यूपी ने और मज़बूत की हिंदुत्व की राजनीति के एजेंडे की ज़मीन

राजकेश्वर सिंह*

उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के हालिया संपन्न विधानसभा चुनाव के नतीजों ने देश में राजनीति के एक नए विमर्श को केंद्र में ला दिया है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में जिस भारी बहुमत से भाजपा सरकार की वापसी हुई है, उससे इस बहस को तो बल मिलता ही है कि क्या देश अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में हिंदुत्व की राजनीति के एजेंडे पर और आगे बढ़ेगा? 

बीते पांच वर्षों में देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जैसा शासन चलाया, ऐसा नहीं है कि उससे प्रदेश की जनता में नाराज़गी न रही हो। यूपी के ग्रामीण इलाकों में छुट्टा जानवरों से किसानों की फसलों की बरबादी और महंगी रासायनिक खादों की किल्लत से हर कोई त्रस्त ही नहीं था, बल्कि उसके खिलाफ जगह-जगह विरोध भी दिखाई दे रहा था। इसके अलावा पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के सिलेंडरों और खाद्य तेलों की बढ़ी कीमतों ने भी पिछले काफी समय से गरीब लोगों का जीना मुहाल कर रखा था। फिर भी पंजाब को छोड़ चार राज्यों की जनता ने भाजपा को फिर से ज़बर्दस्त जीत दिलाकर यह साबित कर दिया कि उसे हर हाल में राजनीति का यही ब्रांड पसंद है। खासकर हिंदुत्व के एक बड़े ब्रांड बन चुके गेरुआ वस्त्रधारी योगी आदित्यनाथ तो और भी ज्यादा, जिन्हें बड़े-बड़े अपराधियों की अवैध संपत्ति को ध्वस्त करने के नाते लोग बुल्डोज़र बाबा भी कहकर पुकारने लगे हैं।

उपरोक्त परिस्थितियों में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या मण्डल कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू होने के बाद बीते तीन दशक से उत्तर भारत के राज्यों में सामाजिक न्याय की अवधारणा की दुहाई देकर जातीय गोलबंदी के सहारे हो रही राजनीति के दिन बीतने वाले हैं? अगड़ों-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों, उनमें भी खासकर मुस्लिम समुदाय को लेकर चुनाव-जिताऊ राजनीति की परंपरा अब खात्मे की ओर है। इन मुद्दों पर आगे और बहस की पूरी गुंजाइश है, लेकिन यह नहीं लगता कि बीते सात-आठ वर्षों में हिंदुत्व के बहाने भाजपा ने देश के बड़े समुदाय की एकजुटता की जो ज़मीन तैयार की है, उस पर संदेह की गुंजाइश है। यह काफी हद तक स्थापित है कि जो राजनीतिक दल सरकार में होता है, चुनावों में उसके खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर होती है, लेकिन इस बार जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए उसमें पंजाब में भाजपा की सरकार नहीं थी, बाकी उत्तर प्रदेश समेत चार राज्यों में वह दमदार तरीके से फिर से सरकार बनाने जा रही है। उत्तर प्रदेश में तो वह 37 साल बाद  यह इतिहास भी रच रही है कि कोई राजनीतिक दल सत्ता में पांच साल रहने के बाद उसी मुख्यमंत्री की अगुवाई में दोबारा पांच साल के लिए सरकार बनाने जा रही हो।

इस बार के चुनावों में भाजपा की जीत के मायने क्या हैं, उसे समझने के लिए उत्तर प्रदेश को सामने रखकर एक आंकलन किया जा सकता है। वैसे तो देश के पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव थे, लेकिन देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों ने जो इबारत लिख दी है, उसके मायने कई अर्थों में बहुत बड़े हैं। आम जनता की तमाम शिकायतों के बावजूद भाजपा के पक्ष में गए उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों के निहितार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती। लगभग 24 करोड़ आबादी वाले इस प्रदेश ने 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के प्रदेश विधानसभा चुनाव, उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में फिर से भाजपा को बड़ी जीत दिलाना निश्चित तौर पर बड़ी बात है।

आखिर ऐसी क्या वजह रही कि जिस प्रदेश की आबादी का बड़ा हिस्सा, खासतौर से गांवों में रहने वाले लोग एक लंबे अरसे से कई दुश्वारियों को लेकर सरकार के खिलाफ खुलकर गुस्से का इजहार करते रहे हों, फिर भी चुनाव में उन्होंने भाजपा को ही जिताने को तरजीह दी। भाजपा को फिर से जिताकर जनता ने एक तरह से अपना मन बताया है कि उनकी जो भी दिक्कतें थीं, वे उसे झेलने को तैयार हैं, लेकिन सरकार तो उन्हें भाजपा की ही चाहिए। शायद यही वजह रही कि उन्होंने खुद की तकलीफों को नज़रअंदाज़ कर दिया। या फिर यूं कहें कि प्रदेश की सरकार में होने के बावजूद भाजपा अपनी नाकामियों से ज्यादा पांच साल पहले की (2012 से 2017) समाजवादी पार्टी की सरकार की कमियां और कानून-व्यवस्था को लेकर जनता को उसका डर दिखाने, अपनी बात समझाने में कामयाब रही।

