आइए बदलाव को बिना डरे गले लगाएं – फिल्मी गीतों से मिलता जीवन दर्शन – भाग 2.

सुधीरेन्द्र शर्मा*

दोहराना तो हमारे जीवन का जैसे मूल मंत्र है। सुबह से शाम तक सब कुछ दोहराया जाता है, बिना यह जाने कि ऐसा क्यों है और क्यों हम दोहराने से थकते नहीं। लेकिन यह कोई नहीं चाहता कि और कोई दूसरा ऐसा करे। अक्सर यह सुनने में आता है कि फलाँ -फलाँ से क्या मिला जाये, वो तो हर बार वही बातें दोहराते हैं, बोर करते हैं।  खुद में चाहे कुछ नया न हो लेकिन दूसरों से नयेपन की अपेक्षा सबमें निरंतर बनी रहती है।

सुबह से शाम तक का जायज़ा लेंगे, तो पता चलेगा कि हर रोज़ कुछ भी नया नहीं हो पाता। बिस्तर पर सोने का तय कोना, चाय का समय और स्थान, दफ्तर के लिए तैयार होने की जल्दबाज़ी,  सहकर्मियों से वही शिकायतें, और तो और गालियां भी नहीं बदलतीं। साथ ही अब तो इंटरनेट भी दोहराने का अभ्यास बनाये रखने में मदद करता है, क्योंकि उसके ऍप्स के अल्गोरिथम ये ध्यान रखते हैं कि आपकी रुचि के अनुसार ही कंटेंट आपको परोसा जाए, यानि वही दोहराव। रोजाना होने वाले समान अनुभव से उपजी पूर्वानुमान (predictability) की आदत के काऱण जीवन में नीरसता का आना भी स्वाभाविक ही है।

पचास की उम्र के बाद तो दम्पति घूमने-फिरने जाने के लिए भी साथियों को खोजते हैं क्योंकि नकारात्मक पूर्वानुमानों के प्रकोप का सच होना भला कौन पसंद करता है? दूसरी तरफ कुछ मित्रों का यह भी कहना है कि अब तो परिवार में केवल दो शब्दों की बातें ही होती हैं। हो भी क्यों न क्योंकि हम सभी दोहराव के प्रभावों से बोझिल रहते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हर पल नया ही हो, कुछ तो दोहराना ही पड़ता है, लेकिन दोहराने में नयेपन का तड़का न लगे तो जीवन नीरस और बेस्वाद होने लगता है।

मैंने अपने जीवन में ‘बदलाव’ का तड़का 1980 में लगा लिया था।  गुलज़ार के इस गीत ‘सारे नियम तोड़ दो, नियम पे चलना छोड़ दो’ को मैंने आत्मसात कर लिया है। मैं कब क्या करता हूँ, मुझे खुद पता नहीं रहता। कोशिश यही रहती कि जहाँ तक संभव हो पहले खुद को ‘चकमा’ दे सकूँ, तभी तो किसी और को ‘हैरान’ कर पाउँगा। कवि-गीतकार शहरयार की, अपने प्रख्यात गीत ‘सीने में जलन सांसों में तूफ़ान सा क्यों है’ में कही इस गहरी बात को मैं भूलना नहीं चाहूंगा, चाहे और कोई इससे इत्तेफ़ाक़ रखे या न रखे। मेरे लिए तो बदलाब आसान रहा है, जैसा कि कहा भी जाता है कि यह कोई राकेट-साइंस नहीं है। आप भी आज़मा कर देख सकते हैं।

मेरा मानना है कि बदलाव न स्वीकारने की आदत एक तरह का अड़ियलपन ही तो है, जो खुद को ‘सही’ और दूसरे को ‘गलत’ साबित करने में लगा रहता है। लेकिन वास्तव में ऐसा क्या कभी हो पाता है? इसके विपरीत, इस से मन में ‘गिरह’ (गांठ) बनने लगती हैं, जो समय के साथ उलझती जाती हैं क्योंकि हमारा ‘अहम्’ बदलाव की हमें इज़ाज़त ही नहीं देता, और इस तरह मामला और बिगड़ जाता है। अगर मन, बदलाव के लिए तैयार हो तो ‘गिरह’ बनेगी ही नहीं, और अगर ‘गिरह’ नहीं बनेगी तो मन, सिर्फ गीत ही गुनगुनाएगा। शंकर-जयकिशन की मधुर धुन पर शैलेंद्र का बहुचर्चित गीत ‘दिल की गिरह खोल दो चुप न बैठो कोई गीत गाओ’ इसी विचार को चरितार्थ करता है। 

