घृणा का ‘टूल-किट’ -2

व्यंग्य रचना

राजेन्द्र भट्ट*

प्रेम के चोर-दरवाज़े से आने वाली विवेक और उदारता की बयार से अपने स्व-घोषित महानतम राष्ट्र-जाति को बचाने वाले घृणा के कुछ हथियारों का हमने पिछले लेख में ज़िक्र किया। घृणा के अचूक हथियारों का सिलसिला आगे जारी रखते हैं।

हथियार 3: अध-पढ़ और विवेकहीन होना

हम जितना ज़्यादा पढ़ते, देखते, समझते हैं, ज्ञान का विस्तार होता है, तो  लगता है कि हम कितना कम जानते हैं। उच्च अध्ययन में जब हम मूल संदर्भ-ग्रन्थों को देखते हैं तो पता चलता है कि उनके बारे में पहले से बना ली गई कई धारणाएँ गलत और अधूरी थीं। आँखों से सच्चाई देखते हैं तो सुनी हुई बात का अधूरापन पता चलता है। अपने देश-समाज-धर्म-साहित्य-परंपरा के बाहर की चीजें जानते-समझते हैं, तो उनकी नई खूबियाँ और सीमाएं समझ में आती हैं – और साथ ही अपनी खूबियाँ और सीमाएं भी। लगने लगता है कि हमारे कायदे-कानून, विचार भी एक खास समय और परिस्थितियों के दायरे में बने हैं। इसे अगर संक्षेप में अपने देश-समाज के ही अनुभव में बताएं तो अपने यहाँ कहा गया है – एकम सत विप्राः बहुधा वदन्ति – यानि सच तो सभी जगह एक जैसा है, विद्वानों के कहने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। दूसरी मार्के की बात है – नेति-नेति यानि ज्ञान तो असीम है। हमारे बताने-समझने की सीमा है।

ज़्यादा पढ़ने-समझने से और एक दूसरे की बातें सहिष्णुता के साथ सुनने समझने से विवेक और वैज्ञानिकता आती है। जितना ज़्यादा ज्ञान फैलता है, उतना व्यक्ति को अपने छोटे होने का एहसास होता है। वोएजर अन्तरिक्ष यान से 14 फरवरी 1990 को 6 अरब किलोमीटर दूर से लिए गए पृथ्वी के चित्र को याद करें जिसमें अपनी यह धरती एक धुंधले बिन्दु (पेल ब्ल्यू डॉट) सी लगती है, जिसमें ‘श्रेष्ठता’ हासिल करने के लिए इतनी मारा-मारी है। विज्ञान की समझ हमें पूरी मानव जाति के करीब और बराबरी पर भी लाती है – एक जितने क्रोमोसोम, दिल, दिमाग, जिगर। इससे श्रेष्ठता के भ्रम टूटते हैं, विनम्रता आती है।    

पढ्ना-लिखना-समझना हमें संशय, उदारता, विनम्रता, एकता और सह-अनुभूति देता है। विचार और अभिव्यक्ति की  विविधता देता है। लेकिन इससे तो घृणा की दूकान बंद हो जाएगी। जब तक हम सर्वश्रेष्ठ और दूसरे नीच नहीं होंगे, हम हंगामा कैसे खड़ा कर सकेंगे? हमें लड़ने के मुद्दे कैसे मिलेंगे? हमारा और दूसरों का खून एक कैसे हो सकता है? ज्ञान के  संशय, विनम्रता और अधूरेपन की कमजोरी के विपरीत, अज्ञान में जो इकहरा, ठोस, रोशनी और प्रेम की बयार को टकरा कर लौटा देने वाला अभेद्य अहंकार और आत्मविश्वास होता है, वही तो लड़ने और जीतने के लिए बेहद ज़रूरी है। महान राष्ट्र-समाज कोई रंगों और जीवन से भरी नाजुक  बगिया थोड़े ही है कि कोई भी विचार या व्यक्ति जगह बना कर ‘एडजस्ट’ हो जाए। वह तो एक विशाल मुर्दा, अभेद्य चट्टान है जिसके बाहर जीवन का संकेत देती काई भी सूख कर काली पड़ चुकी हो, जिससे हवा भी टकरा कर लौट जाए। वहाँ एक जैसे व्यक्ति हों – एक विचार ही स्वीकृत हो  – संशय,संवाद की गुंजाइश नहीं –– एकदम हमलावर।

