मानवता को बचाने वाली वीरता

राजेन्द्र भट्ट

नक्कारखाने में तूती – 5

कैसे होते हैं सच्चे वीर? क्या होती है वीरता? हम बड़े भाग्यवान हैं कि देश के जन-जन में, कण-कण में बसे राम हमारे पास सबसे बड़ी मिसाल हैं – आदर्श हैं। राम जैसे नायकों के लिए हमारे साहित्य में एक नाम है – धीरोदात्त यानि धीर और उदात्त! ऐसा वीर नायक जो ‘धीर’ हो – धैर्यवान, भलाई-बुराई सोच-समझ के बोले – काम करे और ‘उदात्त’ भी यानि जिसके बोल-चाल-व्यवहार में बड़प्पन हो, ओछापन ना हो, छिछोरापन न हो; और जो अपने साथ ही, सबको बड़प्पन, भलाई, उदारता, मेल-मिलाप और खुशहाली की राह पर ले जाए।

हम दोहरे भाग्यवान इसलिए हैं कि हमारे राम का संदेश बहुत आसानी से समझने के लिए हमारी प्यारी-प्यारी भाषाओं में सरल, मधुर तरीके से राम-चरित लिखा गया है और रंगमंचों के अनेक रूपों में दिखा कर ये कथा जन-जन के लिए और भी सरल-सरस बना दी गई है। अपने हिंदीभाषी इलाके में ये काम तुलसी बाबा की विवेक और मिठास से भरी ‘रामचरितमानस’ ने किया है। हर गाँव, कस्बे, शहर में होने वाली रामलीलाओं ने ये मिठास हर भारतीय के मन तक पहुंचाई है।

साहित्य और कलाओं – जैसे रामचरितमानस और रामलीलाओं से जो आनंद और बड़प्पन हम तक पहुंचता है, उसे साहित्य की भाषा में ‘रस’ कहते हैं। बात वीरता की करें, तो रामजी की वीरता का रस कैसा है? जरा याद करें, आँखों के सामने लाएँ रामचरितमानस की पोथी और बचपन में देखी रामलीला को।

ज़रा कल्पना करें राम की! क्या कभी ऐसे राम की कल्पना कर सकते हैं आप जो ज़ोर-ज़ोर से हाथ हिला कर, चिल्ला कर, जहरीले, भड़काऊ, जुमले-मुहावरे बोल कर मरने-मारने को तैयार रहते हैं?  नहीं, उनके चेहरे पर तो हमेशा शांत, मंद मुस्कान रहती है। ना राक्षसों जैसा दंभी अट्टहास – न मुर्दनी वाला  खिंचाव-तनाव। क्या वो कभी भी धमकी-बड़बोलेपन या ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ जैसी बात करते हैं? नहीं। याद करें कि परशुरामजी के गुस्से और खर-दूषण-ताड़का-रावण के निरर्थक, बड़बोले गर्जन-तर्जन, झूठ-माया के आगे राम कैसे व्यवहार करते  हैं? याद करें कि कैसे परिवार में झगड़ा-मनमुटाव बचाने के लिए वो राज्याभिषेक के दिन ही वनवास पर चले जाते हैं। वो शांत रहते हैं, आपा नहीं खोते  और जहां तक संभव हो, लड़ाई-मनमुटाव बचाने, विनम्र बने रहने की कोशिश करते हैं।

लेकिन जब झूठे और अत्याचारी हद पर कर लें और युद्ध का ही रास्ता बचे तो बिना किसी भय- संशय के,  बिना चीखे-चिल्लाए राम सर्वोत्तम-सर्वोच्च वीरता दिखते हुए शत्रु का नाश कर देते हैं। गुस्सा उन्हें तब भी नहीं आता, जीतने का उन्माद भी नहीं होता – शत्रु के परिवारजनों-आश्रितों को तसल्ली देते हैं, अभय कर देते हैं। ये है सच्ची वीरता। ये है ‘वीर रस’, जिससे देखने-सुनने वालों का आनंद बड़े, बड़प्पन-उदारता-सज्जनता आए।

