काल की चपेट – दार्शनिक सिद्धांतों की व्याख्या-शृंखला का छठा लेख

डॉ मधु कपूर*

काल का व्यक्तित्व बहु आयामी है। हमारी हर क्रिया में काल कहीं  न कहीं  नेपथ्य में  छिपा रहता है। कोई कहता है यह नित्य अपरिवर्तनीय, निरपेक्ष है। कोई कहता है यह अनित्य, क्षणिक है, कोई कहता है सापेक्ष है, कोई कहता है इसका अस्तित्व ही नहीं है। हम एक अजीब सी उलझी हुई पहेली में फंसते जाते है लेकिन इसके बीच से ही रास्ता भी हमे ही तलाश करना  पड़ता है।  दार्शनिकों  और वैज्ञानिकों के बीच जारी इस बहस में पथ खोजना ही इस लेख का उद्देश्य है। डॉ मधु कपूर का दार्शनिक सिद्धांतों पर यह छटा लेख है। पहला था “मैं कहता आँखिन देखी” और दूसरा “कालः पचतीति वार्ता” – इन दोनों में उन्होंने अत्यंत रोचक ढंग से कुछ जटिल लगने वाले दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। उसी कड़ी में उनके तीसरे लेख “रस गगन गुफा में”ने हमें रसास्वादन के विभिन्न पहलुओं के बारे परिचित कराया था। अपने चौथे लेख “अस्ति―अस्तित्व का झिंझोड़” में उन्होंने ‘अस्तित्व’ जैसे आधारभूत दार्शनिक विषय को हमारे लिए सरल बनाकर प्रस्तुत किया था। अपने पांचवें लेख “नास्ति की खुन्नस” में वह वह प्रतिपादित करती हैं कि अस्ति और नास्ति का रिश्ता ही कुछ ऐसा है कि एक के बिना दूसरा अर्थहीन हो उठता है। आज का लेख काल के विभिन्न आयामों पर है। आइए, विस्तार से पढिए।

‘अरे! तू इतना बड़ा हो गया’ अचानक मेरे मुंह से निकल गया। करीब पचीस साल बाद मैं उसे देख रही थी। गुजरे सालों में जो क्रमबद्ध परिवर्तन उसमे हुआ उसका साक्षी कौन है? यह परिवर्तन होते किसने देखा? फ़िलहाल किसी ने नहीं। सोते-जागते, उठते-बैठते हम तो बस अनुभव में देखते है कुछ घटनाएँ, जीवन–मृत्यु, दिन–रात, सूरज का निकलना-अस्त होना, मौसम का बदलना और शैशव से वृद्धावस्था तक पहुंचना इत्यादि। ‘हो गया’, ‘हो चुका है’, ‘हो रहा है’, ‘होता है’, ‘होने वाला है’, ‘होगा’ इत्यादि क्रियाओं का  प्रयोग हम भाषा में हमेशा करते हैं। पर सोचती हूँ कोई तो इनका नियामक होगा? शास्त्र  इस नियामक को ‘ऋत’ नाम देते हैं, और इस उत्तर में ही काल की अवधारणा का गहरा संकेत भी मिल जाता है।

दो घटनाओं या क्रियाओं के अन्तराल को हम काल कहते हैं। ‘काल’ शब्द ‘कल’ धातु से निष्पन्न होकर ‘आवाज़ करना’ और ‘गणना करना’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है। पर काल को किसी ने क्या देखा है? घडी की टिक-टिक, हमारे प्राणों  की अदृश्य धड़कन हमें आगाह कर देती है कि काल है,  जिसका सम्बन्ध  क्रिया से है, पर हम क्या उसे देख पाते है? हम देखते हैं घटनाओं को, पर इस रंगमंच के परदे के पीछे  क्या हो रहा है, हम नहीं जान पाते है। बौद्ध आचार्य नागार्जुन तो काल का पारमार्थिक अस्तित्व ही नकार देते हैं और उसे ‘स्वभाव शून्य’ करार कर देते हैं। इस प्रश्न पर हम इस लेख के अगले हिस्से में चर्चा करेंगे। अभी हम अपने अनुभव को आधार बनाकर आगे बढ़ेगे कि घटनाएँ घट रही है।

