना मत। अक्सर ऐसी बातों को प्रसार और तेजी से होता है जो किसी और को ना बताने की हिदायत के साथ की गई हो।

आज की उपस्थित भीड़ के दबाव में सहमी धीमी आवाज में पलक ने पूरी कहानी दुहरा दी। घर के बरामदे से सटे अपने कमरे में बैठे वैद्यजी पूरा आनंद ले रहे थे। जैसे पलक द्वारा कहानी पूरा होने का ही उन्हें इंतजार था, वैद्यजी बाहर आ गए।  देखते ही भीड़ के बीच से सवाल आया, क्या पलक जो कह रहा है, सही है। जवाब में वैद्यजी मुस्कुरा भर दिए। जैसे मौन स्वीकार का लक्षण है। “जिन्न के संरक्षण” मैं वैद्यजी का निर्बाध आना जाना चलता रहा। कभी भी किसी चोर उचक्के की वैद्यजी की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हुई। और इस तरह पलक से वैद्यजी का यह ‘राज़’ साझा करना बेकार नहीं गया।     

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है। इन्होंने पहले भी इस वेब पत्रिका के लिए लेख दिए हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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20 COMMENTS

  1. वाह, क्या मजेदार कहानी लिखी है आपने जो पाठक को अंत तक बांधे रहती है. कहानी के पात्र जीवंत हो कर सामने आ जाते हैं. और गांव की संस्कृति अपनी सादगी और स्नेह के साथ उपस्थित हो जाता है. पत्रों का व्यक्तित्व, स्थान की खासियत और घटना की आत्मीयता एक जादुई आकर्षण पैदा करती है.

    लेकिन मेरी नजर में इससे ज्यादा महत्वपूर्ण पक्ष ये है कि इस कथा के माध्यम से लेखक 70 / 80 के दशक के ग्रामीण जीवन का एक प्रमाणिक दस्तावेज भी गढ़ता है. सामाजिक और आर्थिक संबंधों का तानाबाना एक सामंती समाज की समरसता और वर्गीकरण दोनो का सटीक और सरस वर्णन इस कहानी को एक महत्वपूर्ण दस्तावेज भी बनाता है. जिंदाबाद…

    • वागीश भाई, आप जैसे कथा शिल्प की बारीकियों को बखूबी समझनेवाले मित्र के स्नेह सिक्त शब्दों से मुझ जैसे नौसिखिये रचनाकार की बड़ी हौसलाअफ़जाई होती है। प्रोत्साहित करते रहने के लिए हृदय से आभार।

  2. हमारे बचपन की भारतीय ग्रामीण मानसिकता का इतना जीवंत चित्रण मन को सुखद आनंद से भर गया।हालांकि दूरदराज के गांव अभी भी ऐसे ही जी रहे हैं।आंचलिक भाषा कथ्य को प्रभावी बनाने के साथ-साथ प्रमाणिक भी बनाती है।

    • धन्यवाद अल्केश जी। कहानी पसंद आये और पाठक की कुछ नई पुरानी यादें ताज़ा कर जाये, इसी में रचना की सार्थकता निहित होती है। आभार।

  3. कहानी के माध्यम से, मेरे विचार से, लेखक ने एक सार गर्भित तत्व का उदघाटन किया हैं। यह जिन्न, भूत प्रेत आदि का अस्तित्व सचमुच होता हैं या यह केवल हमारे अंतर मन की कमजोरी??? अंतर मन यदि भय मुक्त हैं तो अशरीरी अस्तित्व केवल भ्रम मात्र है। श्रृष्टि को रचनेवाले का अस्तित्व यदि अनुभूति में हो तो व्यक्ति भय मुक्त हो जाता हैं। बहुत सुंदर उपस्थापना एक रोचक प्रसंग के माध्यम से। मेरा हार्दिक प्रणाम।

    • शशि जी, आपने कहानी के सार को समझा और मानव सुलभ कमजोर मन की भ्रामक कल्पना एवं अनात्मिक अस्तित्व को समझाते हुए अपनी राय दी। दर असल मन स्वयं भय मुक्त होने के लिए लौकिक अलौकिक अस्तित्व का ताना बाना बुनता है। आपको कहानी अच्छी लगी और आपने अपनी राय से अवगत कराया, आपका आभार और धन्यवाद

      • बहुत बहुत शुक्रिया आपका जो आपने इस सामान्य पाठक के विचार को अपना अमूल्य समय दिया, मैं अपना आंतरिक आभार प्रकट करती हूं और आगे भी आपकी लेखनी से हमें सिंचित होने का सौभाग्य प्राप्त होता रहेगा। मेरा सादर प्रणाम।

  4. वैद्य जी की इस कहानी को इतने रोचक तरीके से बुनना असाधारण कौशल है। हालांकि, हमलोगों ने बैठकी का वो दौर तो नहीं देखा है लेकिन इस कहानी के जरिए उस दौर से घूम कर अभी अभी लौट रहे हैं। कहानी का एक एक चरित्र सामने खड़ा है। हां, 70 के दशक के वैद्य जी तो नहीं पर 80-90 के दशक का उनका दौर जरूर याद है। अब तो नागमणि की कहानी भी पढ़ा ही दीजिये।