कई बार पागलपन, झूठ और उन्माद के  कारनामों को  वीरता मान  लिया  जाता है। लेकिन इनसे बड़प्पन लाने वाला वीर रस नहीं आता। हमारे यहाँ इन्हें रौद्र और वीभत्स या भयानक रस कहते हैं। जैसे राम की महिमा को समझे बिना जब परशुरामजी आपा खो कर भीषण गुस्सा करते हैं तो उससे वीर रस नहीं, रौद्र रस छलकता है। जब कोई आपा और  विवेक खो देता है, तो फिर हारता-लज्जित होता ही है। सामने राम जैसा विवेकी धीर-वीर और लक्ष्मण जैसा चुटीला निर्भीक युवा हो तो आपा खोने वाला हंसी का पात्र भी बन जाता है जिससे हास्य रस भी पैदा होता है।

ये तो हुई परशुराम जैसे सज्जन चरित्रों के आपा खोने की बात। पर रामलीला के अत्याचारी धूर्त राक्षसों को याद करे। वो बात-बात पर निरर्थक चिल्लाते – गरजते हैं, ‘मार दूंगा-काट दूंगा’ करते रहते हैं, हाथ-पैर-सिर हिलाते-पटकते हैं, और फिर माया यानी छल-कपट-झूठ का सहारा लेते हैं।  

क्या ये वीरता है? नहीं। इसे भयानक और वीभत्स रस कहते हैं – जिससे डर-असुरक्षा पैदा हो, जिससे घृणा का, उल्टी आने जैसा मन करे। बेशक राक्षस अपने कुल की, ‘राष्ट्र’ की भक्ति का नाम ले कर गरज रहा हो – हाथ-पैर पटक रहा हो। आखिरकार तो ऐसे भयानक, छलिये, वीभत्स राक्षस अपने ही पैदा किए गए तमस और अंधेरे में मारे जाते हैं। बल्कि ज्यादा हाथ पटकने से इनके असली इरादों का जब भेद खुल जाता है तो इन पर हंसी भी आ जाती है- हास्य  रस पैदा होता है।

अपने देश को आज़ादी की लड़ाई में तपे-तपाये वीर, विवेकवान, नेता मिले- तभी तो गांधीजी ने  आदर्श रामराज्य का आदर्श हमारे सामने रखा। इसी कोशिश में, हमारे नेहरू-पटेल जैसे बड़े कद के नेताओं ने देश का बंटवारा करने वाले नफरत, तंगदिली और सांप्रदायिकता के राक्षसी दौर को पीछे छोड़ कर, राम जैसा बड़प्पन अपनाते हुए सच्चे तरीके से ‘सबका साथ-विकास-विश्वास’ की राह अपनाई। हमारी आज़ादी – धर्म-जाति-पंथ-विचारधारा से ऊपर – सबके लिए थी। हमने हर जन को वोट के जरिए सरकार बनाने की राह चुनी ताकि सत्ता ‘हम भारत के लोगों’ को मिले। इसके बावजूद, चुने हुए नेता भी कभी राक्षसी माया-कपट न करने लगें, इसके लिए हमारे दूरदर्शी  नेताओं ने सरकार पर चौकसी की, न्याय की, प्रेस की संस्थाओं को स्वायत्त और मजबूत बनाया ताकि जुमलों से भटकाने-भरमाने वाले स्वार्थी, संकीर्ण उन्मादी नेताओं पर लगाम लगे।