इसलिए घृणा की दूसरी शर्त अनपढ़, अज्ञानी, विवेकहीन होने की है। बल्कि अनपढ़ और अध-पढ़ का ‘मिक्स’ होना चाहिए। ‘अध-पढ़’ झूठी-सच्ची-टुच्ची डिग्री वाला हो सकता है। वह एक सीमित जानकारी और झूठ को मिक्स कर ‘नरेटिव’ गढ़ता रहता है। इसमें मूल स्रोत नहीं, गढ़ने वाले की बात पर विश्वास अनिवार्य है। वह ‘महान’ ग्रन्थों की बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर सकता है। अपनी धर्म-जाति-राष्ट्र  की ’विश्व-विजय’ के लिए यह सब जायज़ है। सच्चाई और विवेक की अनेक रंगों की फुलवारी मन को सुख भले ही दे लेकिन पत्थर बनकर दूसरे का सिर कैसे फोड़ सकती है?

चूंकि, आज के हालात देख कर अगर हम तुलना करने लगें, तो अपने समाज का पिछड़ापन दिखने लगेगा। इसलिए, अध-पढ़ विमर्श में प्राचीन ‘ग्रन्थों’ का अध्ययन नहीं बल्कि उनकी पूजा की जाती है और उन्हें हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इस ‘अभियान’ को समझने के लिए एक उदाहरण पेश है।

जैसा पहले भी निवेदन किया है, आम धारणा के विपरीत, ‘महाभारत’ में युद्ध-प्रसंगों का अनुपात बहुत कम है। ‘महाभारत’ में मानवीय स्वभाव और नियति की अद्भुत गहनता, विविधता और विस्तार है। इसका मुख्य स्वर है कि स्वार्थों के अंधेपन में मर्यादाओं के टूटने से युद्ध और विभीषिकाएँ आती हैं और युद्ध में सभी पक्ष हारते हैं। इसलिए युद्ध निरर्थक हैं, किसी भी समस्या का समाधान नहीं हैं। महाभारत के विस्तार में, ज़्यादातर जीवन के विविध रूपों, सचाई के विविध ‘शेड्स’ का विश्लेषण है और मूल स्वर शांति-सौम्यता, सह-अनुभूति (एमपैथी)  बनाए रखने का है – अहिंसा का है। इसीलिए ‘महाभारत’ में -संभवतः तीन स्थानों  पर – ‘अहिंसा परमो धर्मः’ से प्रारम्भ होने वाले श्लोक हैं, जिनके अर्ध-अंश (सभी संदर्भ गीतप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘महाभारत’ से) ये हैं –

  1. अहिंसा परमॊ धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (आदिपर्व, अध्याय 11, श्लोक 13)  
  2. अहिंसा परमॊ धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः। (वन पर्व, अध्याय 207, श्लोक 74)
  3. अहिंसा परमॊ धर्मः तदाहिंसापरॊ दमः। (अनुशासन पर्व, अध्याय 116, श्लोक 28)

लेकिन ‘अहिंसा परमो धर्मः’ से तो सारा खेल ही बिगड़ जाएगा। इसलिए, पिछले दिनों कुछ घृणा-वीर अध-पढ़ों ने अभियान चलाया कि इस श्लोक का पूरा रूप है -अहिंसा परमो धर्मः,  धर्म हिंसा तथैव च। मतलब, अहिंसा परम धर्म तो है पर ‘धर्म की रक्षा’ के  लिए हिंसा भी –‘ठोक देना’ भी  सही है।

