सुरेश पंत की नई पुस्तक – ‘भाषा के बहाने’ की समीक्षा

डॉ मधु कपूर*

बहाना भाषा का, ख़ज़ाना शब्दों का

जाने-माने भाषाविद डॉ सुरेश पंत की पिछली पुस्तक “शब्दों के साथ-साथ” खूब चर्चित रही और एक वर्ष की अल्प-अवधि में ही उसका पुनर्प्रकाशन भी हुआ। इस पुस्तक की समीक्षा आप इस वेब-पत्रिका में यहाँ पढ़ सकते हैं। इसी क्रम में हाल ही में डॉ पंत की अगली पुस्तक “भाषा के बहाने” भी आ गई है और अपनी उपयोगिता के चलते प्रकाशन के साथ ही खूब चर्चा में भी है। इस पुस्तक की समीक्षा डॉ मधु कपूर ने हमारे लिए की है।

डॉ. सुरेश पन्त की नवीनतम पुस्तक “भाषा के बहाने ” हिंदी भाषा व्याकरण और हिंदी साहित्य में व्यवहृत शब्दों के ‘न्यायिक’ पक्ष को, उनके सामाजिक और ऐतिहासिक पक्ष को अत्यंत कुशलता से उजागर करती है। लेखक अपने मस्तिष्क में एक गहन अनुवीक्षण यन्त्र लेकर मानो घूमता है और उसकी मदद से आकाश से शब्द-तारों को भी खोज लाने की जहमत उठाता है। स्वप्न में विचरण करता है और वहाँ भी कसर नहीं छोड़ता। स्वप्न की सूक्ष्मावस्था से भी शब्द-तंतुओं को पकड़कर  भाषागत अर्थो का जाल बुन देता है। समुद्र में गोते लगाता है और मोती चुन लाता है और हम तट पर खड़े अपनी विपन्नता को धिक्कारते रहते हैं और  उनकी लहरों से भीगते रहते हैं।

उनकी कलम चलती है कुछ ऐसे रोचक पहलुओं पर जिन्हें हम दैनंदिन जीवन में देख कर भी अनदेखा कर जाते हैं। “गली से लेकर आशीर्वाद तक, ठग से ठुल्ला तक, शिक्षण से पत्रकारिता तक, किसान से राष्ट्रपति तक, केदारनाथ से एवरेस्ट तक”—अनेक विषयों की चर्चाएँ इस पुस्तक में मिलती हैं जो न केवल हमारे ज्ञान को  समृद्ध करती हैं बल्कि हमें सोचने के लिए बाध्य करती हैं कि भाषा के बिना हम अँधेरे में ऐसी काली बिल्ली को खोजते हैं जो वहाँ है ही नहीं।  

पुस्तक के शीर्षक के सम्बन्ध में लेखक ने स्पष्टीकरण भी दिया है  कि ‘भाषा के  बहाने’ में ‘बहाना’  शब्दकोश का टरकाऊ बहाना नहीं है बल्कि हम किसी  विशेष शब्द का प्रयोग क्यों और कब करते हैं उसको तलाशने का रास्ता है और उसके प्रयोग के औचित्य को समझना है।

 भाषा हमारी अस्मिता की पहचान है , इसलिए हम उसके प्रयोगों को महज भ्रांत या गलत कह कर आलोचना नहीं कर सकते बल्कि उसमें छिपे तथ्यों को बाहर निकाल कर उसके रहस्य का उद्घाटन कर सकते हैं। उदाहरण के लिए वे एक अक्सर प्रयोज्य शब्द  ‘अइयो!’ का प्रयोग दिखलाते हैं, जो  सम्पूर्ण दक्षिण भारत और श्रीलंका  को “अइयो क्षेत्र“ बना देता  है। अनेकानेक  स्थितियों में हम इसका प्रयोग करते हैं। लेखक के अनुसार …”अजब गजब किस्से होते हैं शब्दों के …वे अंतरमहाद्वीपीय यात्रा करते हैं, स्वरूप बदलते हैं, पुरानी केंचुल छोड़ कर नये अर्थ ग्रहण करते हैं, नए समाज के अनुकूल ढलते-बनते हैं  और हम अपने पूर्वाग्रहों के कारण उनसे बचते हैं, उनका तिरस्कार करते हैं और पवित्रता का आडम्बर करते हुए कुँए के मेढक बने रहते हैं।” शब्द की इस अन्तरसूक्ष्मता का विचार करें तो हम उत्तर भारतीय भी ‘अइयो’ शब्द का प्रयोग करते हैं पर ‘आना’ अर्थ में। जैसे ‘तुम कल अइयो नाहीं’ इत्यादि लेकिन यहाँ विस्मयबोधक चिह्न ‘!’ का प्रयोग नहीं होता हैं।