सवाल  है कि सृष्टि का  आरम्भ तो काल में ही घटित हुआ होगा? वैज्ञानिक मानते हैं कि ‘महाविस्फोट’ (बिग बैंग) ही ब्रह्मांड और काल दोनों का मूलस्रोत हैं।  नासदीय सूक्त के उद्गाता ऋषि, महाशून्य की अवस्था से ब्रह्मांड के आने तक जो करोड़ों वर्ष बीते हैं, उसका लेखा-जोखा करके काल का अनुमान करते हैं, क्योंकि निरपेक्ष काल को प्रत्यक्ष करना सम्भव नहीं है। हम जिस काल की बात करते है वह खंडित क्षण, मुहूर्त, महीने, ऋतुओं, संवत्सर आदि में विभक्त होता है।

 अंकशास्त्र की कक्षा में हमने कभी पढ़ा था कि संख्या, रेखा और  त्रिभुज की कोई भौतिक सत्ता नहीं होती हैं उनकी वैचारिक प्रतिपत्ति स्वीकार करके हम ‘चार संतरे’, ‘सीधी रेखा में चले जाइये, अमुक गाँव मिल जायेगा’ इत्यादि प्रयोग करते है।  ठीक इसी तरह काल समस्त घटनाओं का नियंत्रक है, पर काल कोई खाली बर्तन नहीं है जिसमे पानी उबलने की तरह घटनाएँ घटती है। काल को जानने के लिए क्रम-दर्शन को जानने की आवश्यकता है। क्रम वस्तुत: क्रिया शक्ति ही है, जैसे  ‘देखो, कोई दौड़ रहा है’  और ‘इसके बाद तुम्हारी बारी हैं’ ‘माँ, खाना पका रही है’ इत्यादि। हमारा वाक्-व्यवहार भी  काल सापेक्ष है। किसी वाक्य के सभी शब्द एक साथ उच्चरित नहीं होते है, उनका उच्चारण क्रम से होता है। यह क्रम नेपथ्य में काल सापेक्ष है। जिस तरह गतिमान पिंड, ग्रह, नक्षत्र हमें  अंतरिक्ष की सत्ता का आभास देते हैं, वैसे ही  चराचर जगत में जो कुछ परिवर्तन होता है, काल  उसका साक्षी होता है। जैसे आंखे साक्षी होती है बाहरी घटनाओं की, पर आंखे स्वयं की साक्षी नहीं हो सकती, वैसे ही काल का भी साक्षी कोई नहीं है।

कहा जा सकता है कि काल का बोध मानवीय बोध के साथ ही जन्मा है, हम काल-दिक् के चश्मे पहन कर ही जन्मते हैं कर्ण के कवच-कुंडल की तरह, जिन्हें हम अपने से पृथक नहीं कर सकते है।  काल को यद्यपि  निरपेक्ष और अपरिवर्तनशील सत्ता कहा जाता है किन्तु अपनी दो शक्तियों से काल सभी प्राणियों को  धागे से बंधे हुए पक्षी की तरह रखता है। जब  धागा ढीला छोड़ता  हैं तो  पक्षी आकाश में उड़ने लगता है और जब धागा समेट लेता हैं तो पक्षी वापस आ जाता हैं। इस प्रकार काल को प्राणियों के जन्म, वृद्धि, क्षय और विनाश जैसे परिवर्तनों का कारण कहा जाता है। वसंत के मौसम में पेड़ों की अंकुरण शक्तियाँ काम में आती हैं, जब उनमें नये फूल और पत्ते आते है। पतझड़ में विनाशकारी शक्ति सक्रिय हो जाती है और पेड़-पौधे अपने पत्ते गिराकर सूख जाते हैं। काल  एक है लेकिन कार्यों में अंतर के कारण इसे वसंत, शरद और ग्रीष्म आदि के रूप में हम विभाजित कर देते है।  जैसे  एक ही व्यक्ति को कभी बढ़ई , कभी राजमिस्त्री और कभी लोहार आदि के रूप में पुकारते  है, वैसे ही काल एक ही है, पर उसे हम विभिन्न नामों से पुकारते है।

