स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए प्रेस की स्वतन्त्रता ज़रूरी

आखिरी पन्ना

आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के मई 2022 अंक के लिए लिखा गया।

संयोग ऐसा बना कि आज ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे’ या विश्व प्रेस स्वतन्त्रता दिवस पर आखिरी पन्ना लिखा जा रहा है। लोकतन्त्र और एक स्वतंत्र प्रेस एक दूसरे के पूरक कहे जाते हैं। दोनों एक दूसरे से ही हैं और एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं।  हमारे लिए यह थोड़ी चिंता की बात होनी चाहिए कि भारत प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में पिछले कुछ वर्षों में लगातार नीचे होता जा रहा है। जब तक आपके हाथ में यह अंक पहुंचेगा, आप कहीं ना कहीं पढ़ चुके होंगे कि 180 देशों की सूची में भारत 150वें स्थान पर है और इस तरह पिछले वर्ष की तुलना में आठ स्थान और नीचे आ गया है। यह भी हो सकता है कि यह आपकी नज़र में ना भी आए क्योंकि ऐसे असुविधाजनक समाचारों को आजकल बहुत प्रमुखता से प्रकाशित नहीं किया जाता।

पेरिस स्थित ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ प्रतिवर्ष एक विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (World Press Freedom Index) प्रकाशित करता है। यह सूचकांक 180 देशों में मीडिया की स्वतंत्रता के स्तर का बहुत सारे मानकों के आधार पर मूल्यांकन करता है। प्रेस फ्रीडम के इस सूचकांक  की काफी प्रतिष्ठा है और आम तौर पर लोग मानते हैं कि यह संस्था प्रोफेशनल ढंग से काम करती है।

यदि आप इस बात में यकीन करते हैं कि इस देश के लिए, खास तौर पर इस देश के गरीबों और वंचितों के लिए लोकतन्त्र आवश्यक है तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि देश में लोकतंत्र को स्वस्थ और सुरक्षित रखने के लिए प्रेस की आज़ादी सबसे महत्वपूर्ण है। पाठकों में से जिन लोगों को एमरजेंसी यानि आपातकाल के समय की याद है या जिन्होंने लोकतन्त्र के उस काले अध्याय के बारे में पढ़ा है, उन्हें मालूम है कि जब श्रीमति इन्दिरा गांधी ने 25 और 26 जून की मध्यरात्रि में आपातकाल की घोषणा की थी तो उन्होंने सबसे पहला आदेश दिल्ली के बड़े अखबारों की बिजली काटने का किया था और अगली सुबह दिल्ली का कोई अखबार नहीं निकला था। इसके साथ ही देश में अखबारों के लिए सेंसरशिप लागू कर दी गई थी यानि अखबारों में छपने वाली हर सामग्री को पहले सरकारी अफसरों से स्वीकृत करवाना होता था। खैर, इन्दिरा जी को जल्दी ही सद्बुद्धि आ गई – शायद इसलिए भी क्योंकि वह पंडित नेहरू की बेटी थीं और स्वतन्त्रता के उपरांत उन्होंने ही देश में लोकतन्त्र की नींव को मज़बूत किया था।

वैसे आपातकाल के बाद भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को नियंत्रित करने के लिए बीच-बीच में प्रेस की आज़ादी को कम करने की कोशिशें हुई। उदाहरण के तौर पर राजीव गांधी सरकार द्वारा 1988 में लाया गया Defamation Bill जो लोकसभा द्वारा पारित भी कर दिया गया था जिसके अंतर्गत किसी की प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाली खबर के लिए पत्रकार को जेल भी भेजा जा सकता था। लेकिन आपातकाल तब केवल बारह बरस पुराना था और लोकतन्त्र पर इस नए हमले को देश ने, खास तौर पर तत्कालीन मीडिया ने स्वीकार नहीं किया और इसका घोर विरोध हुआ। राजीव गांधी राजनीति में चाहे अनघड़ थे और अपने किन्हीं सलाहकारों के कहने से ऐसा बिल पारित करवा बैठे थे लेकिन उसका कडा विरोध होने पर वह हैरान रह गए और आनन-फानन में उन्होंने इस बिल को वापिस लेने की घोषणा कर दी। इस तरह लोकतान्त्रिक प्रक्रिया द्वारा ही (यह बिल जनता द्वारा चुनी गई लोकसभा द्वारा ही पास किया गया था)  लोकतन्त्र पर यह हमला जन-दबाव में यानि एक अन्य लोकतान्त्रिक प्रक्रिया द्वारा नाकाम कर दिया गया।

उपरोक्त उदाहरण एक तरह का ‘रिमाइन्डर’ भी है जो हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं जब जनता द्वारा भारी बहुमत से और पूर्णत: लोकतान्त्रिक तरीके से सत्ता में आए शासक भी ऐसे काम करते हैं जो तकनीकी तौर पर तो कानून के दायरे में आते हैं किन्तु असल में ऐसे कदम लोकतन्त्र को कमजोर करने या उसकी जड़ें काटने के लिए ही उठाए जाते हैं। जनता को हमेशा ऐसे खतरों के प्रति सजग रहना चाहिए।

अब एक बार फिर हम World Press Freedom Index की बात करते हैं जिसके अनुसार हम 180 देशों की सूची में जहां 2016 में 133वें स्थान पर थे, वहीं अब नीचे गिरकर 150वें स्थान पर आ गए हैं। तो इन छ: वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि हम जो पहले से ही इतना नीचे थे, गिरकर और नीचे आ गए! जो संस्था (‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’) यह इंडेक्स जारी करती है, उसकी वैबसाइट के अनुसार इस संस्था ने और मानव-अधिकारों के लिए काम कर रही विश्व की अन्य नौ संस्थाओं ने भारत में अधिकारियों को पत्र लिख कर अपील की है कि वो सरकार के कार्यों की आलोचना करने वाले पत्रकारों की प्रताड़ना बंद करे। इन संस्थाओं का ऐसा कहना न्यायसंगत है या नहीं, यह आप अपने विवेक से तय करें। हो सकता है कि पिछले वर्ष जुलाई में दैनिक भास्कर अखबार के देश भर में फैले लगभग 30 दफ्तरों पर एक साथ इन्कम-टैक्स विभाग द्वारा मारे गए छापों जैसी सरकारी कार्यवाहियों ने भारत की इस इंडेक्स में रेटिंग पर असर डाला हो।

कुल मिलाकर यह कि हम सबको एक ज़िम्मेवार नागरिक का कर्तव्य निभाते हुए लोकतन्त्र का सजग प्रहरी भी बनना होगा और चाहे हम किसी भी राजनीतिक दल के समर्थक क्यों ना हों, हमें अपने जन-प्रतिनिधियों को हमेशा याद दिलाते रहना होगा कि हमारे लिए और देश के लिए लोकतन्त्र का सुरक्षित रहना सबसे आवश्यक है और एक स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी और एक स्वतंत्र प्रेस का रहना।

इस बार इतना ही! इस स्तम्भ पर या उत्तरांचल पत्रिका में प्रकाशित अन्य सामग्री पर अपनी राय से आप पत्र लिखकर अवगत कराइयेगा।

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