चार राज्यों की विधान सभाओं के नतीजे हमारे सामने हैं। हिन्दी-बेल्ट के तीन राज्यों – राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के नज़रिए से इन्हें अप्रत्याशित बताया जा रहा है हालांकि भाजपा को भी इनमें इतनी बड़ी जीत की उम्मीद नहीं रही होगी। कांग्रेस की हार के कारणों का विश्लेषण पत्रकारों और राजनीतिक पंडितों द्वारा चल रहा है और सोशल मीडिया की सर्वव्यापकता के चलते कल दोपहर बाद से ही कुछ ना कुछ देखने-सुनने-पढ़ने को मिल रहा है। भाजपा की जीत में हमेशा ही की तरह प्रधानमंत्री मोदी के सबसे बड़ा फैक्टर होने के अलावा और भी बीसियों कारण गिनवाए जा रहे हैं जिनकी चर्चा यहाँ अनावश्यक है।
किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत कोई बहुत बड़ी बात नहीं होनी चाहिए और ऐसा माना जाना चाहिए कि सत्ता में दलों की अदला-बदली होती रहती है और होती रहनी चाहिए। किन्तु जब 2013 में भाजपा ने प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को अपना उम्मीदवार घोषित किया तो देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आ गया। इससे पहले जब भाजपा की ओर से अटल बिहारी वाजपेयी दो बार (तकनीकी तौर पर तीन बार) प्रधानमंत्री बने थे तो राजनीतिक विचारधाराओं के बीच ऐसा टकराव या ऐसा ध्रुवीकरण देखने को नहीं मिला था जैसा कि नरेंद्र मोदी के आने पर हुआ। एक ओर जहाँ भाजपा ने उन्हें गुजरात में ‘गुड गवर्नन्स’ या सुशासन के प्रणेता के रूप में प्रस्तुत किया वहीं विपक्ष ने उन्हें हिन्दुत्व की राजनीति का खलनायक बताने का प्रयास किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि विपक्ष के इस हमलात्मक रुख का लाभ भाजपा और नरेंद्र मोदी को ही मिला क्योंकि गुजरात के साथ-साथ पूरी हिन्दी-बेल्ट भी अब खुलकर हिन्दुत्व की राजनीति के पक्ष में खड़ी होने को तैयार थी। 2014 और 2019 के लोकसभा के चुनावों के अलावा समय-समय पर विधानसभाई चुनावों में भी यह बार-बार रेखांकित हुआ कि देश के इन राज्यों में (हिन्दी पट्टी के साथ-साथ गुजरात और महाराष्ट्र भी) भाजपा के इस ‘कॉकटेल’ को पूरी तरह अपना लिया है जिसमें ‘गुड गवर्नन्स’, लोक-लुभावन कल्याणकारी योजनाएं, महिलाओं को लुभाने के कार्यक्रम के साथ-साथ हिन्दुत्व का तड़का भी होता है। कल के चुनाव-परिणामों ने एक बार फिर से भाजपा की इस रणनीति पर पक्की मुहर लगा दी है।
इस बार यह मुहर लगना और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस बार इन चुनावों के एन पहले विपक्ष (मुख्यत: कांग्रेस) के हाथ जातीय जनगणना का मुद्दा लग गया था जिसे भुनाने का जमकर प्रयास हुआ और कई विशेषज्ञों ने इसे विधानसभाई चुनाव जीतने के लिए रामबाण माना। राहुल गांधी ने अपनी चुनावी रैलियों में इसे जमकर उठाया और सरकार पर यह आरोप भी लगाया कि वह जातीय जनगणना से बचना चाह रही है। स्वयं भाजपा के अंदर भी यह सुगबुगाहट होने लगी कि कहीं ये मुद्दा उन्हें चुनाव ना हरवा दे। लेकिन चुनाव-परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया कि जो भी ऐसा सोच रहे थे, वह प्रधानमंत्री मोदी की क्षमताओं को कम करके आंक रहे थे।
कल आए चुनाव-परिणामों को लेकर इस स्तंभकार की केवल एक ही चिंता है कि इस प्रकार के परिणामों से देश का लोकतंत्र (जो जैसा भी है और जैसा भी बचा है) कहीं और कमज़ोर तो नहीं होगा? “Power tends to corrupt and absolute power corrupts absolutely” – लॉर्ड एक्टन की यह सवा सौ साल से भी ज़्यादा पुरानी उक्ति शाश्वत सत्य है और इसलिए लोकतान्त्रिक मूल्यों का संरक्षण और संवर्धन चाहने वालों को तो निश्चित तौर पर सजग रहना होगा। यहाँ यह याद रखना आवश्यक है कि लोकतान्त्रिक मूल्यों को चुनौती कोई पहली बार नहीं मिल रही है बल्कि भारतीय राजनीति में