यदि काल थम जाय तो क्या होगा? संसार में गतिविधियों का कोई क्रम नहीं रहेगा। भर्तृहरि कहते हैं कि समय एक माप है, एक आयाम है जो गतिविधियों या क्रियाओं को अलग करता है। जिस प्रकार नैकट्य और दूरत्व का सम्बन्ध व्यक्ति और स्थान से होता है जहाँ पर वह रहता है, जबकि स्थान में ऐसा कोई गुण नहीं होता हैं जिससे हम दूरत्व या निकटत्व का एहसास कर सके, वह तो व्यक्ति की स्थान-उपस्थिति के ऊपर निर्भर करता है। इसी तरह द्रुत गति और बिलम्बित गति, भूत, वर्तमान और भविष्य सभी काल की उपाधियां है, जो हम काल पर आरोपित करते है।

सबसे महत्त्वपूर्ण धारणा “वर्तमान काल” की जिसमे हम प्रति मुहूर्त रहते है, लेकिन जो क्षणभंगुर है, क्योंकि हम जिसे वर्तमान के रूप मे देखते है वह हमारे पूर्ण रूप से समझने के पहले ही क्रमशः भूतकाल में मिल जाता है। वर्तमान में जो कुछ घटित हो रहा है उस पर निरंतर हमारे भूत और भविष्य का आधिपत्य चलता रहता है। क्षणभर में वर्तमान अतीत में चला जाता है और हम भविष्य की ओर झांकने लगते हैं। जैसे एक चलती गाडी से, जो वर्तमान है,  बैठ कर देखे तो कुछ दृश्य पीछे छूटते जाते है, जो भूतकाल है, कुछ  सामने आने वाले होते है, जो  भविष्य है। पर वर्तमान तो ठहरता हुआ  दिखाई नहीं देता है। कुछ दार्शनिक मानते है कि वर्तमान की सहायता से ही काल अनंत भूतकाल से अनंत भविष्य की ओर अग्रसर होता है.

मृत्यु तथा आकस्मिक रूप से आ धमकने वाली आपदाओं ने ही समय के प्रति हमारे मन में डर को भी जन्म दिया था, और हमने उसे मृत्यु, नियति आदि तक की संज्ञा दे डाली। अमरत्व की कल्पना करने का शायद यही आशय होगा।  कुल मिलाकर काल  एक पहेली के रूप में हमारे सामने आता है।  मैत्रेय्युपनिषद में ऋषि दिक्-काल को एक ही साथ वर्णित करके उनसे मुक्त होने की घोषणा करता है―

कहाँ है वह बिन्दु, जिस पर मैं टिकूँ?

कहाँ वह रेखा, जिस पर मै चलूँ ?

कहाँ वह क्षण, जिस पर  मैं रुकूँ ?

वह क्षण छूटा,जहाँ मै खड़ा था

वह परिचय कहाँ ? वह धारा कहाँ?

शून्य कभी दर्शन था,

अब गणित हो गया है.

झूले पर झूलता वर्तमान

भविष्य की चिंता मत करो, अतीत को भूल जाओ ‘बीत गई सो बात गई’ इत्यादि वाक्य आये दिन कानों में मधु मिश्री घोलते रहते हैं। बचता है वर्तमान उसमें जिओ, बस इसी क्षण में जिओ, अगले क्षण क्या होगा कोई नहीं जानता, भरपूर जिओ, उधार लेकर जिओ ― यही है आज का मूलमन्त्र जिसका समर्थन प्रतिदिन घटती घटनाओं के द्बारा और बच्चों की नसीहतों से मिलता रहता है। हम पहले ही देख चुके है कि काल की धारणा क्रिया के द्बारा ही निर्धारित होती हैं, एवं काल अनुमेय है।  वर्तमान काल की उसमें अहम भूमिका होती है। यह वह बिंदु है जो भूत और भविष्य को जोड़ता है।  पाणिनि ने अष्टाध्यायी में वर्तमान की परिभाषा ‘प्रारब्धपरिसमाप्तम्’ से दी है, जिसका अर्थ हुआ– इप्सित  कार्य की उत्पत्ति से लेकर अंत तक का समय “वर्तमान” कहलाता है, लेकिन यह काल क्षणभंगुर होता है। हम जिसे वर्तमानकाल, अभी, ‘अब’ ‘इसी वक्त’ के रूप मे देखते है, वह हमारे समझने के पहले ही क्रमशः भूतकाल में चला जाता है, और भविष्य की ओर निहारता है। वर्तमान में जो कुछ घटित हो रहा है, उस पर निरंतर भूत और भविष्य की घुसपैठ बनी रहती है। ‘पेड़ से पत्ता अलग होने के पूर्व की अवस्था और टूटने के बाद जमीन पर गिर जाने की अवस्था के बीच एक और अवस्था है जिसे हम ‘गिर रहा है’ (पतति) कहते है, वह प्रत्यक्षगम्य नहीं है। जमीन से संयुक्त होना और डाल से वियुक्त होना हम देख सकते है, पर वियुक्त होने की क्रिया अगोचर रह जाती है। पतंजलि एक दृष्टान्त के द्बारा वर्तमान की सत्ता के निषेध के पक्ष में तर्क देते है―

