आज की बात
अंग्रेज़ी में एक कहावत है कि ‘सीज़र्स वाइफ़ मस्ट बी अबाव सस्पिशन’ (Caesar’s Wife Must Be Above Suspicion)! एलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन्स (EVMs) आज ‘सीज़र्स वाइफ़’ ही हैं। उन्हें शक़ से परे होना ही चाहिए।
भारत का चुनाव आयोग आज एक ऐसे मुकाम पर खड़ा है जहां से वह ना केवल अपनी साख बचा सकता है बल्कि उससे भी कहीं ज़्यादा वो भारतीय लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा को और ऊंचा कर सकता है। सच कहें तो चुनाव आयोग के पिछले कुछ निर्णय ऐसे रहे हैं जिनको लेकर उसकी निष्पक्षता पर ना केवल विपक्षी दलों ने बल्कि स्वतंत्र प्रेक्षकों ने भी चिंता ज़ाहिर की है। इसी क्रम में आयोग द्वारा प्रधानमंत्री पर बनी फिल्म पर चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक प्रतिबंध लगाकर उसने अपनी गिरती साख में कुछ विराम लगाया था जैसा कि हमने भी इस वैबसाइट पर ही अपने एक आलेख में कहा था।
फिलहाल इस आलेख में हम अपनी बात मोटे तौर पर ईवीएम पर ही केन्द्रित करते हैं। उसका कारण ये है कि यह लिखे जाने तक तीसरे फेज़ के चुनाव पूरे हो गए हैं और कल दिन में जैसे जैसे वोटिंग से संबन्धित खबरें आ रही थीं, वैसे वैसे साथ ही जगह जगह से ईवीएम में तकनीकी खराबियों की खबरें भी आ रही थीं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ईवीएम मशीनों को कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ा है और हमेशा ही उन्होने ये परीक्षा पास की है किन्तु इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आम लोगों के अच्छे-खासे हिस्से में अब ईवीएम को लेकर एक संदेह की स्थिति पैदा हो गई है। इस स्तंभकार को हाल ही में उत्तरप्रदेश की तीन लोकसभा सीटों पर वोटरों से खासतौर पर युवा मतदाताओं से मिलने का मौका मिला। आश्चर्य की बात है कि तीनों ही चुनाव-क्षेत्रों में ऐसा कहने वाले मतदाता मिल गए कि उन्हें ईवीएम पर भरोसा नहीं है।
हमारे विचार में ईवीएम के खिलाफ इस तरह का अविश्वास होना एक चिंताजनक स्थिति है। यह ना तो भारतीय लोकतन्त्र के लिए शुभ लक्षण है और ना ही भारत के चुनाव आयोग की निष्पक्षता दर्शाने के लिए कोई अच्छा विज्ञापन है। सच कहें तो व्यक्तिगत तौर पर इस स्तंभकार को भी ये बात गले नहीं उतरती कि ईवीएम में कोई ऐसी छेड़छाड़ की जा सकती हो जो चुनाव के नतीजों पर कोई प्रभाव डाल सके किन्तु इसके बावजूद हमारा यह स्पष्ट मत है कि इस संबंध में जो भी शक़-शुबह हैं, उन्हें जहां तक संभव हो दूर करना चुनाव आयोग की ज़िम्मेवारी है।
ईवीएम से जब से पर्ची बाहर आने की प्रक्रिया शुरू हुई है, जिसका नाम वीवीपीएटी (Voter Verifiable Paper Audit Trails – VVPAT) है, उसके आने के बाद वोटर को यह दिखता है कि उसने जो बटन दबाया, उसका वोट सही जगह गया। लेकिन उसे ये पर्ची मिलती नहीं बल्कि एक सीलबंद डिब्बे में चली जाती है। लेकिन दिक्कत तब हुई जब ट्रेनिंग या चुनाव प्रतिनिधियों के सामने होने वाले डेमोंस्ट्रेशन में कहीं कहीं ऐसे मामले सामने आए जब इस प्रक्रिया ने ठीक से काम नहीं किया और ऐसी खबरों ने (जो अपुष्ट और गलत हो सकती हैं) ईवीएम की विश्वसनीयता पर जो एक सहज भरोसा होना चाहिए था, उसको नुकसान पहुंचाया।
सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि अब एक मतदाता को यदि ऐसा लगे कि ईवीएम ने ठीक काम नहीं किया है तो उसके खिलाफ शिकायत करना एक बहुत जोखिम भरा काम हो गया है। अभी कल पूरे हुए चरण में असमी भाषा के प्रख्यात लेखक और पूर्व आईपीएस अधिकारी जो राज्य पुलिस के महानिदेशक भी रह चुके हैं, हरेकृष्ण डेका ने बताया कि उन्होने जिस उम्मीदवार को वोट दिया था, मशीन की पर्ची से उसका नाम नहीं बल्कि किसी अन्य उम्मीदवार का नाम निकला लेकिन जब उन्होने इसकी शिकायत करने की मंशा जताई तो पीठासीन अधिकारी ने चेतावनी दी कि यदि टेस्ट के दौरान मशीन में कमी नहीं पाई गई तो उनके खिलाफ एफ़आईआर दर्ज करवानी होगी और संशोधित हुए कानून के अनुसार उन्हें छ: महीने तक की सज़ा भी हो सकती है। इस बारे में जो प्रावधान हैं, उनके बारे में scroll.in के इस लेख में विस्तार से बताया गया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रावधान को सुनकर इन पूर्व अधिकारी और प्रतिष्ठित लेखक ने शिकायत करने का अपना इरादा बदल दिया।
कल हुए चुनाव में बीच बीच में ये खबरें भी आती रहीं कि जो भी मशीन तकनीकी तौर पर खराब होती है, उन सभी के गलत वोट भाजपा को ही जा रहे होते हैं। शिकायत करने पर एफ़आईआर का दर होता है। अब ऐसे में चुनाव आयोग यदि आँखें फेर कर पड़ा रहे तो कोई क्या कर सकता है, यह तो वही बात हुई कि मारूँगा भी और रोने भी नहीं दूंगा। हालांकि मैं अभी भी ये मानता हूँ कि ये सब एक संयोग ही होगा और ईवीएम ठीक ही गोवा लेकिन स्वाभाविक है कि यदि भाजपा के पक्ष ये सभी गलत वोट पड़ने की खबर आएगी तो इस तरह का अविश्वास तेज़ी से फैलेगा।
इस विषय में ईवीएम से निकली पर्चियों की गिनती करने की जो अभी प्रक्रिया है उसको सुधारने की मांग ज़ोर-शोर से उठ रही है। हाल ही में 73 भूतपूर्व ब्यूरोक्रैट्स ने पत्र लिखकर चुनाव आयोग से मांग की है कि मशीन से निकली इन पर्चियों की अच्छी प्रकार से गिनती हो। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी ने इसका यह समाधान दिया है कि दो हारे हुए प्रत्याशियों को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपनी मर्ज़ी की कोई भी दो मशीनें चुन कर उनके वोट वीवीपीएटी से मिलान कर ले और सुनिश्चित करे कि मतदान प्रक्रिया ठीक प्रकार सम्पन्न हुई है।
ईवीएम के मसले पर विभिन्न राजनैतिक दल एक बार फिर पुनर्विचार याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट पहुँच ही चुके हैं। ऑनलाइन पर भी ईवीएम का मसला काफी चल रहा है और कभी कभी स्पष्ट राजनीतिक रुझान वाले तो कभी स्वतंत्र चेता लोग भी ये महसूस कर रहे हैं कि ईवीएम से नहीं बल्कि पहले की तरह बैलेट पेपर से चुनाव होना चाहिए।
हमारा मानना वही है जो हमने लेख के पहले हिस्से में कहा कि ‘सीज़र्स की वाइफ़’ को संदेह से परे होना चाहिए उसी तरह लोकतन्त्र के इस इम्तिहान में ईवीएम का मसला है और यदि भारतीय लोकतन्त्र की साख बचनी है तो ईवीएम के मसले को जल्दी से सुलझाना चाहिए। एक स्वस्थ लोकतन्त्र की सबसे बड़ी पहचान ही यही है कि वहाँ के आम आदमी को भी लोकतन्त्र की प्रक्रियाओं में पूरा भरोसा होना चाहिए। यदि ये भरोसा खराब हो चुकी ईवीएम के कारण टूटता है तो यह बहुत ही दुर्भाग्य-पूर्ण होगा।
…विद्या भूषण अरोरा
पता नहीं क्यों ECI को इतने साल लग गए हैं इस गडबडी से निपटने में। जब टेक्नोलोजी proprietary है, EVM सील बंद है और वह connected भी नहीं है, ऐसे में इसकी hacking कैसे संभव है?
बैलट बाॅक्स पर लौटने के सुझाव पूरी तरह राजनीतिक हैं लेकिन जब तक EVM को पूरी तरह foolproof नहीं कर लिया जाता, प्रश्न तो उठेंगे ही।
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