साफ बात है, घृणाजीवियों ने इसमें हिंसा वाला पुछल्ला जोड़ दिया। पढे-लिखों के समाज, अध्ययन-अध्यापन में ज़रूरी स्रोत, संदर्भ -ऐसे अध-पढ़, धूर्त ज्ञान में कुछ भी ज़रूरी नहीं है। आप इसे फैलाइये, ज़ोर से चीख़िए – यह सही हो जाएगा। चिंता मत कीजिए, धर्म का डंका बजाने वाले 99 प्रतिशत के घर में वेद, उपनिषद नहीं हैं। पुराण, महाभारत, वाल्मीकि रामायण, स्मृतियाँ भी गिनती के  घरों में हैं। जहां तुलसीकृत रामचरितमानस या दुर्गा सप्तशती है भी, तो वे लोग इसे अर्थ समझ कर नहीं पढ़ते। वे इसका अलग-अलग सुर-ताल में ‘पाठ’ करते हैं और फिर, रोली-चन्दन लगा, अगरबत्ती घुमाकर, एक चमकीले कपड़े में बांध कर रख देते हैं। इसलिए हिंसा वाली झूठी बात, सनसनीखेज होने की वजह से सच मान ली जाएगी। अहिंसा में वह सनसनी कहाँ? और हाँ, धार्मिक पुस्तकों में तोड़-मरोड़ करने को  कोई पाप, कोई ‘ब्लास्फेमी’ नहीं मानिए, जब आप ‘दूसरे घटिया लोगों’ पर ‘सही टक्कर की’ हिंसा करने महान काम कर रहे हों।

अभी पिछले दिनों अपने राजनैतिक विरोधियों के स्विस बैंक खातों में रकम का  ‘संयुक्त राष्ट्र’(!)  का एक संदेश देखा। हर व्यक्ति के खाते में किसी इकाई-दहाई के बाद इतने शून्य डॉलर थे कि उतने में अमेरिका का सालाना बजट बन जाए। बीच में कहीं डॉलर की जगह रुपए लिख दिए थे। अब आप सवाल-स्रोत मत पूछिए! तो अध-पढ़ों द्वारा ‘घड़े गए सोशल मीडिया ज्ञान की निचली सीढ़ी पर अनपढ़ों का विशाल समूह है – वे इसे लपक लेंगे और घृणा दो-चार-दस गुनी होकर फैलेगी। 

ज्ञान, पढ़ाई, लिखाई आपको हर जगह रुक कर सोचने को कहती है; आपको दूसरों के ज्ञान के प्रति उदार-मानवीय-विनम्र बनाती है। ये सब घृणा के मार्ग के रोड़े हैं। अध-पढ़ बन कर इकहरे ज्ञान के आत्म-विश्वास को हासिल करें, उसे कोई भी ‘श्लोक गढ़ कर’ किसी भी धार्मिक किताब या किसी भी ‘ज्ञान-स्रोत’ का नाम लेकर फैलाएँ। वैज्ञानिक, समझदार लोगों के बारे में कोई भी मन-गढ़ंत कहानी, चटपटी ‘डीटेल’ के साथ फैलाएँ और घृणा के महान उद्देश्य पर चल पड़ें।

टूल  4: ‘फास्ट बैकवर्ड’ चलें

घृणा फैलाने के लिए ज़रूरी है कि यह मानें कि हमारे ‘इमीडिएट’ दुश्मन – और फिर सारी दुनिया हमसे घटिया और पिछड़ी  है। अब सीधे-सीधे तो मक्खी नहीं निगल सकते कि यूरोप-अमेरिका जो साफ-साफ ज्ञान-विज्ञान-समृद्धि में आगे नज़र आ रहे हैं और जिनके डॉलर-पॉण्ड-यूरो की जूठन से हमारे उच्च वर्ग के लोग पनप रहे हैं, उन्हें पिछड़ा मान लें। इसलिए बिना तर्क-विवेक की नींव के, हम  ऐसे अतीत को गढ़ें जब ज्ञान-विज्ञान-कला-संस्कृति-दर्शन-टेक्नोलोजी में सब कुछ हासिल हो चुका था। अब नया कुछ जानने को नहीं बचा है। जो है, उस जमाने की नकल है। और उस अतीत में हम सबसे – सभी क्षेत्रों में आगे थे। पीछे की व्यवस्थाओं का गौरव-ज्ञान करें और आज के सभी ‘परायों’ को दुत्कारें कि उनके जंगली होने के दौर में, हम कितने आगे बढ़े हुए थे। जब भी आज कुछ नया आविष्कार हो तो तुरंत कहानी गढ़ें कि हमारी ‘कथाओं’ में तो यह पहले से था। मतलब, ब्रह्मास्त्र की टेक्नोलोजी चुरा कर एटम बम बना किस्म का ज्ञान।

