उर्वशी के बहाने – दिनकर का उनकी पचासवीं पुण्य-तिथि पर स्मरण

राजेन्द्र भट्ट*

‘जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध’ – रामधारी सिंह दिनकर की यह कालजयी चेतावनी समर से मुंह छिपाए, सुविधाजीवी वर्ग को आज भी आईने की तेज चमक दिखा सकती है – असहज और लज्जित भी सकती है। बीसवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य के इस अग्रणी ओजस्वी कवि की आज (24 अप्रैल) पचासवीं पुण्यतिथि है। इस वेब-पत्रिका के नियमित लेखक राजेन्द्र भट्ट से हाल ही में दिनकर जी के काव्य-संसार पर चर्चा हो रही थी तो उन्होंने बताया कि हाल ही में दिनकर की ज्ञानपीठ से पुरस्कृत रचना (काव्य-नाटक) ‘उर्वशी’ को उन्होंने पढ़ा तो उनके सामने दिनकर के व्यक्तित्व के कुछ नए आयाम आए। ऐसी कालजयी रचनाएं कभी पुरानी नहीं होती, ऐसा सोचकर हमने उनसे अनुरोध किया कि वह उर्वशी पर अपनी टिप्पणी हमें लिख भेजें तो उन्होंने हमारा अनुरोध स्वीकार कर लिया। आइए, पढ़ते हैं ‘उर्वशी’ के बारे में जिसे राजेन्द्र ने ‘धरती से स्वर्ग तक आलोकित प्रणय-गाथा’ कहा है!

उर्वशी – धरती से स्वर्ग तक आलोकित प्रणय-गाथा

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (23 सितंबर 1908 -24 अप्रैल 1974) की आज पचासवीं पुण्यतिथि है। दिनकर जी की साहित्यिक यात्रा 1928 में ‘विजय संदेश’ से शुरू हुई। उसके बाद तो, 1974 में निधन तक दिनकर जी ने विपुल गद्य और पद्य साहित्य रचा जिसमें 40 काव्य और 25 से अधिक गद्य पुस्तकें हैं।

दिनकर जी की कविता का मुख्य स्वर देश-प्रेम की उत्कट भावना, भारत की साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा को आत्म-गौरव और आत्म-निरीक्षण का है। उनकी कविताओं ने जहां   स्वतन्त्रता-सेनानियों को प्रेरणा और उत्साह दिया,  वहीं आज़ादी के बाद भी व्यवस्था और सत्ता की विकृतियों के खिलाफ युवा-जनों का आह्वान किया। गांधीजी के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आंदोलन को बल देने के साथ, उन्होंने सामाजिक समानता की वाहक के रूप में समाजवादी क्रांति के भी गीत गाए।

दिनकर जी का एक और महत्वपूर्ण योगदान था –  भारत के प्राचीन ग्रन्थों, खास कर ‘महाभारत’  और इतिहास को नई दृष्टि से देख कर, उनमें से आधुनिक, ओजस्वी चरित्रों और स्वरों को वाणी देना – उन्हें नए संदर्भों में स्थापित करना।  दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद लिखी उनकी रचना ‘कुरुक्षेत्र’ युद्ध की व्यर्थता के साथ-साथ, उन सामाजिक अन्यायों और विषमताओं पर भी अंगुली उठाती है, जिनकी अनदेखी कर झूठी शांति की बात कवि   को महज धूर्तता लगती है।

 ‘रश्मिरथी’ में दिनकर  ने सामाजिक अन्याय के विरुद्ध धीर-वीर कर्ण के संघर्ष को प्रस्तुत किया। ‘दिल्ली’ जैसी उनकी अनेक कविताओं में जहां भारत के प्राचीन गौरव का गुण-गान है, वहीं स्वतंत्रता के बाद  भारत की राजनीति की फिसलनों और संवेदनहीनता  के खिलाफ गहरा आक्रोश और चेतावनी भी है। रेणुका, हुंकार, रसवंती, सामधेनी, बापू, नीलकुसुम, परशुराम की प्रतीक्षा  उनकी अन्य प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं। अपनी गंभीर, विद्वतापूर्ण गद्य-रचनाओं – खास तौर से ‘संस्कृति के चार अध्याय’  में दिनकर जी ने भारत की बुनियादी सामाजिक-सांस्कृतिक एकता और समन्वय के सूत्र तलाशे हैं। इस पुस्तक की भूमिका ‘भारत की खोज’ करने वाले, भारत का मर्म समझने वाले बौद्धिक नायक पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी।

दिनकर का लेखन बाहर की दुनिया  और समाज की चुनौतियों, देश की आज़ादी, समाज की विकृतियों और असमानताओं के खिलाफ प्रगतिशील संघर्ष का लेखन रहा। इसीलिए उन्हें राष्ट्रकवि भी कहा गया। मन की कोमल भावनाओं, प्रेम-श्रंगार में उनका मन कम  रमा। उनकी ये पंक्तियाँ – उनके काव्य के मूल-स्वर को बखूबी बयान करती है –

अमृत-गीत तुम रचो कलानिधि !

