अहसास दोस्ती का और एहसान रिश्तेदारी का – दोस्ती और रिश्तेदारी पर एक पैनी निगाह

सुधीरेन्द्र शर्मा*

रिश्तेदारी का उद्गम कैसे और कब हुआ इस पर विचार करने से अच्छा तो यह है कि हम यह जांचें कि ‘यह कहाँ आ गए यूँ ही साथ-साथ चल के’।  जहाँ तक मुझे याद पड़ता है हमारा बचपन तो रिश्तेदारों के बीच ही बीता। रिश्तेदारी भी कई चरणों में पाई जाती है – खून से जुड़े रिश्ते तो चिरकाल तक कायम रहते हैं। दादा-दादी, नाना-नानी, भाई-बहन तो एकदम करीब होते हैं। और इन से जुड़े रिश्ते (चाचा-चाची, मामा-मामी, ताया-तायी) के परिवारों से भी एक स्तर का रिश्ता बन जाता है। एक मेरे मित्र सात भाई- बहन हैं और वो चुटकी ले कर कहते हैं कि उनको पारिवारिक फंक्शन्स में बाहर से किसी क़ो निमंत्रण देने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती।  अब यह अच्छा है या बुरा, यह तो वो जाने।

अपवादों को छोड़ दें तो अक्सर लोग रिश्तेदारों की शिकायतें करते ही सुने जाने जाते हैं। हर किसी के पास रिश्तेदारों के खिलाफ कुछ न कुछ तो  कहने को होता ही है। रिश्तों को अक्सर किसी-न-किसी ‘दोष’ की बदनामी झेलनी पड़ती है। शादी-विवाह में फूफा या मौसा की भूमिका पर इतने चुटकले बने हैं तो कुछ न कुछ तो आधार होगा ही। आजकल तो ऐसा होने लगा है कि यदि दो रिश्तेदारों में आपस में खूब छनती हो तो वह कहते हैं, हमारी रिश्तेदारी तो कहीं पीछे छूट गई, हम तो दोस्त हैं! तो क्या रिश्ते ‘बदबूदार’ होते जा रहे हैं? एक समय था जब फॅमिली फंक्शन में एक-दो दोस्तों से काम चल जाता था, अब तो एक-दो रिश्तेदार से ज्यादा की दरकार ही नहीं रहती।  आज के भौतिकतावादी युग में और एकल परिवार (nuclear family) के दौर में रिश्तों की इमारतों की नींव कमजोर तो हुईं हैं, और इसके ज़िम्मेदार हम सब हैं। इस्तेमाल करो और फेंको (use &throw) के युग में ‘रिश्ते’ भी क्या इसी सिद्धांत की भेंट चढ़ गए हैं? क्या इन्ही कारणों से ‘दोस्ती’ की खोज का मार्ग प्रशस्त हुआ है? क्या यह कहने की आवश्यकता है कि आजकल हम सभी ‘रिश्ते’ से अधिक ‘दोस्ती’ को महत्व देने लगे हैं?  कैसा है यह परिवर्तन? क्या इस परिवर्तन का स्वागत नहीं करना चाहिए?

समझाना मुश्किल है, लेकिन ‘दोस्ती’ बिना ‘शर्तों’ के एक ‘भावना’ है, जो सामाजिक दायित्वों और सीमाओं से अक्सर मुक्त रहती है। हमारी सांस्कृतिक परवरिश ऐसी रही है कि हम अक्सर ‘दोस्ती’ में भी कुछ अजीब ‘रिश्ते’ ढूंढ लेते हैं। कुछ समय पहले, (और बहुत सी जगहों पर आज भी) पड़ोसियों को ‘चाचा/चाची’ कहा जाता था, दोस्तों को ‘भैया/दीदी’ माना जाता था। यहाँ तक कि आप बाज़ार में खरीददारी करने जाएँ तो कोई ना कोई आपको अंकल कहने वाला मिल जाएगा या आप किसी को अंकल कह रहे होंगे! मुझे लगता है कि ऐसा करने में हमने अपनी ‘भावनाओं’ को किसी और के लिए आरक्षित कर दिया था, या हो सकता है कि हम सभी तरह के आपसी संबंधों को, आपसी व्यवहार को ‘रिश्ते’ की एक निश्चित पहचान देने पर आमदा हो जाते हैं। मुझे यकीन है कि समाज-मनोवैज्ञानिकों ने इस मुद्दे पर ज़रूर गौर किया होगा।

अब वैसे काफी कुछ बदलने भी लगा है। शायद इसलिए भी क्योंकि “एक के साथ एक मुफ़्त” (Buy one get one free) के दौर में एक ही जगह टिके रहना का किसे शौक है। जब हम कुछ समय में मोबाइल फ़ोन ही बदल लेते हैं तो फिर रिश्तेदार क्या चीज़ है। परिवर्तनशीलता के इस युग में बदलाव एक मानसिक व शारीरिक मजबूरी बनता लगता है।  रिश्तेदारी के मुकाबले मित्रता में तो ऐसी कोई बंदिश लागू ही नहीं होती,  ‘Expiry date’ तय करना अपने हाथ ही होता है।  इस के ज़िम्मेदार हम सब हैं, क्योंकि मैं और आप कहीं-न-कहीं रिश्तेदार भी हैं और मित्र भी।  क्या हम मित्र-दार बन कर रह सकते हैं, जिसमे मित्रता की ‘महक’ हो लेकिन रिश्तेदारी की ‘बदबू’ नहीं?

