घृणा का टूलकिट -3

व्यंग्य रचना

राजेन्द्र भट्ट*

पिछली दो कड़ियों में (यहाँ और यहाँ) हम घृणा के टूलकिट को काफी अचूक और कारगर बना चुके हैं। अब देखें कि इसके इस्तेमाल के परिणाम कितने शानदार हो सकते हैं।

सबसे पहले – ज़्यादा से ज़्यादा ‘पराए’ बनाने का ‘टूल किट’। इसमें शुरू में तो आसानी है, जोश और उन्माद है – पर बाद में किल्लत  आ सकती है। एक उदाहरण से , मात्र ‘इलस्ट्रेशन’ के लिए – बिना उस समूह के प्रति कोई पूर्वाग्रह के – बात स्पष्ट करते हैं।

  1. सबसे घृणा का ‘टूल’

चूंकि प्रेम में तो हमें विशाल होना है- जोड़ना है – जैसा हम बचपन से सुनते आए हैं कि सभी प्राणियों में एक ही जीव है। फिर – संदर्भ के अनुसार – सारी मानव जाति एक  है। फिर सारे देशवासी एक हैं। पर घृणा के ‘टूल किट’ के इस्तेमाल में हमें ज़्यादा से ज़्यादा पराए बनाने हैं, उन्हें तोड़ना है – हर निचले स्तर के, छोटे पराए ‘सेगमेंट’ को  अलग करने, नष्ट करने के लिए  जाति, इलाका, विचार, खानदान  वगैरह के नए तर्क गढ़ने हैं।

अब माना (केवल उदाहरण के लिए, समुदाय के प्रति पूरे सम्मान के साथ) आप ‘अरोड़ा’ हैं। बात देश से शुरू करें। पाकिस्तान-चीन और जो भी हमारे खिलाफ बोले, वो तो दुश्मन है ही। कोई दिक्कत नहीं। फिर आया अपना धर्म – यहाँ भी अपने साथ काफी लोग होंगे – ठोक देंगे ‘परायों’ को। अब समुदाय – यानि ‘पंजाबी’ आया। अब थोड़ा दिक्कत होगी – दिल्ली में पास-पड़ोस का मामला है, इसलिए थोड़ा नाजुक पड़ने पर अमृतसर वाला ‘पराया’ बनाना पड़ेगा। मतलब इलाके-शहर-गाँव की बात आएगी। फिर दिल्ली वाले ‘अरोड़ा’ – उनका शानदार और दूसरों का ‘थोड़ा’ दोयम दर्जे का वंश-वृक्ष बनाना होगा। घृणा  भी करनी होगी, फिर दुश्मनी भी होगी। फिर ‘चाँदनी चौक वाले खानदानी’ बनाम  पंजाबी बाग ‘रिफ़्यूजी’ – फिर शकरपुर वाले – घृणा के पैमाने पर एक-दूसरे से घटिया। हो सकता है, कि पत्नी के मायके  वाले आपसे घटिया हों। घृणा के तर्क से तो चलना ही पड़ेगा। ‘घृणितों’ को नीचा दिखाना ही होगा।  

ऐसी ही, घृणा की रणनीति तो सभी जगह चलानी होगी। विदेशी-विधर्मी तक तो ठीक है। इस घृणा से राष्ट्रीय स्तर पर वोटों की फसल कटती है। पर फिर ब्राह्मण-ठाकुर-कायस्थ, फिर छोटे-और छोटे ब्राह्मण-ठाकुर-कायस्थ – फिर सब से घृणा, लड़ाई, विनाश। लाख घृणा करो, प्रेम के पुजारी गांधीजी मुस्कराते, चिढ़ाते हुए सामने आ ही जाते हैं कि ‘आँख के बदले आँख’ के तर्क से तो थोड़े दिनों में सभी अंधे हो जाएंगे। घृणा-अभियान में अंतिम शिखर, ( या अटल गहराई – ‘बौटमलेस पिट’) में आप आखिरकार अकेले होंगे।

  • हिंसा का टूल

जब ज़्यादा से ज़्यादा और निचले से निचले स्तर तक ‘पराए’ होंगे और हमें देश-जाति-धर्म वालों से निर्मम हो कर हिंसा करने की ‘चाट’ लग जाएगी तो हमारा मन बिरादरी-खानदान- यहाँ तक कि घर के स्तर पर भी ‘हाथ’ चलाने को मन करेगा।   जब हम समाज में, मन में गहरे मौजूद हिंसा और युद्ध के राक्षसों को जगा देंगे, तो वे जरा भी असहमति और असमानता होने पर ‘हिंसा की  आहुति’ तलाशेंगे। जिस तरह, ‘महाभारत’ की लड़ाई की ‘लत’ लग गए यादवों ने अपने ही बंधुओं को अंत में मार डाला था और उनके घरों को टुच्चे लुटेरे लूट ले गए थे – वही स्थिति हमारे समाज की हो सकती है।

  • अनपढ़-अतीतजीवी होने का टूल

देश की आज़ादी के बाद, हमारे विवेकवान नेताओं ने तर्क, विवेक, मानवता, धर्मनिरपेक्षता  के मूल्यों तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पद्धति पर आधारित शिक्षा प्रणाली पर बल दिया। हमने विश्व-स्तर की ज्ञान-विज्ञान की संस्थाएं, विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम और एम्स बनाए। विश्व के विकसित देशों के मानकों के टक्कर की शिक्षा दी। इसका नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजी और ज्ञान-विज्ञान में कुशल हमारे युवाओं को विश्व के श्रेष्ठ संस्थाओं में काम मिला, सुख समृद्धि आई। दूसरी ओर, पढे-लिखे, उदारमना विद्वानों ने देश के विकास को भी दिशा दी, समझदारी दी। हमारी संस्थाओं का सम्मान बढ़ा। हमारे पढे-लिखे नेताओं ने विचारों की उदारता को बढ़ावा दिया। इससे हम व्यर्थ के उन्माद, बवालों से बचे। लोकतन्त्र मज़बूत हुआ, देश आगे बढ़ा।

