न्यायपालिका भी हमें रूआँसा ना करे 

इस मुश्किल समय में जब लोकतान्त्रिक अधिकार और संस्थाएं क्षरित हो रही हैं, आपसे ही तो सबसे ज़्यादा उम्मीद है

आज की बात


आज टाइम्स ऑफ इंडिया में और बीते दिन यानि कल इंडियन एक्सप्रेस में इस आशय की खबरें आईं कि सुप्रीम कोर्ट के नवगठित ‘कोलेजियम’ ने अपने ही साथी जजों द्वारा कुछ हफ्ते ही पहले सुप्रीम कोर्ट के लिए चुने गए नामों को उलट दिया और उनकी जगह नए नाम प्रस्तावित कर दिये।

‘कोलेजियम’ के नए निर्णय के तहत राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस प्रदीप नन्द्राजोग और दिल्ली के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस राजेंद्र मेनन जो अभी 12 दिसम्बर को हुई कोलेजियम की मीटिंग में सुप्रीम कोर्ट में प्रमोशन के लिए चुने गए थे, अब सुप्रीम कोर्ट नहीं आएंगे और उनकी जगह कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना सुप्रीम कोर्ट पहुंचेंगे।

इंडियन एक्सप्रेस ने कल अपनी खबर में बताया था कि नवगठित कोलेजियम के इस निर्णय से सुप्रीम कोर्ट के जजों का एक वर्ग खासा असंतुष्ट है और उनकी शिकायत है कि कुछ हफ्ते पहले जब दो जज चुन लिए गए थे तो बिना कारण बताए और बिना निर्णयों को सार्वजनिक किए, कोलेजियम ने ये निर्णय क्यूँ उलट दिये। आज टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय कौल ने नवगठित कोलेजियम के इस यू-टर्न पर आपत्ति जताते हुए मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा है।

इस स्तंभकार की ये योग्यता नहीं कि वह सुप्रीम कोर्ट के दो ‘कोलेजियम्ज़’ द्वारा लिए गए निर्णयों की समीक्षा करे लेकिन एक आम आदमी के तौर पर उसे ये चिंता है कि आपके यहाँ ये क्या हो रहा है, हमें तो अब बस आपसे ही कुछ उम्मीद बाकी थी!

क्या हो रहा है उस पारदर्शिता का जिसकी चर्चा माननीय न्यायालय ने अपने अनेक फैसलों में की होगी? ‘रूल ऑफ लॉं’ की कानूनी परिभाषा इस स्तंभकार को नहीं मालूम लेकिन ‘कॉमन-सैन्स’ या सामान्य बुद्धि से इतना तो सोचा ही जा सकता है ना कि जो हो रहा है वह ‘रूल ऑफ लॉं’ में फिट बैठना कठिन होगा।

कारण सीधा है। एक तो यह कि अपने यहाँ ‘कोलेजियम’ की व्यवस्था यूं भी कोई बहुत आदर्श नहीं कही जा सकती और उसमें पारदर्शिता के मुद्दे पर तो स्वयं न्यायपालिका के भीतर से भी बीच बीच में प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। ये बात अलग है कि भारत में सरकारों की प्रतिष्ठा (चाहे वह वर्तमान सरकार हो या पिछली) इतनी खराब है कि आम राय यही बनती है कि वर्तमान व्यवस्था ही फिलहाल ठीक है। इसलिए ये कोलेजियम प्रणाली जिसमें जज स्वयम ही अपने साथी नियुक्त करते हैं, अभी तक जारी है। ये अलग बात है कि हर सरकार ने इसे प्रभावित करने की ख़ासी कोशिश की है।

परेशानी तब और भी बढ़ जाती है जब इन खबरों को पढ़कर ऐसा लगता है कि कोलेजियम के निर्णयों पर भी जब सार्वजनिक रूप से सवाल उठ रहे हैं तो कहीं ना कहीं इसमें सरकारी दखल भी हो सकता है। ऐसे में एक आम नागरिक के तौर पर ये चिंता होना भी स्वाभाविक है कि कहीं इतने उच्च स्तर पर भी तो न्यायपालिका को प्रभावित करने के प्रयास नहीं हो रहे! और अगर ऐसा नहीं है तो आखिर ऐसा क्या है जो न्यायपालिका हमसे और हमसे तो क्या बल्कि अपने ही साथियों से शेयर नहीं करना चाह रही है?

न्यायपालिका के हाल ही के कुछ निर्णयों पर और खास तौर पर सरकार की तरफ से अपना पक्ष बंद लिफाफों में कोर्ट को देने की प्रक्रिया अपनाए जाने पर कुछ विद्वानों ने गंभीर सवाल उठाए हैं लेकिन हम उनमें नहीं जा रहे। फिर भी हमें इतना तो कहना ही होगा कि इस मुश्किल समय में जब लोकतान्त्रिक अधिकार और संस्थाएं क्षरित हो रही हैं, ऐसे में आपसे ही तो सबसे ज़्यादा उम्मीद है। कुछ ऐसा कीजिये कि सिविल सोसाइटी आश्वस्त महसूस करे – reassured feel करे कि आप तो हैं ना!

ऐसा ना हुआ तो हमारे जैसे लोग रूआँसे हो जाएंगे क्योंकि आन्दोलन करके अपनी बात मनवाना हम जे पी आन्दोलन और आपातकाल के खिलाफ संघर्ष के बाद भूल चुके हैं। अब समाज को दिशा देने वाले लोग ‘सिविल-सोसाइटी’ बन गए हैं और अब ‘एड्वोकसी’ (पैरवी) ही प्रमुख हथियार है। कुल मिलाकर ये कि अब हमें जो भी सही लगे, वो पाने में कोर्ट की मदद चाहिए। तो कृपया अपना घर सम्हालिए ताकि हमारी उम्मीदें आपसे बनी रहें।

पुनश्च: उपरोक्त आलेख पोस्ट करने के कुछ घंटों के भीतर ही ये खबर आ गई थी कि सरकार ने आनन-फानन में नवगठित ‘कोलेजियम’ द्वारा उल्टे गए फैसलों पर अन्य न्यायाधीशों और ‘बार’ के सीनियर मेम्बर्ज की आपत्तियों को नज़र-अंदाज़ करते हुए जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस संजीव खन्ना को सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त करने की अधिसूचना भी जारी कर दी है।

—-विद्या भूषण अरोरा

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