इन्दिरा-युग के प्रादुर्भाव के साथ ही लोकतान्त्रिक मूल्यों को चुनौती मिलना शुरू हो गया था। यह केवल जून 1975 आपातकाल या एमरजेंसी की घोषणा से जुड़ी बात नहीं थी बल्कि अन्य अनेक अवसरों पर भी इन्दिरा-शासन के दौरान बहुधा मिलते रहते थे कि वह पंडित नेहरू जैसे अत्यंत उदारवादी और सोशल-डेमोक्रेट पिता की देख-रेख में पली-बढ़ी होने के बावजूद भी लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति कोई खास प्रतिबद्ध नहीं लगीं थीं। यदि लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता की ही बात करें तो 1985 से राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का जो कार्यकाल था, उसमें 1988 में मानहानि विधेयक लाया गया था जिसकी प्रेस ने एक स्वर में निन्दा की थी और भारी दबाव में राजीव सरकार ने उस कुख्यात बिल को वापिस ले लिया। नई पीढ़ी को यह सब ज्ञान होना चाहिए ताकि उन्हें पता चले कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी कीमती होती है। और साथ ही ये भी कि उसे बचाना कितना ज़रूरी!
कल आए विधानसभाई चुनावी नतीजों में भाजपा को जो अभूतपूर्व बढ़त दिलाई है, उससे केंद्र की राजनैतिक ताकत बढ़ी है। और जब सत्ताधारी दल की ताकत इस प्रकार से ताकत बढ़ती है तो उसके निरंकुश होने की आशंकाएं भी बढ़ने लगती हैं। यह इन्दिरा-युग में भी देखा गया है और किसी न किसी रूप में आज भी देखा जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट में पिछले कुछ दिनों से एक केस की सुनवाई हो रही है जिसमें केरल और तमिलनाडु की राज्य सरकारों ने शिकायत की है कि राज्यपाल विधायिकाओं द्वारा पारित किये गए बिलों पर महीनों से चुप होकर बैठे हुए हैं। यदि केंद्र में बहुमत से चुनी हुई सरकारें हैं तो राज्यों में भी हैं। केंद्र को यह अधिकार नहीं कि वह राज्यपालों के ज़रिए राज्यों की चुनी हुई सरकारों के संविधान प्रदत्त अधिकारों का हनन करे। इसलिए सशक्त एवं स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि केंद्र राज्यों को, खास तौर पर गैर-भाजपा दलों द्वारा शासित राज्यों को यह कदापि ऐसा महसूस ना होने दे कि केंद्र और राज्यों के बीच शासक और शासित का रिश्ता है।
क्या ही अच्छा हो कि भाजपा अपनी इस बढ़ी हुई ताकत का उपयोग लोकतंत्र संवर्धन और संरक्षण के लिए करे और कोई भी ऐसा काम ना करे जिससे लोकतान्त्रिक मूल्य और कमजोर होते हों और या फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई आंच आती हो। केंद्र एवं राज्य सरकारों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि देश में किसी भी कीमत पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ना बढ़ने पाए क्योंकि यदि इस ओर राजनीतिक दल और सरकारें सजग ना रहीं तो 2024 के चुनावों के पहले यह कहीं बेलगाम ना हो जाए। इसी तरह विपक्षी दलों को भी यह ध्यान रखना होगा कि जातीय जनगणना का मुद्दा उठाने के कारण कहीं जातीय वैमनस्य तो नहीं बढ़ रहा? कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा कि जिन पिछड़ी जातियों की आप मदद करना चाह रहे हैं, वो परस्पर वैमनस्य बढ़ने के कारण सामाजिक ताने-बाने से अलग छिटक रही हैं। इसलिए सभी को यह प्रयास करना होगा कि 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले समाज में आपसी सौहार्द ना बिगड़ने पाए।
यदि समाज में आपसी सौहार्द और विश्वास नहीं बिगड़ेगा तो निश्चित तौर पर हमारा लोकतंत्र मजबूत होगा और देश की एकता भी सुरक्षित रहेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि देश में स्वस्थ लोकतंत्र होगा और समाज में परस्पर सौहार्द होगा तो यह हमारी अर्थ-व्यवस्था के लिए भी अच्छा होगा और विश्व में भी हमारी प्रतिष्ठा बढ़ेगी।
विद्या भूषण अरोरा
Vidya Bhushan Arora