राजेन्द्र भट्ट*
मशहूर शायर मजाज़ ने एक बिम्ब का इस्तेमाल किया है – ज़ंजीरे-हवा। यानि हवा में ज़ंजीर बना कर किसी को बांधने की कोशिश। गांधीजी और उनके प्रभाव को शब्दों की चौखट में समेटना वैसा ही मुश्किल है।
हमारी शिक्षा कुछ ऐसी रही जैसे सस्ते, भड़कीले कलेंडर की तस्वीरें। इंसान और समय को आँकने के लिए कुछ खून, कुछ बंदूकें-तलवारें; कहीं आग की लपटें तो कहीं नकली झील में प्रतिबिम्बित नकली पहाड़; कुछ दीन-मूर्ख से दिखते भगत, कुछ चमकीले मुकुट-भड़कीली पोशाकें-वर्दियाँ; अगरबत्तियों के बीच कुछ किताबों की जिल्दें, जिन्हें पलटने का नहीं पूजा करने का रिवाज़ है। इन कलेंडरों की इकहरी सपाट सतह है – गहराई और विस्तार से जानने-समझने की गुंजाइश नहीं।
इन भड़कीली रंग-रेखाओं के ज़रिए ‘पढे’, ‘समझे’ और ‘सुसंस्कृत’ बच्चे या किशोर के लिए गांधी की फीकी खादी और खड़ी रेखाओं में उकेरी एकरंगी –‘एकला चलो’ वाली उदास सी तस्वीर में, खादी-राजघाट की तमाम रस्मी वंदना के बावजूद, क्या आकर्षण रहा होगा? खास कर, जब कहे-अनकहे यह भी बता दिया जाए कि ये ‘बूढ़ा’ खून-बंदूक-तलवार-मुकुट-आग-वर्दियों की उन्मादी, नशीली गौरव-गाथाओं के विरोध (की साज़िशों) में खड़ा हो जाता है।
12-13 वर्ष की उम्र में एक ‘आचार्यजी’ ने गाँव में डेरा जमाया। राष्ट्र-प्रेम का उपदेश दिया – यानि कसरतें कराईं; हमारे सीधे-साधे पीढ़ियों से चले आ रहे कबड्डी-खो-खो जैसे खेलों को ‘मैं शिवाजी’ जैसे नकली नाम दिये; पहले कुछ धर्मों, फिर ज़्यादा अंतरंग बात-चीत में अपने ही धर्म के ‘नीचों’ को ‘पराजित’ कर धर्म-राष्ट्र-ध्वजा फैलाने का ‘आह्वान’ किया। ये नए शब्द – जिनके मायने नहीं, कहे जाने की घृणा-आवेश वाली मुद्राएँ ज़्यादा प्रभावी थीं – मेरे सामाजिक व्यक्तित्व का – समझ का हिस्सा बनीं। इनसे पता चला कि ‘हमारी श्रेष्ठता’ के अभियान में ये ‘साज़िशी बूढ़ा’ सबसे बड़ा रोड़ा था, इसीलिए उसका ‘वध’ करना पड़ा।
गाँव-कस्बे में, बहुत गरीबी में बड़ा हुआ। वह 1970 के दशक के अंतिम वर्ष थे। उत्तराखंड में- पूंजीपतियों- छोटे-बड़े सत्ताधीशों के कमाऊ षडयंत्रों की वजह से वन और वन- केन्द्रित सामाजिक-आर्थिक ढांचे पर संकट छाया था। इसके विरोध में ‘वन बचाओ’ आंदोलन में युवाओं-छात्रों की प्रमुख भूमिका थी। कुछ लोग आंदोलन की आर्थिक समझ और शोषण-विरोधी धार को विचलित कर, इसे निहित स्वार्थों के खिलाफ आंदोलन से विमुख करने के लिए ‘पेड़-आराधना, थाली बजाने वाला’ सांस्कृतिक-रूमानी अभियान बना रहे थे। ऐसे में कुछ समर्पित, निष्ठावान, सुशिक्षित सयानों ने रंगों-नारों-उन्मादों से ऊपर उठकर, ठोस मुद्दों को परखने-समझने की जो राह दिखाई, वैज्ञानिक सोच की जो राह दिखाई, वह जीवन भर साथ रही है।
