विद्वता ज्ञान का पर्याय है या विलोम

सत्येन्द्र प्रकाश*

हार और जीत दोनों का उत्सव साथ-साथ! दशहरा और विजयदशमी। दशानन की हार और  राम की जीत। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी हम सब ने ये उत्सव मनाया। हार और जीत दोनों की धूम रही।

और हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी ज्ञान प्रचुर मात्रा में बँटा। विशेषकर आभासी दुनिया में! आभासी दुनिया में ज्ञान के बँटने और बाँटने की रफ्तार के क्या कहने। और रफ्तार से ज्ञान के विस्तार की व्यापकता को आकार मिल जाता है। आप चाहें या न चाहें, ज्ञान की कुछ बातें मस्तिष्क-भेदन कर ज़ेहन में घर कर जाती हैं। दशानन के दस सिर का रहस्योद्घाटन  जिस सहजता और सुगमता से आभासी दुनिया में हुआ, इस दुनिया के आगमन से पहले संभव नहीं था। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, मात्सर्य, राग, द्वेष, हर्ष और विषाद ये दस गुण (attribute, not merit) रावण को दशानन बनाते हैं। आभासी दुनिया ने तेजी से इस  ज्ञान को सर्वव्यापी बना दिया। साल दर साल यह ज्ञान आभासी दुनिया के विभिन्न मंचों से द्रुत गति से संचालित और संचारित होता रहा है।

आभासी दुनिया में लक्षित मस्तिष्क-भेदन से आप बच भी जाएँ तो यह आशंका बनी रहती है कि दुर्घटना वश कब इसके शिकार हो जाएँ, आप कह नहीं सकते। ऐसे दुर्घटनात्मक मस्तिष्क भेदन का शिकार मैं भी यदा-कदा होते रहा हूँ। ऊपर जिस ज्ञान की चर्चा हुई है, संभवतः ऐसी ही किसी दुर्घटना का परिणाम हो।    

उपरोक्त दस में से शास्त्रों ने पहले छह को षडरिपू बताया है। मानव मन या मानव मात्र के सबसे बड़े शत्रु। बाकी चार का अतिरेक भी शत्रु सम है। दशानन का दस सिर इन्हीं दस की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। रावण विद्वान था, यह सर्वविदित है। शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण। इसके बावजूद इतना ही नहीं कि रावण इन शत्रुओं को पहचान नहीं पाया बल्कि इन दस को तो साथ लिए रावण सदैव स्वाभिमान के एक अलग पटल पर अपने को पाता। सामर्थ्य, रण कौशल और बल बुद्धि से रावण ने अनगिनत युद्धों में विजय प्राप्त की। कुबेर को हरा कर अपने वश में कर लेना और नवग्रहों को परास्त करना जग जाहिर है। शनि तक को शिकस्त देकर रावण ने उसे अपना पायदान बना लिया।

कैसे संभव होता रहा ये सब, जब रावण दस सबसे बड़े दुश्मनों को अपना सिरमौर बनाए चलता रहा। इन प्रश्नों का उत्तर रावण की परिणति में निहित है। इसके विस्तार में जाना अप्रासंगिक होगा, क्योंकि संदर्भ विद्वता और ज्ञान के आपसी संबद्धों का है। मूल प्रश्न यही है कि ये एक दूसरे के पर्याय हैं या विलोम!

रावण की बात भी इसी संदर्भ में शुरू हुई। ज्ञान का एक तीर इस वर्ष भी मस्तिष्क-भेदन में लगा रहा। “विद्वान भी रावण हो सकता है”। ज्ञान के इस बाण में दम दिखता है। रावण ने शास्त्रों का अध्ययन किया था। शस्त्रों को साधा था। तपोबल के तेज को जानता था। तब भी उन दस शत्रुओं को सिर पर लिए घूमता फिर रहा था। एक के बाद एक मिलती सफलता इन शत्रुओं को पुष्ट करते गए। सामर्थ्य के ‘मद’ में चूर रावण विफलता की चर्चा मात्र पर ‘क्रोध’ का शिकार हो जाता। ‘उसकी भार्या से सुंदर किसी और की है’ सुनते ही ‘मात्सर्य’ को आमंत्रित कर बैठता है। फिर ‘काम’ और ‘लोभ’ कहाँ पीछे रहने वाले थे। ‘मोह’ तो इनका सदैव संगी रहा है। ‘राग’, ‘द्वेष’, ‘हर्ष’, विषाद’ फिर अपनी अठखेलियाँ आरम्भ कर देते हैं।

