कहीं भटक गई है भारतीय राजनीति

आखिरी पन्ना

आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के जुलाई 2022 अंक के लिए लिखा गया।

इस स्तंभकार का मन बहुत व्यथित है। हमारे समाज में इतना कुछ ऐसा हो रहा है जिसे देखते रहने से और उसके बारे में सोचने से मन में विक्षोभ होता है। अभी यह लिखे जाने के समय सबसे ताज़ी घटना उदयपुर की है जहां दो सिरफिरे ज़ालिमों ने एक गरीब दर्ज़ी कन्हैया लाल को इसलिए मार डाला कि उसने भाजपा नेता नूपुर शर्मा के इस्लाम-विरोधी ब्यान को सोशल-मीडिया पर प्रचारित किया था। कहाँ से आ गई है हम लोगों के मनों में एक दूसरे के लिए नफरत? हम और आप जानते हैं कि इसके लिए देश की वर्तमान राजनीति ही दोषी है। पक्ष और विपक्ष दोनों ही तरफ की ही राजनीति आज कहीं भटक गई लगती है। राजनीति के मायने हैं कि राज्य को चलाने की नीति – लोकतन्त्र में आप कह सकते हैं कि समाज और राज्य को चलाने की नीति! समाज को तो आज की राजनीति ऐसा चला रही है कि आपसी सौहार्द और समरसता (जो चाहे पहले भी दिखावे के ही होते हों) अब आपसी व्यवहार के लिए भी ज़रूरी नहीं समझे जाते। व्हाट्साप्प ग्रुप्स पर लोग खुले आम दूसरे धर्म के खिलाफ जहर उगलते हैं। अब ये न्यू नॉर्मल है।

देश के संस्थान जैसे देश की बड़ी अदालतें, देश का मीडिया और देश के वरिष्ठ नौकरशाह आदि कुछ सुझाव देकर, अदालतें अपने संविधान-प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करके और मीडिया निडर रह कर मुश्किल सवाल पूछकर, सच को दिखाकर इस भटकी हुई राजनीति को थोड़ा बहुत रास्ते पर ला सकते थे किन्तु उन सभी ने निराश किया है। मीडिया ने तो सबसे ज़्यादा और अदालतों ने भी करीब-करीब उतना ही। मीडिया के डर के पीछे तो चलो ये बहाना है कि बड़े मीडिया हाउस सरकार को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं कर रहे और किसी ना किसी रूप में यह पिछली सरकारों के समय में भी होता रहा है लेकिन ये हमारी बड़ी अदालतों को क्या हुआ है जो ये कार्यपालिका की मददगार बन कर चल रही हैं! न्यायपालिका को जनता के मौलिक अधिकारों का संरक्षक कहा गया है – क्या भारतीय न्यायपालिका अपनी यह ज़िम्मेवारी ठीक से निभा पा रही है? इस प्रश्न का ईमानदार उत्तर हाँ में आना बहुत कठिन है।

भारतीय संविधान ने शासन की सभी शक्तियों का विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में सुंदर संतुलन किया था और इसीलिए इन्हें लोकतन्त्र के तीन मजबूत स्तम्भ कहा गया थे जिनमें राजनीतिशास्त्रियों ने मीडिया को चौथे स्तम्भ के रूप में जोड़ दिया। चिंता की बात ये है कि ये चारों ही अपने आदर्शतम स्तर तक पहुँचना तो दूर, अपने काम का साधारण स्तर भी बनाए रखने में सफल नहीं रह पा रहे।

लोकतन्त्र की सबसे बड़ी ताकत ही ‘फ्री स्पीच’ (अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता) होती है और सरकार से प्रश्न पूछने की आज़ादी भी इसमें आती है। लेकिन अब सवाल पूछने वाले से पलट कर ही सवाल पूछे जाते हैं। मीडिया पहले ये गर्व से कहा करता था कि हमारा काम सरकार की खूबियाँ गिनवाना नहीं (वह तो सरकार स्वयं ही कर लेती है) बल्कि कमियाँ गिनवाना है ताकि पूरा सच जनता तक पहुँच सके और सरकार उन कमियों को दूर करे। लेकिन अभी मीडिया की हालत ये हो गई है कि प्रैस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों की सूची में हमारी रैंकिंग गिर कर 150वें स्थान पर पहुँच गई है।