‘रात और दिन’ (1967) फिल्म की रचना का आप आनंद लें। गीत के बोलों में बहुत कुछ समझने के लिए है लेकिन ‘दोहराने’ की बात पर अभी कुछ और कहना बाकी है। प्रश्न यह है कि वैचारिक या व्यावहारिक बदलाव से हम क्यों कतराते हैं?  इसको समझने के लिए निम्न अनुक्रम समझना होगा:

1. दिन के शुरुआत से ही हमें ‘यादें’ घेर लेती हैं जो आसपास के लोगों या घटनाओं से जुड़ी होती हैं; दिमाग इन यादों की लाइब्रेरी के रूप में काम करता रहता है।

2. इसी कारण दिमाग भूतकाल की घटनाओं को दोहराता है। इतना ही नहीं उन लोगों और घटनाओं से जुड़ी ‘इमोशंस’ को फिर ज़िंदा कर देता है।

3. यह प्रक्रिया काफी हद तक स्वत:स्फूर्त होती है और दोहराई जाती रहती है, इसलिए हमें कुछ अटपटा भी नहीं लगता।

4. इस प्रक्रिया में कुछ भी नया नहीं होता है, हमें दोहराना पसंद आने लगता है क्योंकि नया सोचने की तकलीफ उठाने की भी कोई ज़रुरत नहीं पड़ती।

5. 35 की उम्र आने तक हम इस दोहराने की प्रक्रिया के अभ्यस्त हो जाते हैं, और एक कंप्यूटर प्रोग्राम की तरह काम करने लगते हैं। 

6. बीती हुई घटनाओं में यदि इमोशंस के रिएक्शन का लेवल ऊँचा हो तो ऐसी घटनाओं का दिमाग पर प्रभाव लम्बा और गहरा रहता है।

सबसे हैरानी की बात तो यह है कि बीती हुई घटनाओं का इतना प्रभाव रहता है कि लोग वर्तमान को भी ताक पर रख देते हैं। कुल मिला कर मैंने तो यह समझा है कि  ‘हम ही खुद अपने दुश्मन होते हैं’। बदलाव अपनाने के लिए किसी प्रकार के ‘डर ‘ का न होना और ‘उत्साह’ का होना ज़रूरी होता है। जो डरता है वो आसानी से बदलाव स्वीकार नहीं कर सकता। शायद यही कारण है कि हम बदलाव तो चाहतें हैं लेकिन खुद में ‘वैचारिक’ और ‘व्यावहारिक’ बदलाव किये बिना।

बिना संशय बदलाव को स्वीकार करने से ही, ‘रात और दिन’ फिल्म के इस गीत की यह भावना आपके मन में घर करेगी ‘मिलने दो अब दिल से दिल को, मिटने दो मजबूरियों को’।

बदलाव की दुनिया में आपका स्वागत है। 

https://m.youtube.com/watch?v=tKBFf6tdTWsh

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सुधीरेन्द्र शर्मा * मूलत: पत्रकार हैं किन्तु बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी हैं। जे.एन.यू. से पर्यावरण विज्ञान में पीएचडी तो बरसों पहले पूरी कर ली किन्तु कहते हैं कि “पर्यावरण को समझने अब लगा हूँ – वो भी संगीत के माध्यम से”! संगीत वैसे इन्हें बचपन से ही प्रिय है। फिल्म-संगीत में भी फ़िलॉसफी खोज लेते हैं। इस वेब-पत्रिका में फिल्म-संगीत में छिपी जीवन की गहरी बातों के बारे में आप तान-तरंग नामक केटेगरी में कई लेख पढ़ सकते हैं। पिछले कई वर्षों से गहन विषयों पर लिखी पुस्तकों के गंभीर समीक्षक के रूप में अपनी खासी पहचान बनाई है। इनकी लिखी समीक्षाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं जिन्हें वह अपने ब्लॉग में संकलित कर लेते हैं।  

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