नतीजा ‘सीता हरण’ और ‘सर्व नाश’। उपरोक्त दस सिर के साथ रावण रूपी “मैं” अवश्यम्भावी अंत के आगमन को आँक नहीं पाया। शस्त्रों और शास्त्रों की समस्त जानकारी उसे इस अहित से बचा नहीं पाई। तो क्या “विद्वान” रावण को “ज्ञानी” कहा जा सकता है?

उत्तर स्पष्टत: “ना” होगा। शस्त्रों और शास्त्रों में निपुणता जब तक युद्धों और शास्त्रार्थों में जीत सुनिश्चित करने तक सीमित हैं तब तक इन्हें ज्ञान नहीं कह सकते। इन्हें ज्ञान तभी कहा जा सकता जब हित और अहित समझते हुए आचरण में वांछित बदलाव इनसे संभव हो।

“विद्या ददाति विनयम” विद्योपार्जन का सार्वभौम लक्ष्य है। किसी भी क्षेत्र में अर्जित जानकारी अगर विनम्रता की जगह मन में अहं भाव को जन्म दे तो उसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। अहं(मैं) के दस सिर होते हैं। या यूँ कहें कि ऊपर जिन दस सिरों पर चर्चा हुई है उन्हीं से अहं(मैं) पुष्ट होता है। रावण का भी होता रहा। वह खुली आँखों वाले अंधे की तरह एक दिशा में बढ़ता गया। सब कुछ जानते समझते एक अज्ञानी की तरह।

तपस्वी के लिए यही निर्दिष्ट है कि वह ज्ञान और तप से इन दस को वश में करे। मनस्वी की बुद्धिमता भी तभी सिद्ध होगी जब उसकी विद्या, उसकी शिक्षा इन दस शत्रुओं को परास्त करने की इच्छा और सामर्थ्य को जन्म दे। श्रीमद भगवद्गीता अध्याय १३, श्लोक ८ और ९ ज्ञानी के गुणों को कुछ इस प्रकार दर्शाते हैं:

“अमानित्वं अदंभित्वं अहिंसा कषान्तिर आर्जवं।

आचार्योपासनाम् शौचम् स्थिरम् आत्मविनिग्रह:।।८।।

इंद्रियार्थेषु अनहंकारम् एव च।

जन्ममृत्युर्जराव्याधि दुख दोषानुदर्शनम्।। ९।। 

अर्थात विनम्रता, पाखंड से मुक्ति (दिखावा और छलावा का त्याग), क्षमा (क्रोध का नाश), गुरु की उपासना, मन की स्वच्छता (छल और कपट का अभाव), आत्मसंयम और  अनासक्ति (मोह से दूरी), अंहकार (मद) का त्याग और जन्म-जरा-व्याधि-मृत्यु के शोक और दुख का शमन आदि ज्ञानी के लक्षण हैं।

गोस्वामी तुलसीदास भी कहते हैं, “ काम क्रोध मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।। जिनके कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।।

एक अन्य चौपाई में भी गोस्वामी जी उन्हे संत और ज्ञानी समझते हैं जो इस सत्य को स्वीकारते हैं कि “काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ, सब परिहरि  रघुबीरहि भजहु  भजहि जेहि संत।।“  

हो सकता है कि मात्र तथ्यों को जान लेना विद्वता प्रदर्शन के लिए काफी हो क्योंकि बुद्धिजीवियों की सभा में इन तथ्यों पर संभाषण विद्वान होने का प्रमाण माना जा सकता है किन्तु जैसा कि हमारे शास्त्रों से स्पष्ट है, तथ्यों में निहित तत्वों के अनुरूप आचरण होना ही मनुष्य को ज्ञानी बनाता है।