साथ ही, भले इरादों वाले ही सही, पर जिनके हाथों में फरसे हों – यानि हमारे सेनापति – जनरल – कहीं आपा खो कर अपने ही समाज-लोकतन्त्र का नुकसान कर सकने वाले परशुराम न हो जाएँ; या फिर तानाशाह बनने का इरादा पाले किन्हीं रावणों के मोहरे न बन जाएँ; या फिर बाद में खुद डिक्टेटर हो कर उन्हीं रावणों के लिए भस्मासुर न बन जाएँ – इसलिए हमारे समझदार नेताओं ने सेनानायकों  को लोकतन्त्र के चुने नेताओं के अधीन रखा। देश-रक्षकों के रूप में उन्हें पूरा पद-प्रतिष्ठा-सम्मान दिया पर देश की राजनीति और नीतिगत फैसलों पर टिप्पणी तथा बयानबाजी से उन्हें दूर रखा। इसी सत्ता-संतुलन और संयम की वजह से भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा सफल लोकतंत्र है, हर क्षेत्र में प्रगति करता मजबूत और भरोसेमंद देश है।

दूसरी ओर, अपनी ही डार से कटने का फैसला करने वाले पाकिस्तान के पास न गांधी-नेहरू-पटेल जैसे बड़े दिल-दिमाग के नेता थे, न रामराज्य का सपना। धार्मिक कट्टरता और उन्माद से बरबादी तो मिल सकती थी, निर्माण नहीं हो सकता था। इसलिए वहाँ छोटे कद के नेताओं ने अपने स्वार्थों के लिए सेना के महत्वाकांक्षी जनरलों को शह दी और जिन हथियारों का इस्तेमाल देश की रक्षा के लिए होना था, उनका अपने ही नेताओं की हत्याओं, तख्तापलट और जनता को कुचलने में हुआ। जनरलों की तानाशाही हो या उनकी कठपुतली सरकारें – पाकिस्तान में उम्मीद, लोकतन्त्र, तरक्की आई ही नहीं, उल्टे देश के ही दो टुकड़े हो गए। ‘मेरा धर्म-मेरी नस्ल-मेरी दक़ियानूसी महान’ वाले उन्मादी ‘टुकड़े-टुकड़े गेंग’ पाकिस्तान को आतंक-असुरक्षा में डूबा ‘फेल्ड स्टेट’ बना बैठे।

आजकल घटियापन से ताल ठोंक कर तुलना करने का दौर है। बड़ी चिंता ये है कि छोटे कद के राजनीतिबाजों के साथ सुर मिलाते हुए, हमारे कुछ सेनापति भी ताल ठोंकते,पड़ोसी को नष्ट कर देने की आगलगाऊ धमकियाँ देने लगे हैं, देश में ही लोकतांत्रिक असहमति के स्वरों को देशभक्ति के नाम पर धमकाने लगे हैं और और अपढ़-उन्मादी लोग इस पर जयकारे लगा रहे हैं।

सेना को बैरकों से बाहर लाकर, सत्ता के स्वार्थों के लिए प्लेटफॉर्म देने से ही पाकिस्तान बर्बाद हुआ। बुरी बातों में भी, नशेबाजों की तरह किसी का मुक़ाबला नहीं करना चाहिए। साथ ही उनकी बरबादी पर अनपढ़ ठहाके लगाने हैं। अच्छी, खुशहाल,समझदार पड़ोस होना अपने लिए भी अच्छा है। पड़ोसी से लगातार झगड़ा होने से अपनी भी बरबादी होगी- मन की शांति नहीं रहेगी। उन्हें भी संभालना है। ‘सबका साथ-विश्वास-विकास’ पास-पड़ोस तक भी फैलेगा तो पुख्ता होगा। वरना तो शिक्षा-स्वास्थ्य-कृषि-उद्योग के विकास का पैसा बम-गोलों में उड़ जाएगा। तानाशाह हसेंगे-चीखेंगे-जुमलेबाजी करेंगे।किसी के होनहार बच्चे मरेंगे। दोनों देशों की जनता कंगाल हो जाएगी।  

यों सेना के अफसरों-जनरलों के लिए भी राम की राह अपनाते हुए ‘वीरता’ और ‘धीरता’ दिखाने  के मौके आते हैं। जब आस-पास के लोग और नेता भावुकता अथवा उन्माद में बह कर सही फैसले न ले पा रहे हों, तो विवेकवान, दृढ़ और निडर सेनानायक, अपनी सामरिक विशेषज्ञता का इस्तेमाल कर सही निर्णय ले कर अपने देश-समाज को बचा सकते हैं, विजयी बना सकते हैं।