इसी लेख की पिछली कड़ी – घृणा की टूलकिट – 1

अगली कड़ी : घृणा की टूलकिट – 3

अतीत की स्थापना और पढ़ाई-लिखाई के समझदार तौर-तरीकों को नष्ट करने के बाद जो समाज बनेगा, वहाँ हम अपने धंधे के लिए भी महान अतीत का इस्तेमाल कर सकते हैं। मसलन, ‘वैदिक गणित’ से शुरू हो कर हम वैदिक मसाले और खाद भी बेच सकते हैं। हम उनके द्वारा फैलाये जा रहे ‘वैदिक ज्ञान’ के बारे में ये मत पूछें कि वेद के किस मण्डल में, किस ऋचा में यह सब लिखा है। वेदों या अन्य मूल ग्रन्थों को पढ़ने  और उन्हें ठीक-ठीक संदर्भ के साथ  उद्धृत करने से आपकी धार्मिक भावनाएँ आहत हो सकती हैं। गलत-सलत उद्धरणों  के प्रोपेगंडा का चूंकि उद्देश्य नेक है, ‘हमारे’ समाज को मजबूत बनाना है – इसलिए उससे किसी की भावनाएँ आहत नहीं होनी चाहिए।

इसमें दिक्कत विस्तृत, समझदार, वैज्ञानिक विश्लेषण की आएगी। मसलन, 12वीं तक विज्ञान पढ़ा बच्चा पूछ सकता है कि एटम बम के प्रोटोटाइप ब्रह्मास्त्र को ‘रथ से क्यों छोडते थे? और वो भी तीन-चार किलोमीटर की मार-काट के बाद ही फुस्स क्यों हो जाता था? इसलिए ज़रूरी है कि घृणा-अभियान में हम तर्क, विवेक, वैज्ञानिक ‘कारण-कार्य’ यानि ‘कौज एंड एफेक्ट’ वाली सारी पढ़ाई-लिखाई, विद्वानों, एकेडेमिक्स, विश्वविद्यालयों, स्वतंत्र चिंतन और विद्वानों  के पीछे पढ़ जाएँ और  बदनामी, घृणा, हल्के मज़ाक, चुटीली तुकबंदियों (हार्वर्ड नहीं ‘हार्ड वर्क’), तुक्का-साइंस ( गणेश जी का सिर  और प्लास्टिक सर्जरी),धमकियों, गालियों, देश-द्रोह के आरोपों की मदद से धीरे-धीरे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को ही मिटा दें। हम अपने स्कूलों से विश्वविद्यालयों तक तर्क, विवेक वाली पढ़ाई-लिखाई खत्म कर दें, जिज्ञासा और संदर्भ देखने की बातें, सत्य के विविध पक्षों का परिचय -ये सब आगे के विद्यार्थियों में न रहे। ज्ञान के ‘पैकेज’ तय कर लें और  वही शिक्षा के हर स्तर पर दिमाग में भर दिए जाएँ।

तब दो-तीन पीढ़ी बाद हम -हर स्तर पर इतने कुपढ़ और संवेदनहीन हो जाएंगे कि कोई भी  मूल स्रोत को देखने, बुनियादी ज्ञान-विज्ञान समझने और सदियों में  विकसित वैज्ञानिक अध्ययन-पद्धति की चुनौतियाँ नहीं दे सकेगा और हम घृणा के एकदम ठोस-सख्त गोले बन जाएंगे। तब आप जब किसी के खिलाफ घृणा-अभियान चलाएँगे तो लोग ‘क्रॉस-चेक’ नहीं करेंगे कि आप जो कह रहे हैं, क्या  ‘घृणा के पात्र’ ने वह गलती की भी है? मुहावरे की भाषा में कहें तो आपके ‘कौवा कान ले गया’ कहते ही लोग छुरे-तलवार ले कर कौवे के पीछे दौड़ लगा दें -बिना अपने कान पर हाथ लगाए जो अपनी जगह पर एकदम सुरक्षित है। आप ऐसे ‘डॉन क्विजोट’ पैदा करें, जो पवन चक्कियों के काल्पनिक राक्षस  से लड़ने में जान लगा दें।

