तरबेज़ अंसारी की हत्या और हम

आखिरी पन्ना

आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह उनके जुलाई 2019 अंक के लिए है।

आखिरी पन्ना जब लिखा जा रहा है तो संसद का सत्र ज़ोरों से चल रहा है और राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस चल रही है। लेकिन इसके साथ-साथ एक और समानान्तर पटकथा भी जारी है और उस पर चर्चा नहीं हो रही, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सरकार और सरकारी पक्ष की तरफ से उस मसले पर जो चुप्पी है, वह विचलित करने वाली है। आखिरी पन्ना के पाठकों को अनुमान हो गया होगा कि हम झारखंड में एक मुस्लिम युवक तरबेज़ अंसारी के साथ हुए उस हादसे की चर्चा कर रहे हैं जिसमें उन्मादी भीड़ ने चोरी के आरोप में पकड़े इस युवक को कई घंटे बंधक बना कर पीटा और उससे जय श्रीराम और जय हनुमान के नारे भी लगवाए।

पिछले पाँच वर्षों में ऐसी घटनाओं की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है और इसका सबसे बड़ा तो एक ही कारण समझ आता है – वह है, सत्तारूढ़ दल के बड़े नेताओं द्वारा ऐसे मामलों पर लंबी चुप्पी साधे रखना और कुछ छुट्ट्भैय्ये किस्म के नेताओं द्वारा तो स्वयम ही दूसरे धर्म के खिलाफ नफरत फैलाने वाले ब्यान देना। अगर सरकारी पक्ष की तरफ से कोई ठोस प्रतिवाद ना आए तो इसके सीधे-सीधे दो खराब परिणाम होते हैं। पहला तो ये कि ऐसे विचारों के सभी लोगों को शह मिलती है और वो अगले मौके की इंतज़ार करने लगते हैं कि जब वो भी ऐसी ‘बहादुरी’ दिखा सकें और दूसरा ये कि प्रशासन को (चाहे अंजाने में ही सही) ये संदेश चला जाता है कि उन्हें इस प्रकार के मसले पर ज़्यादा सख्ती दिखाने की आवश्यकता नहीं है। 

ऐसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी के कारणों पर वापिस आयें तो इसका दूसरा कारण ये है कि पिछले कई वर्षों से व्हाट्सएप्प के ज़रिये धार्मिक उन्माद फैलाने का काम ज़ोरों से किया जा रहा है और संदेशों के माध्यम से तरह तरह भड़काऊ बातें (जो आम तौर पर पूरी तरह झूठ या फिर तथ्यों को अपनी सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर पेश किए जाने वाली होती हैं) फैलाई जा रही हैं। इसका नतीजा ये होता है कि लोगों के मन में एक वर्ग-विशेष को लेकर नाराजगी और असंतोष का भाव आ जाता है और जब ऐसे लोग भीड़ के रूप में परिवर्तित होते हैं तो फिर इनके पास उस झूठे और बनावटी अपराध की सज़ा देने का मौका आ जाता है।

तरबेज़ अंसारी की भीड़ द्वारा पिटाई एक और नई प्रवृत्ति की तरफ भी इशारा कर रही है। पहले तो आमतौर पर ये होता था कि भीड़ गाय को बचाने के नाम पर मारती थी लेकिन इस बार तो मोटरसाइकल चुराने के शक में भीड़ ने जय श्री राम और जय हनुमान के नारे लगवा दिये। अगर भगवान ने सचमुच न्याय किया तो इस भीड़ के हर उस हिस्से के लिए मुश्किल हो जाएगी जिसने तरबेज़ को मारने में हिस्सेदारी की है। हम तो बस इतना ही कहेंगे कि राजनीति और समाज को इस मसले पर जल्दी ही कुछ करना होगा अन्यथा कहीं बहुत देर ना हो जाये और ये अविश्वास और नफरत इतना ना बढ़ जाये कि उसका खराब असर देश की समरसता पर पड़े।

देश का माहौल ही कुछ ऐसा हो रहा है कि इस स्तम्भ में हमें काफी समय से कुछ हल्का-फुलका लिखने का अवसर ही नहीं मिलता। आज एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई कि मामला सिर्फ राजनीतिक शुचिता की निगाह से देखें तो गंभीर और शोचनीय है लेकिन फिर भी हंसी आती है कि राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए कभी कभी कुछ लोग कितने उतावले हो जाते हैं और इस उतावलेपन में हास्यास्पद लगने लगते हैं।

मध्यप्रदेश के एक बहुत बड़े भाजपा नेता हैं कैलाश विजयवर्गीय जो आजकल पार्टी के महासचिव भी हैं और हालिया लोकसभा चुनावों में वह प. बंगाल जैसे मुश्किल राज्य के प्रभारी थे। वह अक्सर ही अपने विवादास्पद बयानों के कारण चर्चा में रहते हैं। इस बार बंगाल में भाजपा की अभूतपूर्व विजय के लिए अगर मोदी जी के अलावा किसी और को थोड़ा-बहुत श्रेय दिया जाता है तो वह इन्हीं सज्जन को दिया जाता है। आज इनके विधायक पुत्र आकाश विजयवर्गीय ने क्रिकेट के बल्ले से नगर निगम के अफसरों की पिटाई कर दी। वह इंदौर में जर्जर मकान को तोड़ने गए निगम के अमले की कार्रवाई से गुस्साए हुए थे। बाद में आकाश के खिलाफ एफआईआर दर्जकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है और शायद अब तक जमानत पर छोड़ भी दिया गया हो हालांकि अभी इस बारे में हमने कोई अधिकृत खबर नहीं देखी है।  

यह स्तंभकार आमतौर पर राजनेताओं को अफसरों के ऊपर तरजीह देने के पक्ष में हैं किन्तु आज की हरकत तो इसलिए भी बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए क्योंकि इसमें हिंसा शामिल थी। हो सकता है कि ये तर्क सामने आए कि क्रिकेट बैट से एक-दो बार किसी को ठोक देना केवल प्रतीकात्मक था और ये तो विरोध जताने के लिए एक कार्यवाही थी लेकिन ये तर्क किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि इतनी भीड़ की उपस्थिती में ऐसा करना भीड़ को अफसरों के खिलाफ भड़काने वाली कार्यवाही भी हो सकती थी। लेकिन आकाश को ऐसा लगा कि नेतागिरी चमकाने के लिए ये एक अच्छा अवसर मिला है और उसने इसे हाथ से नहीं जाने दिया।

इतना ही नहीं, जब एक टीवी चैनल ने आकाश के पिता कैलाश विजयवर्गीय से इस बारे में सवाल पूछे तो उन्होने पलट कर एंकर से ही सवाल पूछ लिया और वो सवाल ये था – “तुम जज नहीं हो, तुम्हारी हैसियत क्या है?” इसे आम भाषा में कहते हैं कि तुम्हारी औकात क्या है? सच कहें तो मीडिया ने खुद ही अपनी ये हालत कर ली है कि राजनीतिज्ञों के मुंह से बरबस ये निकल जाता है कि औकात क्या है तुम्हारी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here