हमारे देश के सबसे चमकदार और दुलारे जनरल सैम मानेकशॉ ने 1971 में, बांग्लादेश से आए शरणार्थियों के बोझ और पाकिस्तानी भडकावे के बावजूद, बरसात के मौसम में लड़ाई न छेड्ने की निर्भीक और सामरिक समझदारी भरी सलाह तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को दी, जिसे उन्होंने पूरे सम्मान से माना। सही समय पर, सही रणनीति के साथ – राजनैतिक और सैनिक नेतृत्व के ताल-मेल से कार्रवाई हुई और मानेकशॉ भारत की सबसे बड़ी विजय के सेनानायक बने।

कभी-कभी सेना के विवेकवान अफसर, भारी तनाव और विषम परिस्थितियों में,  अपने-देश-समाज और मानवता को बचाने के लिए, लड़ाई नहीं करने के भी  निडर, विवेकवान फैसले करते हैं और इतिहास के पन्नों पर अपनी वीरता के लेख लिख जाते हैं।

तो, सच्ची वीरता के ऐसे ही दो उदाहरण पेश हैं।

अमेरिका के दक्षिण-पूर्व में केरेबियन सागर के एकदम दक्षिण में छोटा सा द्वीप-देश है -क्यूबा। 1959 के प्रारम्भ में यहाँ अमेरिका-परस्त तानाशाह बातिस्ता के तख़्ता-पलट के बाद फिडेल कास्त्रो के नेतृत्व में जनप्रिय सरकार बनी थी जिसने आते ही अमेरिकी प्रतिष्ठानों के राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाई। जवाब में, अमेरिका ने मई 1961 में कास्त्रो-सरकार के तख़्ता-पलट का  बड़ा असफल प्रयास भी किया।

       वह शीत-युद्ध का दौर था। नेहरू-नासिर-टीटो जैसे कुछ विवेकवान नेताओं के दुनिया को शांति और गुट-निरपेक्षता की राह  पर ले जाने के प्रयासों के बावजूद, दुनिया के अनेक   देश अमेरिकी और तत्कालीन सोवियत खेमों में बंटे थे। दोनों ओर उन्माद, अविश्वास, आशंकाओं, भय, घृणा और परमाणु  हथियारों का जखीरा था और युद्ध की एक चिंगारी दुनिया को तबाह कर सकती थी।

       ऐसे में, असुरक्षा से आशंकित क्यूबा ने सोवियत खेमे का दामन संभाला और जुलाई 1962 में सोवियत नेता निकिता ख्रूश्चेव के साथ क्यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात करने का गुप-चुप समझौता कर लिया। अमेरिका के दक्षिण-पूर्व तट (फ़्लोरिडा) से क्यूबा की दूरी 150 किलोमीटर से भी कम है। खतरे और आशंकाओं के जन-दबाव के बीच अमेरिका ने 22 अक्तूबर 1962 से क्यूबा के आस-पास के समुद्र की नौसेनिक नाकेबंदी कर दी ताकि (तत्कालीन) सोवियत संघ से भेजी जा रही किसी भी मिसाइल को जब्त किया जा सके। सोवियत संघ ने इसे आक्रामक कार्रवाई करार दिया और परमाणु युद्ध के बादल मंडराने लगे।

       लेकिन इसी दौरान, ख्रूश्चेव, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी और दोनों देशों के अधिकारियों  ने, जन-दबाव और उन्माद के तनाव के बावजूद, बेहद धैर्य और संयम से, पर्दे के पीछे से  युद्ध टालने के गंभीर प्रयास जारी रखे। आखिरकार, सोवियत संघ द्वारा क्यूबा में मिसाइलें नहीं भेजने, भेजी गई मिसाइलें हटाने और अमेरिका द्वारा तुर्की से अपनी मिसाइलें हटाने और क्यूबा पर आगे हमला न करने की घोषणा करने के साथ ये संकट समाप्त हुआ। संवाद-हीनता की वजह से भविष्य में ऐसी लड़ाई भड़कने से रोकने के लिए, अमेरिका-सोवियत संघ के सत्ताधीशों के बीच सीधी हॉटलाइन भी शुरू की गई। अक्तूबर 1962 के उत्तरार्ध में, लगभग रोज़ ही दुनिया को डराता विनाश का यह  खतरा टल गया।

