कैसे होगा करोड़ों सुनयनाओं का उद्धार

आज की बात

अगर आप सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं तो पिछले दिनों डॉ सुनयना का नाम आपने खूब सुना होगा। नहीं सुना होगा तो आप सोच रहे होंगे कि हम किसी सफल और चमत्कारी डॉक्टर की कहानी आपको सुनाना चाहते हैं। नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है।   

एनडीटीवी के प्रमुख और विख्यात टीवी शख्सियत प्रणय रॉय को अपनी चुनावी कवरेज के बीच संयोग से एक छोटी-सी बच्ची सुनयना रावत मिली. उत्तर प्रदेश के अमरौली में सातवीं क्लास में पढ़ने वाली सुनयना रावत  अनुसूचित जाति के एक भूमिहीन मजदूर के परिवार से है। उस रोज़ प्रणय रॉय से उसकी मुलाक़ात इसलिए हो गई कि वह घर में एक्सट्रा काम होने की वजह से उस दिन स्कूल नहीं जा सकी थी।

सुनयना डॉक्टर बनना चाहती है और प्रणय रॉय से बातचीत के क्रम में जहां वह इस सपने का ज़ोर-शोर से और बिना सकुचाये ज़िक्र करती है वहीं वह शायद इस बात से भी बेखबर नहीं है कि उसके सपने की राह में कैसी-कैसी मुश्किलें खड़ी हैं। बातचीत मेँ ऐसा लगता है कि वह ज़िंदगी की सच्चाई या यूं कहें कि इस रास्ते में आने वाली कठिनाइयों को कम से कम उस समय के लिए नज़रअंदाज़ कर देना चाहती है क्योंकि वह अपने इस सुंदर सपने को बीच मेँ ही नहीं तोड़ना चाहती। और फिर ये भी है कि प्रणय रॉय के रूप मेँ शायद पहली बार उसे ऐसा कोई बड़ा मिला है जो उसकी बात को पूरी तरह से समझ रहा है।

इस बातचीत की शुरुआत तो उसकी भाभी से होती है जिनसे प्रणय रॉय गाँव मेँ काम मिलने जैसे सवालों से करते हैं लेकिन जल्दी ही वाचाल सुयनयना पहल करके सवालों के उत्तर देने लगती है क्योंकि उसे काफी कुछ कहना होता है। हम इस बातचीत का वीडियो लिंक यहाँ दे रहे हैं और यदि आपने ये पहले नहीं सुनी तो आपको ज़रूर सुननी चाहिए।

हमारा इरादा बातचीत का विवरण यहाँ देने का नहीं है और ऊपर हमने जो कहा सिर्फ इसलिए कि आप मेँ से जिन लोगों ने ये वायरल हो चुकी बातचीत नहीं सुनी/देखी है, उनको पृष्ठभूमि पता चल जाये। हमारा इस आलेख मेँ उद्देश्य है इस कहानी के ज़रिये ये याद दिलाने का कि काम अभी बहुत बाकी है।

यह बातचीत ग्रामीण भारत में निर्धन परिवारों के बच्चों की उम्मीदों और उनके रास्ते मेँ आने वाली कठिनाइयों का बहुत मार्मिक ढंग से दिखाती है और इसीलिए इसके वायरल होते ही एनडीटीवी को लोगों के संदेश आने लगे कि वो सुनयना की मदद करना चाहते हैं। एनडीटीवी ने उसके लिए एक ट्रस्ट के माध्यम से मदद लेने का रास्ता साफ कर दिया और हो सकता है कि सुनयना का सपना सच हो जाये और वह अपने गाँव मेँ डॉक्टर बन जाए (या ‘पैसा जमा करने के बाद’ वहाँ वह अस्पताल ही खोल ले)।

यह संतोष का विषय है कि इस औचक मुलाक़ात से सुनयना की किस्मत ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि वह कुछ ना कुछ अच्छा तो कर ही लेगी जिससे वह इस गुरबत से बाहर निकल सकेगी लेकिन क्या ये चिंता का विषय नहीं है कि भारत मेँ करोड़ों की संख्या मेँ सुनयना जैसे करोड़ों बच्चों के ऐसे ही कुछ सपने हैं।

जब इस बातचीत मेँ सुनयना कहती है कि “हम लोग बड़े लोग होते तो क्यों आते खेत में? हम लोग इस समय स्कूल जाते, कोचिंग जाते – बड़े लोग यही काम करते हैं……बड़े लोग के बच्चे कोचिंग जाते हैं” तो हमारा मन अपराध-बोध से भर जाता है। उसे कहीं ना कहीं से पता है कि अंग्रेज़ी आने के लिए, डॉक्टर बनने के लिए कोचिंग जाना ज़रूरी होता है और उसे ये भी पता है कि ये उसके पिता के वश की बात नहीं है कि वह उसके लिए ये सब कर पाएँ, फिर भी वह अपना सपना टूटने नहीं देना चाहती।