‘ढ’ की बनावट और उसके अपरिवर्तित रूप की व्याख्या ने मुझे मुग्ध ही कर दिया । ““ढ” ५००० ईसा पूर्व  ब्राह्मी लिपि से लेकर आज की देवनागरी तक उसी रूप में विद्यमान है, इसके स्वरूप में कोई अंतर नहीं आया है। इसी तरह कुछ व्यक्ति अपनी मूर्खता नहीं त्यागते (और अपनी जिद पर अड़े रहते हैं, अपने विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आने देते) ‘ढ’ यानि मूर्ख, बौड़म , हठी  कहलाते हैं।”  इसी तरह ‘कचहरी’ शब्द  “संगीत कच्चेरी , कचहरी का मोहक रूप हैं जिसमे नीरस क़ानूनी दाँव-पेंच नहीं, कर्णाटक संगीत के गायन-वादन की सरस संगीत लहरी गूँजती है।”

लेखक सिर्फ शब्दों की व्युत्पत्ति और सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक परिवेश से ही शब्दों के अर्थो की खोज नहीं करते हैं बल्कि साहित्य के दृष्टान्तों से उन्हें परिपुष्ट भी करते हैं । उस्ताद अमज़द अली खान के कथन के अनुसार संगीत शिक्षा की तरह “शिक्खा, परिक्खा, नीरिक्खा’ तीनों का अद्भुत मेलबंधन उनकी शब्द चर्चा में दृष्टिगोचर होता है। जैसे ‘किसान’ शब्द  का अर्थ आग भी हैं, इसकी पुष्टि लेखक पृथिवीरासौ से उद्धरण देकर करता है- “भूपति के सुनिकै वचन उर में उठी किसान” और ऋग्वेद १०.३४.७ की ऋचा से  “अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व”  से भी समर्थन करते हैं। लेखक की इस दृष्टि का विस्तार उनके गहन अध्ययन का परिचायक है।

कहावतें  और लोकोक्तियों का भी प्रसंग लेखक उठाता है पर अत्यंत संक्षिप्त होने के कारण पाठक की भूख  इससे शायद ही मिट पाए । ‘गोरखधंधा’ शब्द का प्रयोग योगियों के संदर्भ में प्रयुक्त होता था ऐसा कह कर लेखक पाठक के दिमाग के दरवाज़े खोल देता है। कुछ आधुनिक प्रचलित प्रयोगों को भी लेखक ने नज़रंदाज़ नहीं किया है जैसे– सूपड़ा साफ होना, फेकू, रायता फैलाना इत्यादि।

ठगवा’, ‘गुमानी को याद करते हुए’, ‘घुट्टी पिलाना’, ‘जल और पानी का भेद’, पावरोटी का इतिहास, बेवड़ा, भूत चर्चा इत्यादि बहुत सारी सामग्री उल्लेखनीय है। जल्दबाजी में किया काम भूत-पूजा कहा जाता है । भूत चढना, जड़ीभूत, द्रवीभूत, मूलभूत इत्यादि अनेकान्तिक प्रयोग भी लेखक सारगर्भिता से दिखलाता है । रंजन, अनुरंजन मनोरंजन, आत्मरंजन, विरंजन की छटा देखने लायक है। बरबस रंगा सियार भी  याद कर लेता है।  शब्दों के सम्बन्ध में सामाजिक सचेतनता पर व्यंग करने से भी लेखक नहीं चूकता , जैसे  “नकसुरा संक्रामक रोग की तरह फैल रहा है। भाइयों/बहनों/ मित्रों …हम शत प्रतिशत नकसुरे हो जायेंगे …”

लेखक का कथन है कि “शब्द जब चलते हैं तो रूप बदलते हैं तो उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है ,जैसे होली में अबीर-गुलाल लगाकर चेहरा पहचानना मुश्किल हो जाता है। पावरोटी  डबल रोटी कैसे हो जाती हैं, खमीर की वजह से फूल जाने के अर्थ में डबल हो जाने का उल्लेख भी लेखक करता है। फणीश्वर नाथ रेणु के  उपन्यास “कितने चौराहे” में बम पुलिस का उल्लेख करना भी लेखक भूलता नहीं। मटका मटकी के प्रसंग में लेखक कहता है-