मनोवैज्ञानिक नज़र से देखें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि हम ने भावनाओं को केवल तीन तरह से देखा है – ‘खुश’, ‘दुःख’ और ‘क्रोध’ की दृष्टि से।  शायद शब्दों की कमी के कारण भावनाओं के नए मायने निकालना हमें आता ही नहीं। भाषा ही है जो हमें अनुभवों को समझने व अभिव्यक्त करने की शक्ति देती है। कभी इस बात पर ज़रूर ध्यान दें कि हमारा शब्दकोष कितना सिकुड़ता जा रहा है।  भावनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्द ही कहाँ हैं।  यही कारण है ‘भावनाओं’ में व्यवधान आने को सांसारिक भाषा में ‘ब्रेक-अप’ की संज्ञा दी जाती है।  ‘भावनाएं’ भी ‘विज्ञानं’ के शब्दकोष की भेंट चढ़ गईं।  

अनूठे शायर और गीतकार गुलज़ार ने इस पर एक बेहद खूबसूरत शायराना फलसफा सामने रखा है। उनके लिए दोस्ती ‘प्यार’ की ‘मौन’ भाषा है जो ‘सुनती’ भी है और ‘बोलती’ भी है। ‘भावनाओं’ को पकड़ने के लिए बस ‘receptors’ की जरूरत होती है। “सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई ‘नाम’ न दो”। मैं अक्सर अपने दोस्तों से कहता हूं कि यह ‘एहसास’ भर कि आप हैं और कहीं हैं, अपने आप में बहुत ‘कम्फरटिंग’ है, आश्वस्त करने वाला है। यहां तक कि किसी मित्र का ज़िक्र मात्र भी अलग-अलग ‘भावनाओं’ को उद्घाटित करता है, जिसमें हम खुद को कल्पना करते हुए देखते हैं – “मुस्कराहट-सी खिली रहती है आँखों में कहीं, और पलकों पे उजाले से छिपे रहते हैं”।

 ‘मौन’ दोस्तों के बीच संचार की भाषा है, शायद रिश्तेदारी में यह भाषा नहीं चलती क्योंकि वहां तो ‘शिकायत’ एक माध्यम रहता है बातचीत का। इसी कारण ऐसी भावनाओं की कोई जगह ही नहीं रहती – “होंठ कुछ कहते नहीं, कांपते होंठों पे मगर, कितने खामोश से अफ़साने रुके रहते हैं”। मेरे लिए ‘मौन’ का एहसास अपने आप में गहरा है। मैं अक्सर अपने कुछ दोस्तों को यह संदेश भेजता हूं: क्या मैं आपकी आवाज सुन सकता हूं? संगीतकार सचिन देव बर्मन देर रात किशोर कुमार को बिना कारण फ़ोन करते थे यह कहते हुए कि ‘तुम्हारी आवाज़ सुनना चाहता था’, बाकी सब ‘मौन’।  फिल्म ‘खामोशी’ (1969) से हेमंत कुमार की अद्भुत रचना पर गुलज़ार के इस भावनात्मक-विचारशील कल्पना का आनंद लें।

“हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू” – 1969 में आई फिल्म खामोशी का वहीदा रहमान पर फिल्माया गया यह मधुर गीत लता मंगेशकर ने गाया है। लिंक – https://youtu.be/doPtBhDTpj0

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*सुधीरेन्द्र शर्मा मूलत: पत्रकार हैं किन्तु बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी हैं। जे.एन.यू. से पर्यावरण विज्ञान में पीएचडी तो बरसों पहले पूरी कर ली किन्तु कहते हैं कि “पर्यावरण को समझने अब लगा हूँ – वो भी संगीत के माध्यम से”! संगीत वैसे इन्हें बचपन से ही प्रिय है। फिल्म-संगीत में भी फ़िलॉसफी खोज लेते हैं। इस वेब-पत्रिका में फिल्म-संगीत में छिपी जीवन की गहरी बातों के बारे में आप तान-तरंग नामक केटेगरी में कई लेख पढ़ सकते हैं। पिछले कई वर्षों से गहन विषयों पर लिखी पुस्तकों के गंभीर समीक्षक के रूप में अपनी खासी पहचान बनाई है। इनकी लिखी समीक्षाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं जिन्हें वह अपने ब्लॉग में संकलित कर लेते हैं।  

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