अंधेरे के बीच के उजाले की कहानी

राजेंद्र भट्ट

‘कागद कारे’ कैटेगरी में पुस्तक-समीक्षाएं पहले भी प्रकाशित होती रही हैं और सामान्य अर्थ में राजेन्द्र भट्ट का यह लेख पुस्तक-समीक्षा ही है लेकिन चूंकि समीक्षा आम तौर पर नई प्रकाशित पुस्तकों की ही होती है, इसलिए आप इसे एक ऐसे लेख के तौर पर पढ़िये जो एक संवेदनशील पाठक ने एक बहुत ही विशिष्ट ‘उपन्यास’ को पढ़ने के बाद लिखा है।

बेबी हालदार की ‘आलो आंधारि’ 2002 में छपी थी – अब पढ़ी। पढ़ने के बाद लगा कि एक बहुत ही ज़रूरी किताब पढ़ने से छूटी हुई थी क्योंकि ऐसी किताबें हमें मनुष्य के तौर पर भी समृद्ध करती हैं और भाषा-भाव के स्तर पर भी! इसलिए ऐसी किताब कभी भी पढ़ लेनी चाहिए।

बेबी हालदार के बचपन से ही पिता ने परिवार की उपेक्षा की, किसी रहस्य की तरह अकसर लंबे समय तक घर से गायब रहे, और फिर एक दिन मां करीब दस साल की  बेटी के हाथ में दस पैसे का सिक्का रख कर,  बेटे को लेकर गायब हो गई। फिर घर में दूसरी और उसके मर जाने के बाद तीसरी मां आ गई। बच्ची हर हाल में पढ़ना चाहती थी  और पूरी जिद और संघर्षों के साथ सातवीं तक पहुँच गई थी। उसने बांग्ला में बहुत-सी किताबें पढ़ भी ली थीं। लेकिन पिता ने बारह साल की बच्ची की, उसकी दोगुनी से ज्यादा उम्र के  एक मंदबुद्धि संवेदनहीन व्यक्ति से शादी करवा दी। इस यातनामय विवाह की परिणति तेरह साल की उम्र में, बिना किसी स्नेह और सहारे के, भीषण  वेदना से गुजरते हुए, मां बन जाने में हुई। यों  ही, वह तीन बच्चों की मां बन गई।

इन अभावों-यातनाओं  के बीच भी वह, रोजी-रोटी जुटाते हुए भी,  बच्चों को पढ़ाने के लिए संघर्ष करती रही। आंशिक सहारा था तो कुछ स्नेही रिश्तेदारों का, जो अपने अभावों के बावजूद, उसे दुलार देते थे।   नई माता और पिता के घर थोड़ा स्नेह कभी मिला  तो वहाँ जाते ही उनके घर की अशांति झेलनी पड़ती थी। फिर स्नेहशील बड़ी बहन की  उसके पति ने  हत्या कर दी। पति की निरंतर उपेक्षा, चरित्र पर संदेह और बर्बरता के बावजूद, यह किशोरी मां लौट-लौट कर अपने ही ‘घर’  लौटती रही। लेकिन जब मार-पीट असहनीय हो गई तो एक दिन, बच्चों को पढ़ा पाने और बेहतर जीवन की उम्मीद में, तीन बच्चों वाली यह बच्ची पश्चिम बंगाल में दुर्गापुर से दिल्ली के पास फरीदाबाद के लिए ट्रेन से चल पड़ी – अजानी ठौर,  अनिश्चित भविष्य की राह पर।  परिचितों द्वारा निरंतर अपमान, दुरदुराहट और पति को छोड़ कर आने की फटकारों के बीच ऐसे घर में काम मिला जहां चंद पैसों के लिए उसे दिन-रात निर्ममता से जोत दिया  गया – यहाँ तक कि बच्चों का मुख देखने का भी वक्त न दिया गया …..