बुनो कल्पना की जाली,

तिमिर-ज्योति की समर भूमि का

मैं चारणमैं वैताली !

उनकी घोषणा है कि वह मधुर कल्पनाओं के कलानिधि कवि नहीं हैं, समर-भूमि के वैतालिक हैं। लेकिन, उम्र का पचासवाँ पड़ाव पार कर लेने और ओजस्विता के प्रतिमान बना लेने के बाद, कवि का प्रणय  के मंद्र स्वरों पर अंगुलियाँ चलाना सभी को चमत्कृत कर गया – वह भी इतने अनुराग, इतनी निपुणता के साथ। 1961 में रचे उर्वशी काव्य  के साथ कवि ने – एकदम दूसरी ही दिशा में ज़मीन तलाशी। उन्होंने प्रणय, भोग, काम और प्रेम के उत्तुंग शिखरों और असीम  गहराइयों  – दोनों दिशाओं में यात्रा की। इस रचना में, दिनकर जी की भाषा, भाव, भंगिमा – सब कुछ बदली हुई है और  मनो-जगत के कोमलतम पक्षों को समझाती है।  ‘उर्वशी’ के लिए कवि को 1972 में भारतीय भाषाओं के साहित्य का प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार’ भी  प्रदान किया गया।    

‘उर्वशी’ काव्य-नाटक है। कवि ने इसमें पुरूरुवा और उर्वशी के वैदिक-पौराणिक आख्यान को आधार बनाया है। पुरूरुवा प्रतिष्ठानपुर का नरेश है – पौरुष और ओज से सम्पन्न।  उसके प्रेम में बिंध कर स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी धरती पर आ जाती है, जो अक्षय यौवन, सौन्दर्य  और नारीत्व की बहुरंगी  दीपशिखा है।  लंबे समय तक वे उद्दाम भोग-विलास में डूबे रहते हैं। इसी दौरान उनके पुत्र – आयु का जन्म होता है जिसे च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या पालती है। आखिरकार, नियति तो नियति है। स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी वापस स्वर्ग चली जाती है।

‘दिनकर’ इस रचना के जरिए मनोजगत के अनेक अंतर्विरोधों और भावों का विश्लेषण करते हैं। पुरूरुवा इस धरती का मानव है – पौरुष का ऐसा जीवंत स्वरूप, जो स्वर्ग के लिए भी इस धरती की जयगाथा जैसा है। और ‘अपने समय का यह सूर्य’ ‘बंकिम नयन के बाण से’ बिंध गया है –

यह शिला सा वक्ष, ये चट्टान सी मेरी भुजाएँ/ सूर्य के आलोक से दीपित समुन्नत भाल – / मेरे प्राण का सागर / अगम उत्ताल उच्छल है।

xxx

मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, / उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।

अंध तम के भाल पर पावक जलाता  हूँ / बादलों के शीश पर स्यंदन चलाता हूँ।

xxx

पर न जाने बात क्या है

इंद्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है / सिंह से बाँहें  मिला कर खेल सकता है

फूल के आगे वही निरुपाय हो जाता/ शक्ति के रहते हुए असहाय हो जाता

विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से/ बांध लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।

लेकिन पुरूरुवा का अस्तित्व सीमित है। उसकी इच्छाएँ इस धरती की हैं – अधूरी, स्थूल, शरीर से जुड़ी। उसमें देवत्व पाने की तृष्णा भी है।

दूसरी ओर उर्वशी है –‘रूप-रंग-रस,-गंधपूर्ण साकार कमल’ – संगीत और कविता का उद्गम है वह। उर्वशी देवलोक की अप्सरा है – प्रेम, सौन्दर्य और वासना का स्वर्गिक स्त्री-रूप – जो पत्नी और माँ होने के खांचों में नहीं बंधी है। यही उसके चिर  यौवन की शक्ति भी है, सीमा भी है:

मैं मनोदेश की वायु व्यग्र व्याकुल चंचल / अवचेत प्राण की प्रभा / चेतना के जल में /  मैं रूप-रंग-रस-गंधपूर्ण साकार कमल।

xxx

विस्तीर्ण सिन्धु के बीच शून्यएकांत द्वीपयह मेरा उर।

xxx

भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है

सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक विजय का है।

काव्य के शुरू होते ही, अप्सराओं की आपसी चर्चा से  इन दो भाव-संसारों से हम परिचित होते हैं। मनुष्य अपने अधूरेपन से दुखी है तो देवता अपनी  पूर्णता से– सुख-दुख  की उद्दामता के बिना एकरस जीवन से ऊबे हुए  हैं। वे भी मानव की  उद्दाम प्रेम-भावनाओं-स्थूल वासनाओं  के प्रवाह के लिए तरसते हैं:

गगन, भूमि, दोनों अभाव से पूरित हैं, दोनो के
अलग-अलग हैं प्रश्न, और हैं अलग-अलग पीड़ाएं ।
हम चाह्ते तोड़ कर बन्धन उड्ना मुक्त पवन में,
कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते हैं
 ।

एक स्वाद है त्रिदिव लोक में, एक स्वाद वसुधा पर,
कौन श्रेष्ठ है, कौन हीन, यह कहना बड़ा कठिन है,

पुरूरुवा धरती के मानव के पौरुष और शक्ति का प्रतीक है, जो स्वर्ग की अप्सरा को भी आकर्षण में धरती पर खींच लाता है। ‘शिला से वक्ष और चट्टान सी भुजाओं वाला’ पुरुष पुरूरुवा उस स्त्री के रूप और प्रणय के, नैन के बाण  के आगे बेबस हो जाता है जो उद्दाम, अक्षय  नारीत्व है; कलाओं,संगीत और कविता की स्रोत है।   

लेकिन क्या उद्दाम वासना ही सब कुछ है? दिनकर की यह रचना निस्सीम प्रणय से सांसारिक दायित्वों  की चेतना और अंततः योग तक, उद्दामता से मातृत्व के गरिमामय बंधन तक – काम-अध्यात्म के विविध पक्षों में गहरे उतरती है। जीवन का तो अर्थ ही विषम कोणों को साधना है।

पुरूरुवा के अपने  बंधन  हैं, लेकिन उसके पास  स्थूल, मांसल प्रेम भी है, जिससे स्वर्ग का देवत्व वंचित है।  इसी से उर्वशी उसके पास खिंची चली आई है। लेकिन स्वर्ग के उद्दाम नारीत्व के लिए धरती की सीमाओं में बंध पाना  कठिन हैं – इसीलिए वह वापिस चली जाती है – अपने मानव पुत्र  को छोड़ कर – जिसमें मन की कोमलतम भावनाएँ भी हैं, धरती का सीमाओं-संघर्षों में बंधा यथार्थ भी।

अन्य रचनाओं के सहज प्रवाह की तुलना में ‘उर्वशी’ की भाषा में दर्शन और मनोविज्ञान की गहराई, संस्कृतनिष्ठ तराश  है – जो विषय  के अनुरूप ही है।

उर्वशी’ काव्य का अंत स्त्री-मन की इस कामना से होता है कि पुरुष – तमाम पौरुष के बाद भी, स्त्री के प्रति इतना संवेदनशील हो सके कि-   

और बिना ही कहे समझ लेगा, आँखों-आँखों में,
मूक व्यथा की कसक, आँसुओं की निस्तब्ध गिरा को।
हम तो चलीं भोग उसको, जो सुख-दुख हमें बदा था,
मिलें अधिक उज्ज्वल, उदार युग आगे की ललना को।

तो ललनाएँ ऐसे उदार युग के लिए अब भी प्रतीक्षारत हैं जब पुरुष उनकी मूक व्यथा की कसक, उनके आंसुओं की वाणी को समझ सकेंगे। कवि की भी शायद प्रेम में पगे पुरुष से यही अपेक्षा रही होगी।

*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँ, यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

2 COMMENTS

  1. उर्वशी पर विस्तृत और सारगर्भित टिप्पणी पढ कर बौद्धिक और हार्दिक आनंद मिला। उर्वशी जैसी महाकाव्यात्मक रचना की समीक्षा साहित्य , भाषा व वांग्मय के गहन ज्ञान की अपेक्षा करती है जिस पर आप खरे उतरे हैं ।
    एक मत यह भी है कि दिनकर अपनी साहित्यधाराव को मोड़ कर कामायनी जैसी कालजयी रचना सृजित करना चाहते थे। उर्वशी बेहद श्रेष्ठ कृति है किंतु कामायनी नहीं हो सकी। सौभाग्य से मैंने देनों महाकाव्य पढ़े हैं। मुझे दिनकर का कुरुक्षेत्र वाला रूप अधिक प्रिय है। युवावस्था में उनके पचासों काव्यांश कंठस्थ हुआ करते थे। इस टिप्पणी ने मुझे तुम्हारी साहित्यिक और वैचारिक धाक का और क़ायल कर दिया।शुभम । आशीष

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here