“हे! कौवे, तुम न तो भविष्य में उड़कर जा सकते हो, न ही अतीत से आ सकते हो, यहाँ तक कि तुम वर्तमान में भी नहीं उड़ सकते हो, तुम तो बस एक बिंदु पर अटके बैठे हो। फिर भी यदि तुम्हें अहंकार  है कि तुम उड़ते हो’ तो हिमालय ने क्या दोष किया है जो उसे हम स्थिर कहते है, वह भी उड़ता है.”  केवल एक क्षण, जो स्थिर है उसे हम वर्तमान कहते है, लेकिन वह क्षण भी तो स्थिर ही है। काल के प्रति क्षण में  एक-एक विशेष स्थान पर कौवा गतिहीन ही बना रहता है। ‘उड़ना’ क्रिया किसी हालत में संपन्न नहीं हो सकती। अर्थात वर्तमान काल निवर्तमान हो जाता है, फलस्वरूप ‘भूत’ और ‘भविष्यत्’ काल का भी अस्तित्व समाप्त हो जाता। सिद्धान्ततः काल का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है।

नागार्जुन ने यूँ ही काल के पारमार्थिक अस्तित्व को नहीं नकारा है, वे उसे ‘स्वभाव शून्य’ मानते हैं! अर्थात काल अतीत, वर्तमान और भविष्य से रहित है। तबले पर जब हाथों की थाप पड़ती है तो कभी द्रुत और कभी  बिलम्बित गति से बोलों की उत्पत्ति होने लगती है। तबला और हाथ दोनों ही काल की काल की उपाधियां मात्र है, बिना इनके काल लय के रूप में अपना खेल नहीं खेल सकता है। तात्पर्य है कि हमने अपनी व्यावहारिक उपयोगिता के लिए काल को एक काल्पनिक सत्ता मान कर मात्रा, गणना, मुहूर्त, घंटा, दिन-रात, महीना इत्यादि में विभाजित कर रखा है।

प्रश्न है कि तथाकथित निरपेक्ष काल यदि थम जाय तो क्या होगा? संसार गतिहीन, क्रियाहीन क्रमहीन हो जायेगा। इस गतिहीन जगत का न तो तो कोई भविष्य होगा, ना ही कोई अतीत। अब हमारे सामने दो ही विकल्प बचते है― या तो ‘नित्य वर्तमान काल’ की सत्ता होगी अथवा वर्तमान काल  की सत्ता का संपूर्णतः निषेध हो जायेगा। पहला विकल्प क्रियाहीन ‘नित्य वर्तमान’ की अवस्था स्वीकार करने पर कोई भूत और भविष्य नहीं होगा। इस सम्भावना में कुछ दम नज़र आता है। चलती ट्रेन में जो स्थान पीछे छूटता जाता है, वह स्थान दिखाई नहीं देता है और इसी तरह जो आगे आने वाला है, वह भी दिखाई नहीं देता है। लेकिन यदि काफी ऊंचाई से देखा जाय तो सभी स्थान एक साथ दिखाई देने लगते है। आप कल्पना करें कि आप इतनी ऊंचाई पर खड़े हो जहाँ से सारी पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, अन्तरिक्ष सब कुछ देख पा रहे हैं, तो निश्चित ही आप नित्य वर्तमान काल में जी रहे है। किताब यदि एक ही पृष्ठ में सम्पूर्ण समाहित हो जाती तो क्रम से पन्ने उलटने का कोई मतलब नहीं रह जाता। पूरी किताब आप एक नज़र में देख पाते, पढ़ लेते, क्योंकि किताब में पन्नों की क्रमहीनता है। मानो एक ही थाली में तथाकथित भूत और भविष्य एक साथ परोस दिए गए है। कोई काल विभाजन का अवसर ही नहीं है। लेकिन ऐसा होना मानवीय क्षमता की सीमितताओं के कारण संभव नहीं हो सकता है। यह एक का चिंतन-प्रयोग मात्र है।