    • जिस दौर मे फिक्शन या समकालीन कहानियों का दौर चला आ रहा है, उस दौर आंचलिक और ग्रामीण परिवेश की एक कथ्य को ऐसी कहानी के तौर पर बुनना असाधारण कौशल है। आधुनिक साहित्य के मीटर में फिट ये कहानी कई मायनों में रेणु जी की याद दिला रही है।

  5. जिस दौर मे फिक्शन या समकालीन कहानियों का दौर चला आ रहा है, उस दौर आंचलिक और ग्रामीण परिवेश की एक कथ्य को ऐसी कहानी के तौर पर बुनना असाधारण कौशल है। आधुनिक साहित्य के मीटर में फिट ये कहानी कई मायनों में रेणु जी की याद दिला रही है।

  6. जिस दौर मे फिक्शन या समकालीन कहानियों का दौर चला आ रहा है, उस दौर आंचलिक और ग्रामीण परिवेश की एक कथ्य को ऐसी कहानी के तौर पर बुनना असाधारण कौशल है। आधुनिक साहित्य के मीटर में फिट ये कहानी कई मायनों में रेणु जी की याद दिला रही है।

    • रचना रोचक बन पड़ी है, जानकर ख़ुशी हुई। मैं नहीं जानता वाक़ई मेरी रचनाएँ रेणु जी जैसे महान साहित्यकार की रचनाओं के तनिक क़रीब भी है। पर तुम जैसे सुधि पाठकों को उनकी थोड़ी भी झलक मिली है, तो मैं अपने को धन्य समझ रहा हूँ। प्रशंसा मादक तो होती है पर आगे बढ़ने के लिए आवश्यक भी होती है। बहुत बहुत धन्यवाद

  7. कहानी अत्यंत रोचक लगी मित्रवर. एक सांस में ही पढ़ गया। कथ्य, भाषा और शैली ग्रामीण परिवेश की स्वाभाविक सुंदरता से सराबोर है। बहुत आनंद आया।

    • धन्यवाद सिन्हा साहब। कोई लेख पढ़ कर पाठक आनंदित हो उठे, किसी भी लेखक के लिए बहुत बड़ी बात है। हृदय से आभार

      • शुक्र है, इस बार मेरी एंट्री हो सकी। पूर्व में कई बार तो मुझे कोई स्पेस ही नहीं मिला। पीयूष कमल सिन्हा

  8. जिन्न वाली घटना की चर्चा मुझे भी याद है। घटना को साहित्य के सुंदर एवं सटीक शब्दों में पिरोकर अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जिन्न का रहस्य घटना क्रम के अंतिम चरण में पलक चाचा द्वारा खोलना श्रोताओं की उत्सुकता में वृद्धि कर रही है। अपने संस्मरण को लिखने का क्रम जारी रहें…….. धन्यवाद

    • धन्यवाद भाई। आप सभी मेरी कहानियों को पसंद कर रहे हैं यह मेरा सौभाग्य है। ऐसे कई प्रसंगों से आप स्वयं परिचित हैं। उम्मीद है मेरी इन कहानियों के साथ उन लम्हों को फिर जी लेने का अवसर मिल रहा है।

  9. ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में गढ़ी ये रचनाएँ मुझे अद्भुत सिर्फ़ अपनी रोचकता,शब्द-पारंगत विवरण इत्यादि से नहीं लगतीं अपितु किसी शहरी पाठक जिसने गाँव ना देखा हो उसे भी गाँव घुमा लाने की क्षमता से लगती हैं।
    पुनरावृत्ति के बावजूद कहना ही पड़ेगा, मुंशी जी के आशीष हैं आपकी कलम पर और लोक पर आपकी अनूठी समझ मुझे अजब आनंद देती है।
    जय हो🙏🏻🌼🌼

    • लेखन के क्रम में पाठकों का अनवरत स्नेह मिलता रहा है। विशेष कर तुम जैसे कुछ ख़ास पाठकों ने तो खुले मन से प्रशंसा की है। अपनी लेखनी को धन्य समझता हूँ जो किसी परिस्थिति विशेष और काल खंड को जीवंत कर पाने में सक्षम हो पाती है।

  10. गाँव के परिदृश्य में बुनी गयी यह कहानी अत्यंत ही रोचक है तथा अंत तक अपने आप में बांधे रखती है। कहानी के एक-एक पात्र व उनके द्वारा किये जा रहे क्रिया-कलापों का उल्लेख बहुत ही अच्छी तरह से किया गया है और ऐसा प्रतीत होता है कि आप स्वयं ही उस कहानी का हिस्सा हो। गाँव व गाँव के जीवन से सम्बंधित यह कहानी बहुत ही दिलचस्प है और आखिरी तक कहानी के घटनाक्रम में व कहानी के पात्रों के साथ जोड़े रखती है। मैं लेख़क से अनुरोध करूँगा कि भागदौड़ के इस शहरी माहौल में गाँव के साधारण व सहज जीवन पर आधारित और कहानियाँ इस मँच पर लाकर हमें लाभान्वित करें।

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