लेकिन इसी दौर में हमने गांधी जैसे निरंतर सक्रिय विचार के जड़ीभूत, परंपरा-पूजक निस्तेज अनुयायी देखे, और ऐसे चपल गांधीवादी भी देखे जो महात्मा को दायें-बाएँ बाजुओं से भुना रहे थे। अच्छी पढ़ाई-संगत के मामले में अब तक साधनहीन, पर निर्मल आदर्शों को छू चुके युवा थे हम। ज़्यादा पढ़ा-समझा और गुना नहीं था – निष्कर्ष निकालने की अधीरता थी। अधपकी, उम्मीद भरी समझ थी कि हम समूल सामाजिक बदलाव की दहलीज़ पर खड़े हिरावल दस्ते में शामिल हैं। गांधी अब भी पिछड़े, विरोधाभासों से भरे, निरर्थक लगते थे और स्वार्थों में लिप्त और निष्क्रिय लोगों के यानि ‘मजबूरों के महात्मा’ लगते थे।
ऐसे में, एक स्पष्ट निर्मल स्मृति है समाजवादी, गांधीवादी कार्यकर्ता कुँवर प्रसून की। बहुत परिपक्वता से वह गांधी और सामाजिक परिवर्तन की बातें बता रहे थे और हम अपनी थोड़ा पढ़ कर बनी बचकानी सामाजिक समझ और जवानी के जोश में, उनका मखौल उड़ा रहे थे। अपनी धीर-गंभीर शैली में उन्होंने कहा था कि हम उम्र के साथ गांधी को समझेंगे।
लगता है, वही हुआ। एक लेख की सीमा में , आगे की बातें समझाना कठिन है, इसलिए कूदते-फाँदते शब्दों-बिंबों में आगे बात कर पाऊँगा। किसी एक घटना, किसी एक पंक्ति की बात करें तो गांधी बहुत अवैज्ञानिक सोच वाले और तर्कहीन लगते हैं, लेकिन जैसे-जैसे बड़ी तस्वीर सामने आती है तो हर दूरगामी संघर्ष, हर रणनीति के केंद्र में गांधी बरबस आ जाते हैं।
गांधी की बातों की सरलता ही उनकी ताकत है, व्यापकता है। गांधी हमारे आस-पास की हवा और पानी जैसे हैं। इतने साधारण, कि आप नोटिस ही न लें। पर इतने बुनियादी -जितना स्वयं जीवन है। अब गांधी के ‘सत्य’ को ही लें, तो वह किसी तय किए जा चुके जड़ सिद्धांत का जड़ निष्कर्ष नहीं है, वह ‘निरंतर प्रयोग’ है। अब इसके साथ गांधी की, निरस्त्र कर देने वाली ‘अनिरंतरता’ या inconsistencies की बात जोड़ें। मतलब, अगर गांधी की अलग-अलग समय पर कही गई दो बातों के बीच विरोधाभास को लेकर आप उन्हें ‘ध्वस्त’ करने निकलें, तो वह किसी सार्वकालिक जड़ सत्य पर अकड़ेंगे नहीं, अपनी निरस्त्र करने वाली मुस्कान के साथ कहेंगे कि वह निरंतर प्रयोग कर रहे हैं, और हवा-पानी के प्रवाह की तरह, आज के ‘प्रयोग’ पर जहां पहुंचे हैं, उसे सच मानें, ‘बीते कल’ की बात को खारिज समझा जाए।