“कहाँ जमुना जल भरने वाली कोमलांगी गोपियों की मटकी और कहाँ लाखों रूपये इधर से उधर कर देने वाला मटका …” उक्ति के द्वारा लेखक मटका शब्द के विपरीतार्थक प्रयोग का उल्लेख करने से भी नहीं चूकता। मँडुवाडीह के बहाने से जुड़ी दशरथ की कथा …लक्ष्मीजी की घर वापसी, शाल-दुशाला, हाट और  हड़ताल, गाँधी और गांधी का फर्क, चुटकी, मुठ्ठी, पौष, और अंचोली (अंजुरी ) का अंतर अत्यंत सारगर्भित रूप से लेखक प्रस्तुत करते हैं।

ऋषिकेश और हृषीकेश, सगर माथा और सरग माथा  की भ्रामक व्युत्पत्ति का भी भ्रम टूटता है। दुशाला शब्द की यात्रा बड़ी रोचक हैं। द्विशाटक अर्थात शाटक का जोड़ा । शाटक अर्थात पश्मीना, शाटक से द्विशाटक, द्विशाटक से द्विशाट, दुशाला। कैसी कैसी यात्रा करके वह अकबर के दरबार में जा पहुँचा। अकबर दो शालो को जोड़ कर पहनता था जिससे उनका उल्टा भाग दिखाई न दे अतः उसे दुशाला  कहा गया। ऐसी कितनी ही अनगिनत बातों से लेखक हमें परिचित कराके शुष्क व्याकरण को रसपूर्ण बना देता है।

देशी शब्दों को लीलती अंग्रेजी, मीडिया की भाषा पर कटाक्ष, रोज़गारपरक शिक्षा का माध्यम आदि पर लेखक की टिपण्णी एक सन्देशवाहक और सतर्क होने की चेतावनी भी देता है। हलंत, रकार के तीन स्वरूप, नासिक्य व्यंजन, संधि और संयोग, ही-संधि आदि  कितने ही प्रयोगों से पाठक को वाकिफ करा देते हैं।

और अंत में लेखक स्वयं स्वीकार करता है कि भाषा है ही यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की लोक स्वीकृत व्यवस्था । जब तक शब्दों की  लोक स्वीकृति न हो शब्द नहीं चल सकता। नागेश अपने ग्रन्थ ‘परिभाषेन्दुशेखर’ में कहते हैं ᅳ”अवयवप्रसिद्धेः समुदायप्रसिद्धिर्बलीयसी” अर्थात व्युत्पत्ति की अपेक्षा समुदायशक्ति (लोकप्रयोग) बलवान होती हैं – के समर्थन में लेखक खड़ा हो जाता है।

डा. पन्त बखूबी वैयाकरणों के अर्थ-संकोच, अर्थ-विस्तार कितने ही प्रकार से शब्दों के रहस्य का उद्घाटन करते हुए मूल अर्थ  (व्युत्पत्तिगत) तक पहुँच कर  प्रश्न उछाल देते हैं ᅳ मूल धातु का अमुक अर्थ ही क्यों है, इससे भिन्न क्यों नहीं? लेखक इसका उत्तर भी अत्यंत विद्वतापूर्ण शास्त्रसम्मति से ही देता हैᅳ “यादृच्छिक” अर्थात मनमाना। कोई शब्द किस अर्थ में रूढ हो जाता है, इसे नियम में बाँधना कठिन है… भाषा अपना मार्ग स्वयं बना लेती है, हम उसकी राह के रोड़े न बनें तो अच्छा है।

मेरा विनम्र अनुरोध है कि हर जागरूक हिंदीप्रेमी एवं उसके पाठक के लिए इस पुस्तक का  पाठ आवश्यक है ताकि हिंदी भाषा के गुह्यतम प्रकोष्ठों को उजाले में लाया जा  सके ।

लेखक – डा. सुरेश पन्त

प्रकाशक – नवारुण

फोन /व्हाट्स एप ९८११५७७४२६

मूल्य २९० रुपये , ई-मेल [email protected]

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*डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, “दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।“ डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं।

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