अब घृणा- अभियान के टूल के रूप में जब हम कुतर्क, अनपढ़-पन, अतीत-गौरव की राह पर चलेंगे तो हमारे उच्च शिक्षा-संस्थानों का स्तर और प्रतिष्ठा गिरेगी। इससे  हमारे युवाओं को विश्व के श्रेष्ठ संस्थानों में न प्रवेश मिलेगा, न काम। दबाव और भय के माहौल में, हमारी श्रेष्ठ, उदार प्रतिभाएँ या तो यहाँ मन मार कर, सत्ता के अनुकूल काम करेंगी, या देश छोड़ कर चली जाएंगी। वे ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में खुल कर काम नहीं करेंगी, निष्कर्ष नहीं निकालेंगी।  दोनों ही स्थितियों में, हमें उनका सर्वोत्तम योगदान नहीं मिल पाएगा। तब ‘एनआरआई’ के ज़रिए समृद्धि का हमारा बुलबुला, हमारा ‘फ़ॉरेन ड्रीम’ नष्ट हो जाएगा।

     भारत की प्रतिष्ठा में, बड़ा हाथ स्वतंत्र भारत के हमारे तेजस्वी, पढे-लिखे, उदार  – नेहरू, पटेल, शास्त्रीजी, एपीजे अब्दुल कलाम, वाजपेयी जी, मनमोहन सिंह – जैसे नेताओं का भी है। इनसे, एक उदार, जिम्मेदार, परिपक्व देश के रूप में भारत की छ्वि का विस्तार हुआ। इनकी तुलना अगर हम एक आत्म-मुग्ध, अतीतजीवी, अपनी ही जीवन-शैली को सबसे अच्छा मानने वाले  देश के प्रतिनिधि- प्रतीक के रूप में – करें तो तालिबानी अफगानिस्तान के मुल्ला उमर और युगांडा के ईदी अमीन की तस्वीर सामने आती है और फिर इनसे देश को मिलने वाली प्रतिष्ठा के बारे में सोचें। ऐसे नेतृत्व में देश के शिक्षा संस्थानों, अर्थ-व्यवस्था और सुरक्षा के बारे में सोचें।  इनसे अलग ये सोचें कि नस्लवादी सत्ता के हाथों यातनाएँ झेलने वाले नेल्सन मंडेला अगर प्रेम की ‘रेनबो नेशन’  वाली नीति पर न चल कर, बदला लेने की कबीलाई नीति पर चलते तो उनके देश का क्या हाल होता!

अपने घटियापन को दूसरे के घटियापन से तुलना कर ताल ठोंक कर अगर हम ‘जस्टिफ़ाई’ करते हैं और विवेक की आवाजों का मुंह बंद करना चाहते हैं तो हम वैश्विक मान्यता में नेपाल और पाकिस्तान होने को तैयार रहें। हम उन्हीं देशों की तरह अपनी गाड़ी ‘रिवर्स गीयर’ में चलाएं और गड्ढों में गिरने में उन देशों का ताल ठोंक कर मुक़ाबला करें।

  • मृत्यु-कामना का टूल 

हर तानाशाह अपने देश-समाज के लिए खुशहाली के अच्छे दिनों के वादे के साथ आता है। उसके पास भविष्य का कोई आर्थिक-सामाजिक ‘विजन’ जब नहीं होता तो वह उन्माद और घृणा के हथियारों, हिंसा, परायेपन, आपसी अविश्वास,वैर, हिंसा के ‘टूल्स’ से समाज को बरगलाता-तोड़ता है। चूंकि इनसे खुशहाली नहीं आती, आम लोगों के दिन बुरे होते जाते हैं – इसलिए वह मृत्यु-कामना का नशा फैलाता है। पुरुष-सत्ता हो या तानाशाह की सत्ता और सबकी मृत्यु-कामना से केवल नीच सत्ता का ही भला होता है – वह भी थोड़े समय के लिए। जनता के नष्ट होने पर तो तानाशाह के लिए भी हिटलर-मुसोलिनी जैसी मौत के रास्ते ही बचते  हैं। 

मानव-जाति के विकास, कला-संस्कृत-विज्ञान-प्रेम – और तमाम खूबसूरतियों का इतिहास – जीवन का ही इतिहास है। अगर हमारे पुरखे घृणा के उन्माद में मर जाते तो दुनिया में रंग,रूप, प्रेम, कला की बहार नहीं होती- और भी बेहतर दुनिया  की उम्मीद नहीं होती। केवल काला श्मशान होता। 

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है कि हर बच्चा इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है। जब अब तक की पीढ़ियों ने मानवता की इस उम्मीद को निराश नहीं किया है, तो हमें भी तो हक नहीं है कि हम इसे निराश करें ।

और ऐसा मृत्यु के नहीं, जीवन और प्रेम के पक्ष में ही खड़े हो कर किया जा सकता है। इसलिए घृणा दिवस, अविश्वास, उन्माद और तोड़ने  से दूर रहें – वसंत हो या  वेलेंटाइन – प्रेम के, जोड़ने के  जो भी नाम हों, उनके उत्सव मनाएँ। 

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं

शीर्षक चित्र : किशन रतनानी

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

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