जब हमने इस वैबसाइट पर एक लेख “क्या भारत का मध्यमवर्ग असंवेदनशील है?”  लिखा तो हमें अंदाज़ नहीं था कि बहुत जल्दी एक बार फिर हमें यही बात दोहराने की ज़रूरत पड़ जाएगी। सुनयना जैसे करोड़ों बच्चों की ज़िंदगी मेँ कुछ रोशनी आ सके, वो भी कुछ पढ़-लिख सकें और सिर्फ दूसरों के खेत से बोरों मेँ भूसा ही ना भरते रहें, उसके लिए ज़रूरी है कि देश का मध्यमवर्ग ना केवल व्यक्तिगत कुर्बानियों के लिए तैयार रहे बल्कि मध्यमवर्ग को ही राजनीति को ऐसी दिशा देने का प्रयास करना चाहिए कि नीति-निर्धारकों को देश के वंचित एवं उपेक्षित वर्ग के लिए आवश्यक उपाय करने मेँ कोई संकोच ना हो।

यह आसान नहीं है। कई कारणों से आसान नहीं है लेकिन सबसे ज़्यादा मुश्किल बात ये है कि इस समय विश्व भर मेँ जो आर्थिक मॉडल चल रहा है वह पूरी तरह बड़ी बड़ी कंपनियों के आधीन है और उसमें ये गुंजाइश ही नहीं होती कि हाशिये पर पड़े लोगों को ऐसे अवसर मिल सकें, जिससे वो अपने दम पर अपने पैरों पर खड़े हो सकें। ऐसे मेँ इन परिवारों को ऊपर उठाने के लिए विशेष अवसर ही देने होंगे और दुर्भाग्य की बात है कि हमारा गैर-ज़िम्मेवार मध्यमवर्ग विशेष अवसर देने को ऐसा अपराध मानता है कि जैसे नीति-निर्धारकों ने ‘वोट लेने के लिए’ यह कोई साजिश रची है।

हममें ये समझदारी विकसित होने मेँ पता नहीं कितना समय लगेगा कि नए आर्थिक मॉडल मेँ अब इस बात की कोई गुंजाइश ही नहीं है कि ज़्यादातर लोगों को रोजगार मिल सकें या इन उपेक्षित वर्ग के लोगों को मुख्य-धारा की आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा बनाया जा सके। ऐसे मेँ ये ज़रूरी होता जाएगा कि हम समाज के उन लोगों को या कम से कम उन परिवारों को जिनमें से किसी को भी कोई स्थायी रोजगार नहीं मिला हुआ तो सरकार के कल्याणकारी कोश से उनके लिए किसी न्यूनतम राशि की व्यवस्था की जाये। इसी विषयवस्तु पर एक लेख हमने इस वैबसाइट पर पहले भी लिखा था।

सुनयना से इस बातचीत मेँ ये भी अंदाज़ होता है कि ऐसे परिवारों के पास सिर्फ शिक्षा के अवसर ना हों, ऐसा नहीं है बल्कि खाने के भी लाले पड़े हुए हैं। इस छोटी सी बच्ची के मन मेँ ये भी भय है कि अगर गायों द्वारा खेतों का उजाड़ना इसी तरह जारी रहा (जो कि वह कहती है, अभी साल भर पहले शुरू हुआ है) तो उनको खाना मिलना बंद भी हो सकता है। कुछ इस तरह की बातचीत होती है, “अब की साल में ना गेहूं भी कम हो गया। गेहूं बहुत कम हो गया हम लोगों के खेत में। क्योंकि ये गाय लोग हैं, ये चर लीन—— अगर ऐसा ही हुआ तो फिर हम कुछ दिन में हम नहीं कुछ खा पाएंगे। अगर ये गाय बंध जाए तो ज़्यादा अच्छा होगा”। यहाँ ये याद दिला दें कि ये बच्ची जिस खेत को ‘हम लोगों का खेत’ कह रही है, वह उसके पिता ने बटाई पर लिया हुआ है, ऐसा इसी बच्ची ने इस बातचीत मेँ अन्यत्र बताया है। खाने का ज़िक्र इनकी बात मेँ एक से ज़्यादा बार आता है जिससे पता चलता है कि जैसे तैसे बस खाने का जुगाड़ हो ही जाता है।

सरकार की योजनाएँ कई बार कैसे खोखली साबित होती हैं, यह भी इस बातचीत मेँ आता है। उज्ज्वला के तहत सिलेंडर मिलने की बात तो आती है लेकिन फिर उसे भरवाने के पैसे किसके पास हैं। जब प्रणय रॉय ने पूछा कि सिलेन्डर खाली क्यों है तो सुनयना जवाब देती है, “खाली इस लिए है कि काम-वाम तो है नहीं। घर में पैसे ही नहीं हैं। अगर पैसे होंगे तभी तो भरवाएंगे”।  

इस वार्तालाप मेँ बहुत से मार्मिक हिस्से हैं जिन्हें देख-सुन कर मन द्रवित हो जाता है। आपने अभी तक ना सुना हो तो सुनिएगा ज़रूर, ऊपर लिंक दिया ही हमने। दोस्तों को भी कहिएगा कि सुनें क्योंकि इस स्तंभकार जैसे बहुत से लोग हो सकते हैं जिन्हें गाँव के बारे मेँ कुछ खास अंदाज़ नहीं है, ऐसे लोगों के लिए ये बहुत ही उपयोगी है। जब कुछ असलियत मालूम होगी तभी तो ये ज़िम्मेवारी की बात भी मन मेँ आएगी कि इनके लिए भी कुछ करना ही होगा चाहे जिस भी रूप मेँ हम कर सकें -चाहे सरकार के माध्यम से और चाहे अपने प्रयासों से!

विद्या भूषण अरोरा

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