इसीलिए, दक्षिण अफ्रीका के बोअर युद्ध में (चाहे घायलों की सेवा-सुश्रूषा का काम करने के लिए ही सही) मोहन दास को सेना के सार्जेंट मेजर गांधी बनने में परहेज़ नहीं होता। फिर प्रथम विश्वयुद्ध में वह ‘प्रजा’ के रूप में, ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में मदद करते हैं। फिर सविनय अवज्ञा आंदोलन में उसी सरकार के खिलाफ पूरी ताकत के साथ खड़े हो जाते हैं। आंदोलन चौरी-चौरा की हिंसा तक पहुंचता है तो निर्णायक क्षणों में उसे रोक देते हैं। और फिर, कई वर्षों तक रचनात्मक कार्यक्रम से अहिंसा की जन-शक्ति को इतना मज़बूत बनाते हैं कि दांडी मार्च के नमक का स्वाद ब्रिटिश सत्ता को चखा देते हैं। और फिर, दूसरे विश्वयुद्ध में, जब ब्रिटिश सत्ता की मदद के तर्क में उन्हें जापानियों के भारत पर कब्ज़े का डर दिखाया जाता है तो गांधी की अहिंसा इतनी परिपक्व और आत्म-विश्वास भरी हो जाती है कि वह अंग्रेज़ों को दो टूक कह देते हैं कि आप तो ‘भारत छोड़ो’; ज़रूरत हुई तो जापानियों से ये देश – अहिंसा के, लेकिन प्रतिरोध के रास्ते से निपट लेगा। ये है सत्य के सतत प्रयोग की ताकत और आत्मविश्वास!
जैसे-जैसे उम्र के साथ, नई बातें सोचीं-गुनी तो महसूस हुआ कि कुछ तो है इस अतार्किक से इंसान में, इस बहुत साधारण वक्ता में कि खरे-खरे व्यावहारिक पटेल हों, या कि स्वप्नदर्शी लेकिन विशुद्ध वैज्ञानिक सोच वाले नेहरू हों और या फिर ज़बरदस्त ऊर्जा और जोश भरे सुभाष हों – वो सभी गांधी के सामने निरस्त्र हो जाते हैं, आजीवन अनुयायी हो जाते हैं। आज़ाद हिन्द फौज के प्रसारणों में बापू को श्रद्धा से स्मरण करते हैं, उनके चले जाने को ‘रोशनी का चला जाना’ बताते हैं या खुद को ‘बापू का सिपाही’ बताकर राष्ट्र-निर्माण में जुट जाते हैं।
फिर देखा कि पूरे अफ्रीका के स्वतन्त्रता संघर्ष , काले-गोरे की लड़ाई , फिलिस्तीनीयों- लेटिन अमेरिकियों के संघर्ष, जहालत और तानाशाहियों के खिलाफ जद्दो-जहद के भले ही हिंसक-अहिंसक ताने-बाने रहे हों – पर नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग से लेकर मलाला युसुफजाई तक – सभी प्रेम, भाईचारे और मेल-मुलाक़ात के गांधी के आदर्श – और गांधी की रणनीति के कायल हो जाते हैं। शुमाखेर के ‘स्माल इज ब्युटीफूल की अर्थनीति में, उपभोक्तावाद और स्वार्थ की संस्कृति के खतरों के प्रति एल्वैन टोफलर के ‘फ्यूचर शॉक’ में, जलवायु परिवर्तन, पूंजीवादी-साम्राज्यवादी-उपभोगवादी समाज के खतरों के बीच ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ की समझ में, ‘यद्धम देहि’ के उन्मादों और अंधेपन के बीच ‘सेन वॉइस’ की ज़रूरत में –‘हिन्द स्वराज’ के अटपटे अर्थशास्त्री-समाजशास्त्री गांधी की पदचाप दुनिया भर में सुनाई देने लगती है।
अब लगने लगा है कि अगर आज मैं अपने तमाम टुकड़ा-टुकड़ा तर्कों के साथ गांधी के पास जा सकता, तो उसी बेहद मानवीय निश्चल मुस्कान से वो मुझे निरस्त्र कर देते। गांधी के एक जीवनीकार विन्सेंट शीन भी यही सवाल उठाते हैं कि एक हर नज़र से साधारण, जिसमें कोई करिश्मा न हो, ऐसे इंसान के जबददस्त प्रभाव का कारण क्या है? और वह स्वयं ही सरल सा उत्तर देते हैं “Goodness is the key!” यानि इस आदमी का बुनियादी भलापन ही इसके प्रभाव का रहस्य है।