       इस ताज़ा घटनाक्रम से बेखबर, एक सोवियत पनडुब्बी बी-59 क्यूबा के पास समुद्र की गहराई में थी। मास्को से उसका रेडियो संपर्क टूट गया था इसलिए उसके अफसरों-नाविकों को मालूम नहीं था कि युद्ध छिड़ चुका है या टल गया है। 27 अक्तूबर 1962 को इस पनडुब्बी को अमेरिकी युद्धपोतों ने ‘ट्रैक’ कर लिया और उसे सतह पर आने का निर्देश देते हुए ‘डेफ्थ चार्जेस’ ( समुद्र के अंदर विस्फोट जो घातक न होते हुए भी पनडुब्बी को नुकसान पहुंचा सकते हैं और अस्थिर कर सकते हैं) देने शुरू कर दिया ताकि वह बाहर निकाल कर पहचान बताने को मजबूर हो जाए।

       बी-9 पनडुब्बी के पास अब दो विकल्प थे। एक – अमेरिकी युद्धपोत पर अपने परमाणु-शक्ति चालित टारपीडो से वार कर निश्चित ‘वीरगति’ प्राप्त कर लेना। युद्ध छिड़े होने की स्थिति में तो यही विकल्प वाजिब था। लेकिन युद्ध नहीं छिड़े होने की स्थिति में ( जो कि वास्तविकता थी), इस कदम से परमाणु युद्ध ज़रूर छिड़ जाता।

       दूसरा विकल्प था कि सतह पर आने का खतरा लिया जाए क्योंकि युद्ध छिड़े होने की पुष्ट जानकारी नहीं थी और परमाणु युद्ध की चिंगारी बनने से बचा जाए। ‘वीरता’ तो इस कदम में भी थी क्योंकि युद्ध छिड़े होने की स्थिति में, सोवियत नौसेनिकों को मारा जा सकता था, पकड़े जाने पर बाद में अपने देश के युद्ध-उन्मादियों के धिक्कार भी झेलने की आशंका थी।

       तय नियमों के अनुसार, निर्णय तीन अफसरों को एकमत से लेना था – पनडुब्बी के कप्तान सावित्स्की, पॉलिटिकल ऑफिसर मास्लेन्नीकोव और डिप्टी कमांडर वासिली आलेक्जेन्द्रोविच आर्किपोव। आर्किपोव इस पनडुब्बी के अलावा उसी सागर में स्थित तीन अन्य पनडुब्बियों के बेड़े के कमांडर भी थे। इसलिए भी किसी भी फैसले के लिए उनकी सहमति अनिवार्य थी।

       पनडुब्बी में गुस्से,भय, चिढ़ और हताशा का माहौल था। पनडुब्बी का जीवन कष्ट और जीवट का होता है, ऊपर से इसकी बैटरी खत्म हो रही थी और कार्बन डाई ऑक्साइड गॅस का दमघोटू जमाव हो गया था। सावित्स्की और  मास्लेन्नीकोव ने अमेरिकी पोत पर हमला कर ‘वीरगति’ पाने की राय दी – यह मान लेते हुए कि युद्ध तो अब तक शुरू हो ही गया होगा। पर आर्किपोव ने आपा नहीं खोया। युद्ध के बारे में पुख्ता खबर न होने की स्थिति को देखते हुए, उन्होने खुद परमाणु युद्ध न छेड़ने और शांति को एक मौका देने की राय दी। एक वर्ष पूर्व ग्रीनलेंड के पास सोवियत पनडुब्बी के-19 में कूलेंट की खराबी के बाद रिएक्टर की खराबी से परमाणु विकिरण के रिसाव के दौरान उन्होने जान  जोखिम में डालकर इस खराबी को दूर करने में बहादुरी से नेतृत्व किया था और खतरनाक रिसाव को रोक कर जान-माल के नुकसान को बचा कर बड़ी प्रतिष्ठा पाई थी।  ख़ासी बहस के बाद, उनकी राय मान ली गई।