28-29 की उम्र में, शायद वर्ष 2000 के आस-पास, बेबी को गुड़गाँव की उच्च-मध्य वर्ग वाली सोसाइटी में प्रबोध कुमार के घर काम मिला। प्रबोध यशस्वी हिन्दी साहित्यकार प्रेमचंद के प्रपौत्र और पेशे से एंथ्रोपोलोजिस्ट थे। बेबी को वहाँ सुकून मिला, स्नेह मिला। प्रबोध कुमार की किताबों की अलमारी की सफाई करते समय, उन्हें बेबी के पढ़ाई-लिखाई के प्रति अनुराग का पता चला। उन्होंने बेबी के हाथों में कापी-कलम थमाई और अपने ही शब्दों में अपनी कहानी लिखने को प्रेरित किया। बांग्ला में लिखी इस कथा  को प्रबोध कुमार ने हिन्दी में अनूदित किया, दोस्तों को दिखाया, उनकी प्रशंसा से प्रेरित हुए और मूल बांग्ला से पहले ही कोलकाता के रोशनाई प्रकाशन से 2002 में हिन्दी संस्करण प्रकाशित हो गया – आलो आंधारि ( अंधेरे का उजाला)।

आलो आंधारि लोकप्रिय हुई, देशी-विदेशी कई भाषाओं में छपी, उसने बेबी हालदार को प्रतिष्ठा दिलाई, अपने और अपने बच्चों के लिए बेहतर जिंदगी दिलाई।

अपने समाज में वेदना और जिजीविषा की गाथाओं वाली बेबी हालदार तो बहुत हैं, पर उनकी कथा से  आलो आंधारि जैसी किताब बन जाए, इसके लिए साहब का प्रबोध कुमार होना  ज़रूरी हो जाता है। दरअसल जो बेबी होती हैं, उनके जीवन में रोजी-रोटी और छत पा जाने के संघर्ष  इतने वास्तविक होते हैं कि उन्हें अपनी  भाषा पर कई परतें चढ़ा कर खुद को पेश करने की गुंजाइश ही नहीं रहती। ये संघर्ष इतने निरंतर और तत्काल सुलझाए जाने की मजबूरी वाले  होते हैं कि विशेषणों की सुपरलेटिव डिग्री वाली,  फुर्सत वाले साधन-संपन्नों की कसीदे वाली भाषा में पेश करने का न वक्त होता है, न ज़रूरत।

दूसरी तरफ, भौतिक साधनों के जखीरे और अहं से उत्पन्न मोह-निद्रा में डूबे अपने मध्य-वर्ग ने निस्सार विशेषणों से कुरूपित एक टकसाली, सतही भाषा गढ़ ली है जिसमें जीवन की समग्र गहनता और मार्मिकता पकड़ में  नहीं आ पाती। और फिर यह भाषा हमारे सोच को  समग्र, मार्मिक और गहन नहीं बनने  देती। विडम्बना यह है कि सोच और भाषा, जो  एक-दूसरे के पूरक होने चाहिए, बाधक बन जाते हैं।

मसलन, प्रबोध कुमार  अगर क्रूर और असंवेदनशील साहब होते, तब तो इस किताब के शुरू होने का सवाल ही नहीं होना था। लेकिन अगर प्रबोध कुमार सज्जन, उदार माने जाने वाले ऐसे साहब होते जो अपने किचन के दरवाजे के पास या बरामदे के फर्श में बेबी को बिठाकर  कभी-कभी, अलग से रखे बर्तनों में  नाश्ता दे देते, पगार के अलावा कुछ और पैसे कभी दे देते। उनका   भाषा-सोच उन्हें गदगद करता कि उन्हें दुख-भरे जीवन वाली नौकरानी से अच्छा व्यवहार करना है, उसकी मदद कर देनी है, फिर उसे प्रेरित कर देना है कि वह अपनी दुख-गाथा लिखे,  उदार प्रोत्साहन से उसके टूटे-फूटे लेखन को सुधार-सुसंस्कृत कर देना है, हो सके तो  छपवा भी देना है – ऐसा लेखन कि सहृदयों की आँखों में आँसू आ जाएँ और कथा-वर्णन में बरबस आते जा रहे विशेषणों का चरम  प्रवाह बिना सोचे, बिना रोके  जारी रहे। उनकी कृपा की छतरी तले  बेबी  का जीवन सुखी हो, वह उनकी ऋणी रहे – जिसका उन्हें भी सौम्य-सा गर्व रहे, सुख रहे।

