‘ना’ कहने का साहस – बच्चों की समझदार कहानियाँ -3

राजेन्द्र भट्ट*

राजेन्द्र भट्ट के नए-नए साहित्यिक प्रयोगों की प्रयोगशाला यह वेबपत्रिका ही है। अभी कुछ रोज़ पहले उनका ऐसा ही प्रयोग“मूली लौट आई” के साथ-साथ “कहानी पन्नालाल की” में भी आप देख चुके हैं। यदि आप में से कुछ लोगों ने पिछली ‘कहानियाँ’ ना देखी हो तो हमारा आग्रह है कि उपरोक्त दोनों लिंक्स पर जाकर उन्हें भी देख लें और खास तौर पर पहली कहानी (मूली लौट आई) के ऊपर दी गई भूमिका को तो अवश्य पढ़ लें, तभी संदर्भ ठीक से स्पष्ट होंगे।

कथा – 3 : ‘ना’ कहने का साहस

मूली (या गाजर) और पन्नालाल की कहानियों के विपरीत, यह कहानी पशु-चरित्रों या पुराने ज़माने की गढ़ी हुई कथा नहीं है। यह मुझ पर और आप पर गुज़रने वाला वाकया  है। इसके चरित्र इसका अंत तैयार करते जाते हैं। कहानीकार के पास गुंजाइश नहीं कि इसका अंत बदले, इसलिए आप इसे यह दुखांत कथा भी कह सकते हैं और यदि आप अनुदार हों तो आप इसे कहानी के नाम पर ‘अपना दुखड़ा रोना’ भी कह सकते हैं। बहरहाल, कहानी के नायक गौरव को तो यह चौराहे पर अकेला छोड़ देती है,  अब आप उससे कैसे डील करते हैं, यह आप पर निर्भर करता है। चलिए, सीधे कहानी पर  आते हैं।

स्कूल में गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ने वाली थीं। मै’म की आदत थी कि वह छुट्टियों के लिए भी थोड़ा कठिन प्रोजेक्ट दे देती थीं ताकि बच्चे जुटे रहें, स्कूल और पढ़ाई से उनकी डोर कटे नहीं।

गौरव अबकी बार थोड़ा ‘रिलेक्स्ड’ था। पिछले अक्तूबर-नवंबर में, उसने छुट्टियां खींच-तान कर दस दिन निकाल किए थे, जिनमें वह थोड़ा-बहुत ‘पर्वतारोहण’ कर आया था – पहाड़ की तलहटी वाले इलाके से 12-13 हज़ार फुट तक। होशियार तो था ही – उसने चुन-चुन कर हर ऊंचाई तक के पेड़-पौधों का ‘हरबेरियम’ बना लिया था, फोटोग्राफ लिए थे, गूगल सर्च करके उपयोगी जानकारी भर ली थी – ऊंचाई के साथ-साथ, वनस्पति-प्रजातियों के स्वरूप, इको-सिस्टम वगैरह पर एक तुलनात्मक, दिलचस्प प्रोजेक्ट करीब-करीब तैयार था। बस, फ़ाइनल टच देना था। उसकी गर्मियों की छुट्टियाँ निश्चित बढ़िया गुज़रनी थी। कोई पहले से एजेंडा नहीं, किसी का कोई दबाव नहीं। 

प्रोजेक्ट दो बच्चे मिलकर करते हैं। गौरव का खास दोस्त है सलमान। उसने पहले से डील कर रखी है। सलमान की सजावट की ‘स्किल्स’ बढ़िया हैं। बढ़िया सामग्री- बढ़िया प्रजेंटेशन। और बोनस में खाली वक्त। गौरव ने तय कर लिया था कि इन छुट्टियों में सलमान के साथ प्रोजेक्ट पूरा करके वह एक और खास दोस्त गुरमेल के साथ उसके गाँव जाएगा और हिमाचल के अनजाने इलाकों में घूमेगा – निश्चिंत हो कर।

बस, एक छोटा दबाव तो आ ही गया। मामा जी ने कुछ दिन पहले ही गौरव की ‘बुकिंग’ की घोषणा कर दी थी कि उनका बेटा रोहित 15 दिन गौरव के साथ रहेगा। गौरव इसे दिल्ली घुमा देगा। रोहित दो साल छोटा है। पूछना कैसा –‘अपनों’ पर इतना तो बस चलता है! और फिर गौरव जैसा होशियार और विनम्र भाई – जिसने कभी किसी को ‘ना’ कहा है क्या?  और हाँ, वह रोहित के प्रोजेक्ट में मदद भी कर देगा। अब ये तो घर की बात थी! गौरव चुप रहा। मौनं स्वीकृति लक्षणम। कोई नहीं, इतना तो ‘एडजस्ट’ हो ही जाएगा।