       युद्ध नहीं छिड़ा था लेकिन पनडुब्बी के अफसरों के किसी अविवेक से सारे शांति प्रयासों पर पानी फिर जाता। पनडुब्बी सकुशल सोवियत संघ पहुँच गई। आर्किपोव को तत्कालीन सोवियत रक्षामंत्री सहित कई उन्मादियों की घृणा और गुस्सा भी झेलना पड़ी।

       पर इतिहास का निर्णय उनके पक्ष में रहा। वर्षों बाद, अमेरिका के रक्षामंत्री रोबर्ट मैकनमारा और जॉन केनेडी के सलाहकार-इतिहासकार आर्थर सेलसेंगर सहित अनेक हस्तियों ने  माना कि यह घटना परमाणु युद्ध की सबसे करीबी स्थिति और शीत युद्ध का सबसे खतरनाक क्षण था। वीर-विवेकवान नायक  आर्किपोव ने जबर्दस्त नैतिक साहस और धीरता का परिचय देते हुए मानवता का विनाश बचा लिया।

      दूसरी वीरगाथा भी शीत युद्ध के दौर की है जब पश्चिमी और पूर्वी यूरोप में, दूसरे महाद्वीप तक मार कर सकने वाली  अमेरिकी और सोवियत मिसाइलें तैनात थीं और असुरक्षा-अविश्वास के माहौल में आतंक-जन्य शांति-संतुलन (बैलेंस ऑफ टैरर) बना हुआ था। सितंबर 1983 के प्रारम्भ में (अमेरिकी खेमे के देश) दक्षिण कोरिया का एक यात्री विमान गलती से सोवियत अन्तरिक्ष-क्षेत्र में चला गया था और असुरक्षा-उन्माद की देश-भक्ति में, चौकस  सोवियत ‘वीरों’ ने, बिना ठीक से तसल्ली किए इस विमान को ‘हमलावर’ मानते हुए मार गिराया था। सैकड़ों निर्दोष जानें गई थीं। माहौल को घृणा और उन्माद-ग्रस्त बनाने में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के उग्र-घमंडी उद्गारों का भी हाथ था।

       गुस्से और आशंकाओं की इस काली छाया के दौर में, 26 सितंबर 1983 को मिसाइल हमलों की पूर्व-जानकारी देने वाली सोवियत प्रणाली में ड्यूटी अफसर स्तानिस्लाव पेत्रोव तैनात थे। प्रणाली के प्रारम्भिक चेतावनी-तंत्र से लगा कि अमेरिका की तरफ से पहले एक, और फिर पाँच मिसाइलें दागी गई हैं। पेत्रोव का ‘कर्तव्य’ इस ‘हमले’ की सूचना तुरंत अफसरों को देना था। अगर सूचना गलत होती तो भी  यह पूर्ण तबाही की आशंका वाला परमाणु हमला माना जाता, इसलिए सोवियत जवाबी कार्रवाही भी तुरंत शुरू हो जाती। जयघोषों से शुरू होकर चीत्कारों में समाप्त होने वाला यह विनाशकारी युद्ध सारी इंसानी तरक्की को निगल जाता और फिर देशों-समाजों के बचे-खुचे लोगों की अगली लड़ाइयाँ धनुष-बाणों-गदाओं-तलवारों से होतीं, जिनकी गौरव-गाथाएँ भविष्य के पुरानों में ‘मंत्र-गाइडेड’ ब्रह्मास्त्रों-आग्नेयास्त्रों के रूप में लिखी जातीं!!

