अलविदा 2020

आखिरी पन्ना

आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के जनवरी 2020 अंक के लिए लिखा गया।

इस साल का अंतिम सप्ताह आखिर आ ही गया! हर साल का आता है तो 2020 का भी आना ही था लेकिन ये साल कई वजहों से याद रहेगा! दिक्कत ये है कि ज़्यादातर वजहें ऐसी हैं जिन्हें हम साधारणतः नकारात्मक ही कहेंगे। वैसे करोना महामारी के कारण संकट वैश्विक है लेकिन हर देश को अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार ही करोना और उसके कारण पैदा हुई समस्याओं से निपटना पड़ेगा। देश में वर्षांत आते-आते करीब एक करोड़ लोग कोविड से ग्रसित होने के बाद ठीक हुए जबकि करीब 1,48 लाख लोगों को इस रोग ने लील भी लिया है। हालांकि यदि हम सकारात्मक रवैय्या रखना चाहें तो ये भी कह सकते हैं कि हालात इससे भी खराब हो सकते थे। जो भी हो, इतना तो कहा जा सकता है कि देश को, खास तौर पर इसके युवा को आने वाले वर्षों में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।

मामला सिर्फ करोना महामारी का होता तो बात अलग थी। आज ये लिखते समय जो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह बात है वो ये है कि आज लाखों किसान उत्तर भारत की कड़ाके की ठंड में दिल्ली की सीमाओं पर डटे हुए हैं लेकिन एक आम नागरिक के तौर पर हम उनकी ज़रा भी मदद नहीं कर पा रहे। सरकार तो उनकी सुनवाई नहीं ही कर रही, मध्यम-वर्ग भी जैसे इंतज़ार कर रहा है कि कब इन पर फिर से पुलिस कार्यवाही हो और हाई-वे खाली हो जाएँ और मसला निपट जाये। सरकार और मिडिल क्लास् दोनों को ये समझ आना चाहिए कि अगर उन्होंने किसानों के आंदोलन को बिना कृषि बिल वापिस लिए निपटाने की कोशिश की तो ये कोई सरल बात नहीं होगी। सिर्फ यह कह कर आंदोलन की मांगों को नज़र-अंदाज़ करना कि ये केवल पंजाब-हरियाणा और कुछ पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों का आंदोलन है, कोई समझदारी नहीं होगी।

ऐसा लगता है कि सरकार ने इन कृषि बिलों को इज्ज़त का सवाल बना लिया है जबकि लोकतन्त्र का ये तक़ाज़ा है कि सरकार को जन-भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। यदि सरकार सचमुच किसानों के हित में सुधार करना चाहती है तो उसे किसानों की शंकाओं का समाधान करना चाहिए जैसे बताना चाहिए कि कृषि सुधारों का जो मॉडल यूरोप और अमरीका में पूरी तरह फेल हो चुका है, वह भारत में कैसे सफल होगा, दूसरे अगर एमएसपी पर सरकार की नीयत साफ है तो फिर उस पर कानून बनाने में क्या दिक्कत है, सरकार कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग में अब तक बताई गई कमियों को दूर क्यों नहीं कर रही जैसे कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग में कॉर्पोरेट (बड़ी कंपनियाँ) बाद में फसल की कमियाँ निकालते हैं और फसल नहीं उठाते तो उसका क्या हल है, इस प्रक्रिया को न्यायालयों की पहुँच से बाहर क्यों रखा गया है, और इस सबसे बड़ा सवाल ये है कि कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग की जगह सरकार सहकारी खेती को प्रोत्साहन क्यों नहीं देती?