इसके बाद,  मै’म ने धर्म-संकट में डाल दिया। उनकी भतीजी स्वीटी गौरव की सहपाठी है। गौरव जैसे संजीदा लड़के को वह कभी ‘स्वीट’ नहीं लगी -कामचोर और लापरवाह। पर, मै’म ने कानों में मिस्री-सी घोल दी कि गौरव स्वीटी के साथ मिलकर प्रोजेक्ट कर लेगा। स्वीटी की भी मदद हो जाएगी।

स्वीटी तो उछल पड़ी। ‘डोमिनेटिंग’ तो है ही। उसने किलकारी मार कर ऐलान कर दिया। ‘हम ह्यूमन बॉडी के डिफरेंट सिस्टम्स पर प्रोजेक्ट करेंगे। गौरव है तो फिर कंटेन्ट की क्या चिंता।‘ गौरव को ज़ूऑलोजी ज्यादा पसंद नहीं है। पर उससे पूछता कौन है! वह तो असीमित ज्ञान, असीमित क्षमता वाला, असीमित विनम्र ‘हीरा लड़का’ है।

गौरव तनाव में आने लगा। पर ‘ना’ नहीं कहा। आखिर मै’म कितना तो उसे चाहती हैं! हमेशा तारीफ करती हैं! कोई नहीं, उसका प्रोजेक्ट तो तैयार है ही। सलमान को समझा लेगा, कोई पार्टनर नया ले ले, उसका लगभग बना-बनाया प्रोजेक्ट ले ले। स्वीटी के साथ वह किसी तरह निभा लेगा। इतने नए बबालों के बाद, अब मनाली यात्रा पर संकट के बादल नज़र आने  लगे थे।

स्कूल से बाहर निकला तो जिगरी यार विपिन मिल गया। बोला, “मैंने तय कर लिया है, हम अबकी ज्योग्राफी का बढ़िया प्रोजेक्ट करेंगे। मेरे चाचा प्रोफेसर हैं। तू मेरे साथ है।“ गौरव ने मरी जुबान से कहा, “पर मुझसे पूछ तो लेता।“ विपिन ने कुन्दन लाल सहगल के ‘दिल ही टूट गया’ जैसा दर्द-भरा भाव दिखाया, “तो अब तुझसे भी पूछना पड़ेगा! मुझे लग ही रहा था कि मै’म न कहा और तू पिघला। ठीक है भाई, स्वीटी…”

गौरव दुखी हुआ। बोला, “नहीं यार, मैं तेरे साथ भी कर लूँगा। बस, स्वीटी को बताना मत। उसका काम तो बस, मैं यों ही निपटा दूँगा।

अंत में – मामाजी गौरव से नाराज हुए। रोहित ने मुख फुलाया कि भैया ने मुझे ठीक से टाइम ही नहीं दिया। मम्मी  को रिश्तेदारी में बातें सुननी पड़ीं।

स्वीटी को पता चल गया कि विपिन के चक्कर में गौरव बेमन से प्रोजेक्ट कर रहा है। बिना मेहनत के  ‘टॉप प्रोजेक्ट’ बनाने का उसका सपना टूट गया। उसने मुंह फुला लिया।

सलमान ने तो सीधे-सीधे गौरव को धोखेबाज कहा। विपिन ने भी खूब व्यंग किए।

मनाली का दोस्त – गुरमेल तो इंतजार ही करता रह गया। गौरव और उसका मेल टूट गया।

और स्कूल  खुलने पर मै’म ने सबके सामने कहा, “इतने खराब प्रोजेक्ट की तुमसे उम्मीद नहीं थी।“

कहानी यहीं खत्म।

गौरव की गलती – बिना गुस्से के, बिना चिढ़े – साथ ही  बिना डरे भी ‘ना’ नहीं कह पाने की थी – इसके लिए बड़ी इच्छा-शक्ति चाहिए। काबिल होना और अपनी काबिलियत से सबकी मदद करने को तैयार रहना बड़ा गुण है। लेकिन जो मदद अपनी क्षमता में न हो, जिसके लिए वक्त न हो, या जिसके लिए मन न चाहे, या फिर  आप तनाव में आ जाएँ – उसके लिए दृढ़ विनम्रता से ‘ना’ कह पाना भी बहुत बड़ा गुण है, और ऐसा न कर पाना व्यक्तित्व की कमजोरी है। ऐसी मजबूत ‘ना’ नहीं कर पाने से आप तो तकलीफ पाते ही हैं, लेकिन जो आप पर भरोसा करके निश्चित हो गए हैं, उनके काम को नहीं कर पाने या ठीक से नहीं निभा पाने से उन्हें  भी तनाव दे देते हैं, नाराज़ कर देते हैं।

साथ ही, आपको कोई व्यक्ति पसंद या नापसंद हो –  यह कोई अपराध नहीं है, जिससे आपको संकोच या शर्म हो। इसका यह मतलब भी नहीं है कि आप उसकी निंदा कर रहे हैं या उसका बुरा चाहते हैं। ऐसे में आप अगर उससे दूरी बनाए रखने की बजाय संकोच में उससे लटके रहते हैं या उसे बेमन से लटकाए रखते हैं – तो यह आपके लिए और उस व्यक्ति के लिए भी अच्छा नहीं है – दोनों की ऊर्जा और सामर्थ्य को छीजता है।