निर्वाचन आयोग की ओर से चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से गोरखपुर के एक कार्यक्रम में समाजवादी पार्टी के टोपी के लाल रंग को खतरे की घंटी बताने को जो सिलसिला शुरू हुआ तो पूरे चुनाव तक कोई ऐसा दिन नहीं गुज़रा जब भाजपा नेताओं ने समाजवादी पार्टी को परिवारवादी, जातिवादी, गुंडा-माफियापरस्त, महज जाति व समुदाय विशेष के लोगों के लिए काम करने जैसे आरोपों को उस पर चस्पा न किया हो। इतना ही नहीं, हिंदू-मुसलमान, श्मशान-कब्रिस्तान, पाकिस्तान और जिन्ना-समर्थक जैसे आरोपों के जरिए भी भाजपा समाजवादी पार्टी को लगातार घेरती रही। भाजपा नेताओं ने जनता को यह भी समझाने की पुरज़ोर कोशिश की कि यदि प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो अयोध्या में बन रहे राम मंदिर का निर्माण भी रुक जाएगा।

समाजवादी पार्टी वोटों के ध्रुवीकरण के डर से इन मसलों पर खुलकर जवाब देने से कतराती रही। उसे लग रहा था कि भाजपा इन बातों को उठाकर उसे अपनी पिच पर लाकर मात देना चाहती है, लिहाज़ा समाजवादी पार्टी भाजपा सरकार से उसके पांच साल के कामों का हिसाब ही मांगती रही। जबकि, भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चेहरे को आगे रखकर खुद को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फिर से कांवड यात्रा शुरू कराने, राम मंदिर बनवाने, बड़े-बड़े गुंडे-माफियाओं की अवैध सम्पत्तियों पर बुलडोजर चलवाने, सख्त कानून-व्यवस्था देने और सबके साथ समान व्यवहार करने वाली सरकार साबित करने में जुटी रही। प्रदेश में उसकी फिर से बड़ी जीत यह दर्शाती है कि वह अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब भीं रही।

बड़ी बात यह भी है कि 2017 के पहले तक देश व उत्तर प्रदेश के नेता के रूप में अपनी कोई पहचान न रखने वाले योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में ही देश के इस सबसे बड़े प्रदेश में भाजपा सरकार की वापसी से राष्ट्रीय राजनीति में अब उनका कद और बड़ा होना लाज़िमी है। यह बात अभी से चर्चा के केंद्र में आने लगी है कि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के भीतर मोदी के बाद योगी ही दूसरे बड़े नेता हैं। लिहाज़ा ना भाजपा के भीतर उनके समर्थक बल्कि स्वतंत्र राजनीति विश्लेषक भी यह सोचने लगे हैं कि आगे चलकर जब भी मौका आएगा, वे मोदी के उत्तराधिकारी हो सकते हैं।

उत्तर प्रदेश का इस बार का चुनाव इस लिहाज़ से भी बहुत मायने रखता है कि बीते तीन दशक से प्रदेश की राजनीति में दमदार उपस्थिति रखने वाली बहुजन समाज पार्टी का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। उसने 2007 में अपने बूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर 17 साल तक प्रदेश में चले गठबंधन सरकारों का अंत करने का  इतिहास रचा था, उसी पार्टी को अब प्रदेश में आधा दर्जन विधायकों तक के लाले पड़ गए हैं। पिछले चुनाव में उसके 19 विधायक थे।

इतना ही नहीं, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के ज़रिए देश की सबसे पुरानी पार्टी ने भी इस बार के चुनाव में अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज करने की कोशिश की, लेकिन बहुत जोश-भरा अभियान चलाने के बावजूद कांग्रेस पूरी तरह हाशिए पर चली गई। इस तरह प्रदेश में अब पूरी तरह दो दलीय राजनीति की ज़मीन तैयार हो गई है, जिसमें एक तरफ भाजपा है तो दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी ने मजबूत विपक्ष की जगह ले ले ली है। हालांकि, दो दलीय चुनावी स्थिति में आगे चलकर भाजपा कैसे अपने वोट-बैंक को सहेजेगी और कब तक अपनी नंबर-वन पोज़िशन बचाए रखेगी, इसका अंदाज़ा अभी लगा पाना मुश्किल है।

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*राजकेश्वर सिंह उत्तर प्रदेश के पूर्व सूचना आयुक्त एवं स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक हैं।  

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