कुछ मध्यंमवर्ग के लोग यह भी कहते सुने जाते हैं कि अजी हमें क्या करना है लोकतन्त्र का – हमें तो देश की उन्नति चाहिए! ऐसे लोगों से कोई तर्कपूर्ण बात करना संभव तो नहीं लेकिन फिर भी इतना बताने में हर्ज़ नहीं कि देश की बहुसंख्यक जनता अभी भी गरीबी में अपना जीवन-यापन कर रही है और आज अगर हर सरकार को गरीब-उन्मुखी योजनाएँ बनानी पड़तीं हैं तो सिर्फ इसलिए कि देश में लोकतन्त्र है। क्या आपको याद दिलाने की आवश्यकता है कि देश में इस समय बेरोज़गारी अपने चरम पर है और इस दर से बढ़ रही है जैसी कभी नहीं बढ़ी थी।

ऑक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट में भारत को ‘बहुत असमानताओं वाले देश’ के रूप में वर्णित किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, देश के 10% लोगों के पास देश की राष्ट्रीय आय का 57% है और साथ ही भारत के सबसे अमीर परिवारों की संपत्ति 2021 में रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई। इसमें कहा गया है कि भारत के सबसे अमीर 98 भारतीयों के पास उतनी ही संपत्ति है, जितनी नीचे के 55 करोड़ लोगों के पास है। 2021 के दौरान भारतीय अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई जबकि इसके उलट कोविड -19 महामारी के बीच 84% भारतीय परिवारों की आय में गिरावट देखी गई।

इन परिस्थितियों से निपटने के लिए गरीब की सबसे बड़ी ताकत लोकतन्त्र ही है और उसका बचाया जाना उसके लिए अनिवार्य है। सबसे बड़ी दुख की बात ये है कि विपक्ष किसी भी चुनौती के लिए तैयार नहीं लग रहा और ऐसा लग रहा है कि दिन पर दिन और कमजोर होता जा रहा है। ऐसे में किसी भी सरकार का आत्म-मुग्ध हो जाना अस्वाभाविक नहीं है। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी पर वंशवाद का आरोप लगातार लगता रहा है। अब समय आ गया कि गांधी परिवार को कम से कम एक अवसर तो बाकी पार्टी को देना चाहिए और सब पदों से इस्तीफा देकर अन्य वरिष्ठ कांग्रेसजनों के भरोसे पार्टी को छोड़ देना चाहिए ताकि कहीं तो कुछ मंथन शुरू हो।

देश का भविष्य तभी बनेगा जब पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों ही रचनात्मक रूप से समाज से जुड़ेंगे। उन दोनों की सैद्धांतिक प्रतिबद्धताएं काफी कुछ अलग हो सकती हैं लेकिन दोनों ही संविधान और लोकतन्त्र के लिए तो प्रतिबद्ध होंगे ही। ऐसे में दोनों को एक दूसरे के प्रति थोड़ा ज़्यादा सहिष्णु होना होगा और एक दूसरे की बात का सम्मान करना होगा। तभी स्वस्थ लोकतन्त्र का संवर्धन होगा और देश का गरीब से गरीब व्यक्ति भी आशावान होगा कि उसे अकेला नहीं छोड़ा जाएगा।

…….विद्या भूषण

*****

Banner Image by JL G from Pixabay

3 COMMENTS

  1. सही कहा है, निर्वल प्रतिपक्ष के चलते सत्ता निरकुश हो गयी है,
    प्रबुद्ध वर्ग की आवाज को प्रतिपक्ष सहारा दे सकता तो गलत को गलत कहने के लिए लोग आगे आते।

  2. बहुत बढ़िया लेख। हम सब की आज की राजनीति की दिशा और दशा से उपजी निराशा का सही आँकलन। मुझे जो बात बेहतरीन लगी — की लेखक ने रास्ते भी सुझाए हैं…. जो निश्चित ही करने योग्य हैं और ऐसा कहा जा सकता हैं कि इस दौर से निकलने का शायद एक मात्र सार्थक नज़रिया हैं। सिर्फ़ अभिशिक्षित वर्ग को ही नहीं साधारण जनमानस को भी अपनी राजनीतिक समझ को परिपक्व बनाने और अक्टिव होने की ज़रूरत हैं…. शायद पहले से कहीं ज़्यादा। विपक्ष को अपने निहित स्वार्थों से उठना होगा और अपनी जिम्मदारियों को बखूबी निभाना होगा…….

  3. केवल और केवल राजनीति का दोगलापन इन परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार है और वो व्यवस्था
    व आम आदमी भी जो संविधान की विकृत व्याख्या के चलते इन राजनीतिज्ञों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here