यह लिखे जाने तक किसानों और सरकार के बीच कोई सार्थक बात नहीं हो पाई है लेकिन संकेत हैं कि 30 दिसंबर को वार्ता हो सकती है। क्या ही अच्छा हो कि कोई चमत्कार हो जाये और सरकार 2021 शुरू होने के पहले किसान संगठनों की सभी शंकाओं को दूर करे और वह जैसे जून में अध्यादेश लाकर ये कानून लेकर आई थी, उसी प्रकार अध्यादेश द्वारा इन क़ानूनों में आवश्यक संशोधन कर दे या उन्हें फिलहाल वापिस ही ले ले और किसानों को संतुष्ट करके वापिस भेज दे।

करोना महामारी और किसान आंदोलन पर चर्चा के बाद 2020 में चीन के साथ लगती सीमाओं पर जो नई स्थिति बन गई है, उस पर भी चर्चा ज़रूरी है। चीन की सेना हमारी लद्दाख सीमा पर एक साथ कई ऐसे इलाकों में घुस आई है जहां अभी तक दोनों देशों में से किसी की सेनाएँ नहीं थीं और नियंत्रण रेखा के साथ एक बफ्फर ज़ोन रहता था लेकिन अब इसके कई हिस्सों में चीन आगे आ गया है और दोनों देशों के सैन्य कमांडरों की वार्ताओं के कई दौर के बाद भी अभी तक चीनी सेनाएँ अभी तक पूरी तरह पीछे नहीं हटीं हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले वर्ष में सीमा पर तनाव कम होगा। वैसे हमारी सेना के जवानों पर हमें गर्व है जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी देश की सीमाओं को सुरक्षा दे रहे हैं और हमेशा देते रहेंगे लेकिन किसी भी देश से युद्ध की स्थिति ना ही बने, यही सबसे आदर्श स्थिति होती है।

इसी वर्ष प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने राम जन्म भूमि की नींव भी रखी और उसके कुछ ही हफ्तों बाद बाबरी मस्जिद ढहाने के सभी प्रमुख आरोपी बरी हो गए। इस हिसाब से देखें तो राम मंदिर के लिए 2020 बहुत अच्छा रहा। भारतीय समाज के हिसाब से देखें तो थोड़ी अलग तस्वीर बनती है क्योंकि  जिस तरह से राम मंदिर से जुड़े कार्यक्रमों में सरकारी भागीदारी देखी गई, वैसी भागीदारी पहले आम तौर पर एक धर्म निरपेक्ष व्यवस्था में असामान्य समझी जाती थी। कुछ लोगों को चाहे ये सही लगता हो कि अब अल्पसंख्यक संतुष्टिकरण नहीं हो रहा लेकिन चिंता की बात ये है कि कहीं हम धीरे-धीरे अपने पड़ोसी देशों (पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल आदि) की तरह ना हो जाएँ जहां उनके बहुसंख्यक धर्म की प्रमुखता को राज्य भी मान्यता देता है और अल्पसंख्यक फिर अपने आप दूसरे दर्जे के नागरिक बन जाते हैं। हमारे देश में भी अब ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं जिन्हें अल्पसंख्यकों के दूसरे दर्जे के नागरिक बन जाने में कोई गलत बात नहीं लगती लेकिन एक विकसित लोकतन्त्र में ना केवल यह अच्छा नहीं माना जाता बल्कि इससे समाज में जो विखंडन आता है, उसे गंभीरता से लिया जाता है। आने वाले वर्षों में ही इसका मूल्यांकन हो सकेगा कि देश में चल रही ऐसी प्रक्रियाओं से हिन्दू धर्म और हमारा देश कितना मज़बूत होगा।

हम कहना चाहेंगे कि देश, समाज और सरकार यदि पिछले वर्ष कोई भूलें हुईं हैं तो उनसे सबक ले और हमारी कामना है कि आने वाला वर्ष बेहतर हो और हम एक ऐसे समाज के निर्माण की तरफ बढ़ें जिसकी कल्पना हमारे स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान की गई थी यानि स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारा और न्याय जैसे मूल्यों पर आधारित समाज। 2021 के लिए उत्तरांचल पत्रिका पाठकों को ढेर सारी शुभ कामनाएँ।

Photo Credit – Kishan Ratnani

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