जैसे-जैसे समझ आती गई और चटकीले शब्द अपना प्रभाव छोड़ने लगे; ज़्यादा पढ़ा, ज़्यादा समझा तो हर बात की जैसे संगति बैठने लगी कि तमाम जोशीले नेताओं के बीच गांधी के गुरु सौम्य-शांत गोखले क्यों थे; कि वैष्णव जन का सबसे बड़ा लक्षण पराई पीर जानना होता है; कि खान-पान, पहनावे और जीवन की सादगी इस धरती पर जीवन की रक्षा कर सकने वाले ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ तक जाती है; कि रोम्याँ रोलां से आइन्स्टाइन तक बड़े-बड़े वैज्ञानिक-सांस्कृतिक बुद्धिमान एक अधनंगे फकीर के कायल क्यों हैं।
एक और संभावित बिम्ब मन में है। देश-विभाजन के बाद गांधी के दिल्ली आते ही, उनके उपवास ने दिल्ली में दंगे रुकवा दिये थे। उसके बाद, गांधी का इरादा, पैदल ही पाकिस्तान जाने का था- ज़ाहिर है, वह बिना पासपोर्ट-वीज़ा के वहाँ जाते! पता नहीं, इतिहास क्या चमत्कार तब दिखाता! मानवता किस धवलता के दर्शन करती! घावों पर कितने मरहम लगते! क्या पता, इतिहास गलती सुधार लेता, धारा बदल लेता! पर एक मूर्ख, वाहियात सिरफिरे ने, कुछ नफरती, सफेदपोश साज़िश करने वालों के जाल में फंस कर पूरी इंसानियत को इन तमाम संभावनाओं से वंचित कर दिया।
और इस सारी चर्चा के बाद एक डिस्क्लेमर, इस मामूली से लेखक को गांधी-भक्त और गांधीवादी न समझा जाए। ये निरंतर चलने वाले ‘सत्य के प्रयोगों’ का, जीवन की निरंतरता और प्रगति की संभावनाओं का, मानवीय मेधा का – स्वयं गांधी का अपमान होगा। कोई भी ‘भक्त’ या conformist दृष्टिकोण हमें उन्माद, पाखंड, नफरत और बरबादी की ओर ले जाएगा, चाहे उसके साथ गांधी के नाम की ही दुहाई क्यों न दी जाए। ऐसा उन्माद, ऐसी नफरत और ऐसी भस्मासुरी प्रवृतियाँ तो हम आस-पास देख ही रहे है। और इन्हीं को रोक पाने के लिए, गांधी जैसा कुछ न कर पाने के छोटे से प्रायश्चित के तौर पर यह लेख लिखा गया है।

Excellent. Thoughtful article analysing Gandhi’s theory of life n his approach still relevant.
धन्यवाद, मित्र।
बेहद अच्छा लिखा। इतने संक्षेप में गाँधी जी को समझाना, समझना और उस पूरे परिप्रेक्ष्य को सामने रख पाना निश्चित रूप से प्रशंसनीय है।
स्तंभ साहित्यिक जान पड़ता है पर इसमें पढ़ने के लिए कम ही है.
Just brilliant!
अँधेरे में लौ दिखाता सशक्त लेख
Rajendra Bhatt.exceptional mind .well read person and excellent writer.Thank you for this treat.
I’m humbled. This comment is my trophy. I’ll cherish it.