       लेकिन अगर सूचना सही होती तो इसकी तुरंत जानकारी न दे पाने  में पेत्रोव की ढील, सोवियत संघ के एकतरफा बेमौत मरने में होती। इतिहास उन्हें अपने देश का ‘जयचंद-जाफ़र’ करार देता!! ( हालांकि परमाणु युद्ध और विकिरण देशों और देश-भक्ति की सीमाएं स्वीकार नहीं करता और ऐसी कार्रवाई से अंततः तो दुनिया तबाह होती ही। )

       अविश्वास, भय, असुरक्षा, प्रोपेगंडा, तनाव  और एकतरफा अंध-देशभक्ति के अंधेरे के बीच पेत्रोव ने विवेक की रोशनी से आँख न हटने दी और ‘हमले’ की सूचना तुरंत न देने का फैसला लिया। विवेक-सम्मत तरीका यही था कि ‘जवाबी हमले’ से पहले, ‘हमले’ की सभी उपलब्ध स्रोतों और तर्कों से जांच कर लेनी चाहिए। पहला तर्क ये था कि पहले परमाणु-हमला करने वाला कोई भी पक्ष, पूरी ताकत झोंक कर पुरजोर हमला करेगा ताकि दूसरा पक्ष जवाबी हमले के लिए पलट न पाए। मात्र पाँच-छह मिसाइल छोड़ चुप बैठ कर, दूसरे पक्ष को जवाब में अपनी पूरी तबाही का मौका नहीं देगा। दूसे, आक्रमण-निगरानी प्रणाली नई थी और पूरी तरह भरोसेमंद नहीं थी। तीसरे, प्रणाली में आक्रमण की अनेक स्तरों पर पुष्टि होती है और इतने कम समय में हमले के संकेत आ जाना पेत्रोव को संतुष्ट नहीं कर रहा था। चौथे, जमीनी राडार प्रणाली से हमले की पुष्टि नहीं हुई थी। सबसे बड़ी बात, पेत्रोव मात्र प्रोफेशनल सैनिक नहीं थे, उनकी सिविलियन ट्रेनिंग भी हुई थी जिसने उनके व्यक्तित्व को पूर्णता दी थी। ( कुछ उसी  तरह कि चमकदार करियर के लिए बी-टेक-एम-बी-ए के साथ अगर थोड़ा साहित्य, भाषा और मानविकी, सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की भी पढ़ाई हो जाए तो व्यक्तित्व सौम्य और दृष्टि व्यापक तथा  गहरी हो जाती है।) 

       बाद में साबित हुआ, पेत्रोव सही थे। मिसाइलों का भ्रम कुछ वायुमंडलीय घटनाओं की गलत समझ से पैदा हुआ था। ( हम, आर्किपोव और पेत्रोव से जुड़े प्रसंगों की वैज्ञानिक-सामरिक बारीकियों में नहीं जा रहे हैं। ये जग-जाहिर घटनाएँ हैं जो ‘विकी’ से ली गई हैं और उसमें अनेक स्रोतों के हवाले से ये प्रसंग प्रस्तुत किए गए हैं। ‘फाल्स नुक्लियर अलार्म्स’ की ऐसी अनेक प्रामाणिक घटनाओं के विवरण उपलब्ध हैं।)

       इस तरह, विवेकवान वीरों – पेत्रोव और आर्किपोव ने  मानव-जाति को विनाश से बचाया। इसके पीछे एक बड़ा कारण ये भी था कि इन दोनों वीरों के दिमाग में –‘हम’ की श्रेष्ठता और ‘दूसरों’ के घटिया-नीच होने के अंध-राष्ट्र-जाति-पंथवादी कचरे की घातक-बदबूदार गैस नहीं पनप रही थी, इसीलिए विवेक की मलय बहार, मानवीयता की ऑक्सीज़न ने उनके मष्तिष्क को पुष्ट किया और वे सही फैसले ले सके। 

अगली बार – क्यों बन जाते हैं ‘मिनी पाकिस्तान।‘

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं।

2 COMMENTS

  1. बड़ी मेहनत से लिखा गया है।
    सामयिक आलेख।
    सम सामयिक नेताओं को समझना चाहिए।

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