इस प्रसंग में एक मजेदार बात यह भी है कि पहले जब किसी की ‘सक्सेज़ स्टोरी’ बताई जाती थी  तो कहा जाता था कि उसके माता-पिता कितने साधारण, छोटे पद-प्रतिष्ठा वाले और गरीब थे और वह कैसे आज के प्रतिष्ठित स्तर पर पहुंचा /पहुंची। अब घृणालोक की ‘रिवर्स सक्सेज़ स्टोरी’ में हम गर्व से  बताते हैं  कि कैसे हमारे बाप-दादा पढे-लिखे, , बड़े ओहदे वाले और महान थे और हम टुच्चे,अनपढ़ और कंगाल हो गए।   

टूल 5: सबसे पिछड़े- सबसे घटिया से प्रतियोगिता

जब आप घृणा-मार्ग पर चलेंगे और उससे अर्थव्यवस्था, ज्ञान-विज्ञान, संस्थाओं की बरबादी होने लगेगी। आप का देश-समाज पिछड़ने लगेगा।  हिंसा, सामाजिक अशांति होगी तो आपको अपनी नीतियों को सही समझाना कठिन होने लगेगा। इसका सटीक जवाब है, आपके पास-पड़ोस के देश-समाज-बिरादरी  के जो ‘दूसरे’ ऐसी ही बेवकूफी और बरबादी की राह पर चल रहे हों, उनका उदाहरण दे कर आक्रामक हों और समझदारी-विवेक की बात करने वालों को निरुत्तर कर दें। उन्हें बताएं कि जब हमारा पड़ोसी देश, अपने देश-धर्म-राष्ट्र के अंधे-कठमुल्ले  उन्माद में बर्बाद हो रहा था  तब तो तुम ‘देशद्रोही’, ‘धर्मद्रोही’, राष्ट्रद्रोही’ चुप थे! इसलिए हम भी अब उनके जैसे  ही जाहिल और उन्मादी बन कर, उनकी तरह ही,   अपने देश-समाज को – ‘रिवर्स गियर’ में गड्ढे में गिरने की अंतिम परिणति तक ले जाएँगे।

टूल 6: अभावों और मृत्यु का गौरव-गान

इतनी मेहनत के बावजूद, ज्ञान-विज्ञान के अभाव तथा  विचारों और कर्म के बंधन के दौर में देश-समाज कष्ट, बदहाली और मृत्यु की दिशा मैं तो जाएगा ही। रोज़ी-रोटी, आराम छिन जाएगा। घृणा और अज्ञान से तो जो अपढ़, कुपढ़ लोग पनपेंगे, वे इन हालात का समाधान कर नहीं पाएंगे। इसलिए ज़रूरी है कि कष्ट, बदहाली और मृत्यु को ही गौरव और शान की बात बना दिया जाए। हमें लगातार प्रचार करना पड़ेगा कि ये दुख और मृत्यु एक (काल्पनिक) राष्ट्र और जाति-धर्म की महानता के लिए है। क्या हुआ, कि महंगाई है, मृत्यु है, दुख है – यह तो शहादत का हिस्सा है। शत्रु को ललकार है। हमें नित नए दुश्मन बनाने होंगे – उनसे निपटना होगा– ताकि घृणा-उन्माद की लपटों को घी-तेल मिलता रहे। सती-जौहर से लेकर हिटलर-मुसोलिनी के उदाहरणों से स्पष्ट है कि महान राष्ट्रों के निर्माण के लिए यह आह्वान करना ज़रूरी है कि जीवन व्यर्थ है – मृत्यु महान है। रोटी-पानी-कपड़े और ज़िंदा रहने की तुच्छ-स्वार्थी बातें मत करो! ‘राष्ट्र’ और ‘धर्म’ की बलिवेदी पर बलिदान हो जाओ।

इस टूल-किट में और भी कई कांटे-छुरे डाले जा सकते हैं, लेकिन वे सभी इनसे जुड़े हैं – घृणा के समग्र साम्राज्य के हिस्से हैं।

अगली कड़ी में – इस कालिमा भरे अभियान से क्या परिणाम मिलेंगे।

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं
शीर्षक चित्र : किशन रतनानी

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