लेकिन इस प्रसंग का दूसरा पक्ष यह भी तो है कि कुल मिलाकर, यह गौरव की गलती और कमजोरी ही तो  थी – अपराध तो नहीं था। लेकिन  उसके हर ‘अपने’ ने इसे अपराध समझा, उसका घमंड, चालाकी, गैरजिम्मेदारी, स्वार्थ समझा – इस तरह उन्होंने एक संवेदनशील, सबका भला चाहने वाले  व्यक्ति को तोड़ा – बिना किसी अपराध के दुख दिया। किसी ने नहीं देखा कि आखिर इस सारे घटना-क्रम में गौरव को  क्या मिला? बस, अपमान और तनाव।  

यह सही है कि हर भले, ज़हीन गौरव को ‘ना’ कहना आना चाहिए। लेकिन उसके आस-पास, उसके दोस्तों, हितैषियों, प्रशंसकों को भी उसे  संभालना चाहिए –उलाहना देकर छोटा नहीं करना चाहिए। नहीं भूलना चाहिए कि इससे पहले तो वह अपेक्षाओं पर खरा उतरता रहा था – इसीलिए तो उसपर भरोसा किया गया।  गौरव का ‘गौरव’ उसकी अपनी नज़र में भी बना रहे, ऐसा व्यवहार करना चाहिए। उसे बिना लज्जित किए, ‘इमोशनल टैरर’ से डरा कर ज्यादा तनाव और आत्मविश्वास-हीनता के बियावान में नहीं डालना चाहिए।  नहीं तो वे दोस्त-हितैषी कैसे?

तो यह कहानी सबके काम आने वाले, काबिल गौरव को ‘ना’ कहना सिखाने के आत्मबल और  समझदारी की कहानी है। साथ ही, यह कहानी, उसे अपना  और भरोसेमंद मानने वालों के लिए भी है कि गौरव के उनकी उम्मीद के मुताबिक काम न कर पाने पर वे उसे शिकवों-शिकायतों से तोड़ें नहीं, उसके पुराने कामों को याद  कर,  बिना शर्त ज्यादा संवेदनशील होकर उसका तनाव घटाएँ, उसका आत्मबल लौटाने में मदद करें। इस कथा का ‘मॉरल’ और सबक है – हम सभी को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गौरव टूटे नहीं, मजबूत बने और पूरी सदिच्छा, आत्म-बल तथा विवेक के साथ, ज़रूरी होने पर ‘ना’ कहना सीखे।  हम सब जो उसके अपने हैं, उसकी बात को समझ कर उसे सम्मान दें, तोड़ें  नहीं।

यह कहानी बच्चों की तो है लेकिन बड़े हो गए बच्चों की भी है। दुखांत लग सकती है, पर गौरव और उसके अपने मिल कर इसे सुखांत बना सकते हैं।  

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*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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8 COMMENTS

    • तुम एक शब्द का कमेंट लिखते हो। इसलिए तुम्हें:

      ‘धन्यवाद’

    • तुम एक शब्द का कमेंट करते हो। तुम्हें कंजूसी से:
      ‘धन्यवाद।’

  1. क्या बात है!
    इसमें लेखक ने एक जटिल स्थिति को बाल मनोविज्ञान के माध्यम से रखने का प्रयास किया है।

  2. नमस्कार भट्ट भाई जी
    आपकी कहानियों में मैं स्वयं को ढूंढ लेती हूं. अपने सौ काम फेंक कर दूसरों को मदद कर खीजती और
    चिड़चिड़ाती रहती हूं, पर आदत से बाज नहीं आती हूं . अब मैंने हार मान ली है ।
    “हम सब शायद ऐसे ही होते है”.
    कहानी प्रेरक हो सकती है , सबक भी हो सकती है,
    पर सोचती हूं “ना” कहने पर कही बिचारे का काम न
    बिगड़ न जाए, तो प्रेरक और सबक जाए भाड़ में ।
    धन्यवाद

  3. जी, मैं भी ऐसा ही हूँ और हां कहकर कुढ़ता और त्रस्त रहता हूँ। मुझे लगता है, बच्चों को शुरू से यह पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। आप तो दार्शनिक हैं। सहमत होंगी कि अति लिहाजूपन और भावुकता गुण नहीं है।

    • नहीं बिलकुल सहमत नहीं हूँ. भावुकता बहुत बड़ा गुण है जो हम खोते जा रहे है. इसका कल्टीवेशन होना चाहिए है मैं मानती हूँ. खैर कुढना और त्रस्त होने का अर्थ मानवीयता बची है. बहुत सुन्दर

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