लेकिन तब भी आलो आंधारि जैसी लिखी गई है, ऐसी नहीं लिखी जाती।

आलो आंधारि के संभव हो पाने से पहले प्रबोध कुमार ऊपर बताए गए भाषा-सोच से मुक्त हुए होंगे। उन्होंने उस भाषा-सोच को ‘अनलर्न’ किया होगा – भूला-बिसराया होगा। तभी तो वह बेबी के ‘तातुश’ बन पाए। मैंने बंगाली मित्रों से पूछा तो उन्होंने बताया कि बांग्ला  में ऐसा शब्द नहीं है। ऐसे शब्द सुसंस्कृत  भाषाओं की सीमाओं को अक्सर लांघ कर अर्थवान हो जाते हैं। ‘तातुश’ –  यानि कल्पना कीजिए ऐसे पिता की जिसमें स्नेह हो, करुणा हो, जिसके साथ दोस्त जैसा संवाद और अनुराग हो, और जो सहानुभूति की किस्त न बांटे, उसमें सम-अनुभूति (एंपैथी) हो।

जब बेबी और ‘तातुश’ के बीच, प्रचलित भाषा-सोच का दायरा लांघते हुए एंपैथी, अनुराग और संवाद बना तो एक अनूठी भाषा-शैली में बेबी बांग्ला में ‘आलो आंधारि’ लिख सकीं और तातुश उसे हिन्दी में उतार सके। इसे ठीक से समझा पाने के लिए, इस किताब की कुछ अटपटी-सी लगती भाषा का ही इस्तेमाल करना पड़ेगा जो भाषा की हदें तोड़ती है।  किताब के शुरू में, ‘दो चार बातें’ में लिखा है:

“यह पुस्तक कोई प्रोडक्ट नहीं है जैसा कि पुस्तकें होती जा रही हैं….. प्रचलित रूप का प्रकाशन-कर्म नहीं है… जिसमें मोहने की इच्छा तो कहीं भी नहीं है और न यह दुखड़ा रोना है। —ऐसा जीवन जो हमारे चारों तरफ बीतता है लेकिन हम  उसके मर्म के बारे में कुछ नहीं जानते और न ही जान सकते हैं क्योंकि भद्रता का तकाजा है कि हम…. अपने आस-पास की झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों के चूल्हे-चौके का हालचाल जानने की जिज्ञासा ही अपने भीतर  पनपने न दें। बेबी हलदर की यह पुस्तक वह झरोखा है जहां से हमें वे जिंदगियाँ दीख पड़ती हैं जिन्हें हम देखते हुए भी नहीं देखते।“ 

पर जब बेबी, तातुश, उनके दोस्तों और संवेदनशील प्रकाशक के बीच सम-अनुभूति बनी  तो  बेबी की अजब लिखावट और व्याकरण-शून्य भाषा सँवरती गई। तातुश की ये खूबी इस प्रयास में ज़रूर काम आई होगी कि वह:

 “परिपाटीनुमा घटिया तरतीब को रबड़ लेकर सिलसिलेवार बैठे मिटाते रहते हैं ताकि कोरे कागज़ की खूबसूरती बरकरार रहे।“  तभी तो, ‘आलो आंधारि’ की“सीधी-साधी करामात की लय को उन्होंने हिन्दी में कर दिया। ‘एक जुबान को दूसरी जुबान दी पर रूह को छुआ नहीं। एक बोली की भावना दूसरी बोली में बोली, रोई और मुस्कराई। दोनों बोलियों को प्रबोध कुमार ने ‘एक पेट से निकली सहेलियाँ’ बना दिया।“