शिक्षा और संचार तंत्रों के विस्तार से शास्त्रोक्त ज्ञान की बातों का प्रचार प्रसार भी बढ़ा है। आभासी और वास्तविक सत्संग में साधकों, श्रद्धालुओं और भक्तों की उपस्थिति व्यापक हुई है। संभवतः श्रद्धा-भक्ति के प्रत्यक्ष प्रदर्शन और सामूहिक व वैयक्तिक अनुष्ठानों का भी प्रसार बढ़ा है। तदनरूप यज्ञाहुति और हवन।

पर प्रश्न उठता है कि क्या उपासक, साधक या साधारण भक्त और समकालीन विद्वत वर्ग अपने इन अनहितकारी मनोभावों को मापता है? रफ्तार के इस दौर में ऐसी ज्ञान की बातें तेजी से संचारित होती हैं। एक होड़ सी मची रहती है ऐसे ज्ञानवर्धक संवादों को अन्य से पहले दुनिया के कोने कोने में पहुँचाने की। पर क्या मनुज मन कभी ठहर कर स्वयं से यह पूछ पाता है कि उसके क्रोध, लोभ, मोह, मद या मत्सर(ईर्ष्या भाव), या सब कुछ पा लेने की कामना (काम) में तनिक भी कमी आ रही है? क्या स्वयं से स्वप्न में भी स्वीकार करता है कि उसकी चीजों को पा लेने कभी ना समाप्त होने वाली चाह, न प्राप्त होने की स्थिति में क्रोध और पा लेने पर अहंकार और उसके प्रति मोह, अपने से बेहतर स्थिति में किसी और को देखकर उससे ईर्ष्या आदि आदि उसके स्वयं के लिये हानिकारक हैं?

सब कुछ जान समझ कर भी अगर मनुष्य का आचरण उसके स्वयं के हित में ना हो, तो क्या उसे ज्ञानी कहेंगे?

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है। इन्होंने पहले भी इस वेब पत्रिका के लिए लेख दिए हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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5 COMMENTS

  1. वो पूछता भी है और समझता भी है, बस स्वीकार नहीं कर पाता है कि वो जो कर रहा है गलत कर रहा है।
    आप कहते भी हैं ना कि व्यक्ति दुनिया को धोखा दे सकता है लेकिन खुद को नहीं।
    आपने कुछ सौ शब्दों मे पूरा सार लिख डाला है।

  2. विद्वता और ज्ञान के अंतर्संबंधों की बहुत सुन्दर और वस्तुनिष्ठ व्याख्या। शैली ऐसी की पाठक के मस्तिष्क को भेदती हुई प्रवाहित होती है।👍

  3. विद्वान की विद्वता जानता है किन्तु मानता नहीं है इसलिए आचरण में नहीं उतरता है और उसका अंहकार विद्ववता का प्रदर्शन करके अपने अंहकार को पुष्ट करता है। ज्ञानी को ज्ञान प्राप्त होने पर सीधे आचरण में उतर जाता है किन्तु अहं का सुक्ष्म बीज रह जाता है जैसे अहं ब्रम्हास्मि।यह अहं का बीज भक्ति आने पर खत्म हो जाता है।
    बहुत सुंदर प्रयास है

  4. बात सटीक कही आपने। सब सामने है,ऋषि पूर्वजों ने देव वाणी स्वरूप वेदों,ग्रन्थों इत्यादि के रूप में समक्ष प्रस्तुत भी किया है। परंतु मेरा मन इसके ऊपर एक प्रश्न और रखता है।

    माया- क्या रावण (जो आंशिक या पूर्ण रूप में हम सबमे प्रवित्ति रूप में विद्यमान है) माया पर विजय पाया था?

    कबीरदास जी कहते हैं, केशव के कमला होई बैठीं,सम्भु भवन भवानी। माया महा ठगनी हम जानी।

  5. Harsh Pandey माया पर विजय पाने हेतु दस सिर के रूप में विद्यमान प्रवृतियों को शनै शनै कम करने की क़वायद शुरू करनी होती है। मेरा प्रश्न सीमित है, “ रावण इन तथ्यों से भली भाँति परिचित था, फिर भी उसने इन प्रवृतियों के विस्तार को आकर दिया। इनके शमन का तनिक भी सजग प्रयास उसके आचरण से नहीं झलकता।”

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