दूसरा विकल्प यानि वर्तमान का सम्पूर्ण निषेध करना ही मेरा मूल उद्देश्य रह गया है। गहरी नींद में अथवा दीर्घ अचेतन की अवस्था में वर्तमान का अस्तित्व नहीं रह जाता है।  नींद से उठने के बाद घडी, कैलेण्डर, अखबार देखने से पता चलता कि कितना समय बीत गया, आज कौन सा दिन है इत्यादि। समाधि अवस्था में पहुँचे हुए लोगों के लिए, कल्प-विज्ञान के लेखकों के लिए काल में विचरण करना सहज हो जाता है, वे अतीत और भविष्य में समान रूप से घूम सकते है। इस तरह कहा जा सकता है काल का आधार मनुष्य है, मनुष्य का आधार काल नहीं है।   

इन्हीं चुनौतियों से प्रेरित होकर आइंस्टाइन ने सापेक्षता के सिद्धांत से समय को चौथा आयाम दिया और हमें एक नई जगत-दृष्टि दी। मान लिया जाय कि किसी व्यक्ति पर खून के इल्जाम पर कोर्ट में केस चलता है, पर बचाब पक्ष का वकील सिर्फ इतना प्रमाण कर दे कि वह खून की घटना के समय किसी अन्य स्थान पर था बस वह निर्दोष साबित हो जायेगा। क्या इसी तरह तकनीकी कौशल से हम दिन में रात और रात में दिन होने का एहसास करा सकते हैं? कितनी ही कोशिशों के बाबजूद किसी वस्तु  की ‘निरपेक्ष’ गति (absolute speed) तथा ‘निरपेक्ष’ गति का बढ़ना-घटना (absolute acceleration) प्रमाणित नहीं किया जा सका है। किसी न किसी वस्तु को लक्ष्य बना कर ही ऐसा संभव हो सकता है। उदाहरण के लिए ‘राम अपने मित्र श्याम से तेज दौड़ता है’ – यहाँ ‘राम’ का तेज दौड़ना ‘श्याम’ पर निर्भर करता है। बिना किसी सापेक्ष सत्ता के ‘निरपेक्ष तेज दौड़ने’ का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। जैसे ही कोई कहता है, ‘राम तेज दौड़ता है’ तो प्रश्न उठता है –किससे? काल की निरपेक्षता को नकारने की एक ही मान्यता  है कि गतिमान वस्तुएं एक-दूसरे के सापेक्ष होती है। वस्तु की निरपेक्ष सत्ता जानना संभव नहीं हो सकता है। जिसे हम दूरत्व या निकटत्व कहते वह किसी वस्तु विशेष के सन्दर्भ में कही जाती है, अन्यथा दूर और निकट कहने का कोई औचित्य नहीं है।