प्रबोध कुमार सजग थे कि बेबी की रचना को सँजोने में,  उन्हें अपने ‘साहब’ को पीछे छोडना है, बेबी की सही-सही ‘कहन’ को आगे रखना है। तभी तो, वह समझते हैं कि जब कहानी में कहीं-कहीं  बेबी खुद को ‘मैं’ न कहकर ‘बेबी ने ऐसा किया’ की तरह बयान करने लगती है तो दरअसल:

 “अपने जीवन की कुछ घटनाओं को भूलते रहने की कोशिश में उसे अब कभी-कभी ऐसा लगने लगता है जैसे वह घटनाएँ उसके नहीं, किसी और के साथ घटी हैं।“

प्रबोध कुमार यह भी समझते-समझाते हैं कि “इन्कम लिखने के बाद बेबी पूछ बैठी कि इसे अंग्रेजी में क्या कहते हैं।“

और समझदार संपादक-अनुवादक की तरह,  ‘तातुश’  बेबी की इस भाषा को ‘एडिट’ करने की नासमझी नहीं करते, जो शायद प्रबोध कुमार कर बैठते।

जैसा पीछे कहा है, जब ‘गेटेड कॉलोनी’ का झरोखा खुल जाता है तो  बेबी जैसों का ‘प्रेम, जिजीविषा और सहयोग’ का जीवन ठीक से दीखने  लगता है। और हाँ, तमाम तकलीफ़ों के बावजूद, बेबी जैसों के जीवन में वह ‘दुखड़ा रोना’ और उस तरह का पस्त अवसाद या मृत्यु-कामना (या फिर लिजलिजी सी प्रेरणा, महिमा-वंदना का गायन, गदगद ‘बढ़े चलो’ भाव) नहीं होते जो बिना उनका झरोखा  खोले लिख-समझ लिया जाता है। बेबी जैसी संघर्षशील ज़िंदगियों में जीवन के अस्वीकार की न सुविधा है, न समय। उनकी बनावट, सोच और भाषा –  बस जैसी है, वैसी ही है। भाषा और संस्कार की  परतों और काई से मुक्त – निरावरण।

किताब  के बारे में इसलिए लिखा कि इसे पढ़ने की भाव-दृष्टि बन जाए। किताब के बीच से ‘कोटेशन’ इसलिए नहीं दिए क्योंकि ऐसी किताबों को  नदी के  एक सम्पूर्ण प्रवाह की तरह पढ़ा जाना चाहिए। सादा, सुकून भरा प्रवाह ही इनका  सौन्दर्य है। होटल के स्विमिंग पूल की तरह, इनमें पानी को टुकड़ों में सजाया नहीं गया है कि कोई अलंकृत टुकड़ा आपको मुग्ध कर दे।    

यह किताब इस लिए पढ़ी जानी चाहिए  कि समाज के एक बड़े तबके के जीवन के बारे में यह हमें ज्यादा समझदार, संवेदनशील  और गंभीर बनाती है। उन आँखों की दृष्टि  हमें वह ज़मीन दिखाती है जो हम अपनी चश्मे लगी आँखों से नहीं देख पाते।

*****

*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

इस लेख की सभी तस्वीरें लेखक ने उपलब्ध करवाई हैं।

5 COMMENTS

  1. The book is worth reading, and has been reviewed numerous times earlier, also with the story behind the creation of this book. However, Bhat ji narrates it so beautifully that it looks fresh and tempting even for those who have already read the book and known about the author and her mentor.

  2. समस्त संवेदनाओं को उकेरती तथा जीवंत वर्णन की विशेषता लिए आपकी भावात्मक टिप्पणी लिए लेखिका से परिचय हेतु हार्दिक आभार 🙏🏻

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