काल को समझने के दो ही उपाय है, पहला, काल एक अनंत निरपेक्ष इकाई रूप में तथा (पिछले परिच्छेद में देख चुके है) दूसरा, काल को अणु-खण्डों में बाँट कर। अणु-खण्डों में बाँटने से क्रिया असंभव हो जायेगी, क्योंकि ये टुकड़े परस्पर विच्छिन्न ही तैरते रहेंगे, इनका तालमेल कैसे बैठेगा? अतः काल असत हो जायेगा। क्रिया हमें यह विश्वास करने के लिए बाध्य करती है कि काल निरंतर हैं और अपरिवर्तित है। अरस्तू ठीक इसी स्वर में स्वर मिला कर कहते है कि काल का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योकि अतीत तो कहीं टिक नहीं सकता, उसकी सत्ता क्यों माने और भविष्य तो आया ही नहीं है, वह भी काल का अंश नहीं हो सकता है। ले दे कर बचता है वर्तमान जो छुरी की धार की तरह है जिसमे कोई मोटाई नहीं है। (मुझे अप्रासंगिक रूप से याद आ रहा उपनिषद की वाणी, ‘क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गम पथः…’,)। वर्तमान तो सिर्फ भूत और भविष्य से सापेक्ष होकर रह सकता हैं पर जब भूत और भविष्य ही नहीं है तो वर्तमान की क्या हैसियत है रहने की? अतः वर्तमान का भी कोई अस्तित्व नहीं है।

 आइंस्टीन, अपने मित्र बेस्सो की विधवा को यह कह कर सांत्वना देते है कि――

 ‘बेस्सो एक अर्थ में यहीं है क्योंकि अतीत, वर्तमान और भविष्य एक ही धरातल पर है। बेस्सो चला गया यह नहीं कह सकते है क्योंकि अतीत भी उसी धरातल पर है जिस पर वर्तमान है, भविष्य भी इसी धरातल पर है, यानि तीनों का सहवस्थान है। जिसको हम कहते है ‘घटना घट रही है’ वह वास्तव में इसी वस्तु जगत में है, वह यही है, घट नहीं रही है’, वह सिर्फ है।

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*डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, “दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।“ डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुई है। इस वेब पत्रिका में प्रकाशित उनके अन्य लेखों के लिंक आप इस लेख के प्रारम्भिक पैरा में देख सकते हैं।

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4 COMMENTS

  1. बहुत सुंदर चिंतनशील रचना, जो व्यक्ति को इस सत्यता से परिचित कराती हैं कि “Everything is destined in this world” , वर्तमान में प्रत्यक्ष होती हैं तथा भूत और भविष्य में अप्रत्यक्ष होती हैं लेकिन अस्तित्व ” हैं “, केवल हमारी स्थूल दृष्टि से परे हैं इसीलिए जो सूक्ष्म धरातल पर बिराज करते हैं उनके लिए भूत भविष्य वर्तमान सब एकाकार हो जाता हैं, फिर भी काल की गति को रोकने की छमता किसी मे भी नहीं हैं स्वयं सृष्टिकर्ता में भी नहीं हैं क्योंकि कालचक्र के श्रष्टा वह स्वयं हैं। इसीलिए स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति कभी विचलित नहीं होते हैं।
    लेखिका का बहुत बहुत शुक्रिया जो पाठकों की चिंतनशीलता को एक उच्च स्तर पर सोचने को बाध्य करती हैं और रोजमर्रा की आपाधापी की अस्थिरता को स्थिरता प्रदान करती हैं और सिखाती हैं ” चिंता नहीं चिंतन करो” । मेरा सादर नमन लेखिका जी को और प्रार्थना करती हूं इसी प्रकार हमारा पथ प्रदर्शन भविष्य मे भी करती रहें।

  2. शुक्रिया ।शशिजी । आप vet surgeon होकर विषय को गंभीरता से लेती है। आपकी समझ की प्रशंसक हूं मैं। अन्यथा मुझे लगता है लोगो के सिर के ऊपर से छलांग लगा कर कहीं न निकल जाए !!

  3. काल सी हाथों से लगातार फिसल जाती धारणा के कितने सुंदर स्नैपशॉट आपने खींच कर हमारे जैसे आम पाठक के सामने फैला दिए! फिलॉसफी कितनी रोचक बना दी आपने।

    • शुक्रिया राजेंद्र भाई. सचमुच रोचक है तो मेरा मगज मारना सार्थक हुआ. स्नैपशॉट (चित्रात्मक आपसे उधार लिया हुआ शब्द) ही तो उद्देश्य है वर्ना मेरी क्या मजाल.

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