उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की लचर स्थिति

आज की बात

सच कहें तो आज इतने बाद ये स्तम्भ लिखना कई तरह से मुश्किल लग रहा है। पिछले दिनों ‘आज की बात’ स्तम्भ में कितने ही विषयों पर बात की जा सकती थी। लेकिन मेरे एक मित्र ने सही पकड़ा कि कहीं ना कहीं ‘कमिटमेंट’ (लिखने के प्रति प्रतिबद्धता) में कमी रही होगी नहीं तो हर बहाने पर विजय पाई जा सकती थी। कितनी ही उल्लेखनीय चीज़ें हो रही थीं, जिन पर लिखा जा सकता था लेकिन हमारे पास ना लिखने के हज़ार बहाने मौजूद थे। उन बहानों का ज़िक्र यहाँ नहीं करेंगे।

उत्तर प्रदेश के बरेली में साक्षी मिश्रा और अजितेश की शादी वाली घटना ऐसी थी कि लगता था, तुरंत बैठकर अपनी एक प्रतिक्रिया लिखूँ और पोस्ट कर दूँ लेकिन फिर कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं कि मन उदास कर देती हैं और लगने लगता है कि इस पर तो कुछ लिखना भी घटना को भुनाने जैसा हो जाएगा। साफ है कि वो बहाना था, बहाना था अपने आलस्य को छिपाने का और अपने आप से झूठ बोलकर बच निकलने का। साक्षी और अजितेश की शादी को यदि आदर्श परिस्थितियाँ होती तो यूं ही चुटकियों में निपट जाना चाहिए था लेकिन ना तो आदर्श परिस्थितियाँ हैं और ना फिर ये काम शांति से हुआ। वो तो लगता है कि साक्षी को अपने पिता से राजनीति का प्रशिक्षण अनजाने में ही मिल गया होगा जो उसने वीडियो बनाकर वायरल कर दिया और उसे मीडिया के रास्ते से कोर्ट और पुलिस की मदद मिल गयी।

यह सब तो तब है जब ये शादी पूरी तरह कानून-सम्मत थी। अगर दो वयस्क लोग अपनी रज़ामंदी से विवाह करना चाहते हैं तो इसमें कानून कहीं आड़े नहीं आता बल्कि समर्थन ही करता है। लेकिन ऐसे में आड़े आ जाते हैं हमारे समाज के दक़ियानूसी विचार जिनके अनुसार एक दलित लड़के और उच्च जाति की लड़की के बीच विवाह मर्यादा का उल्लंघन है। यहाँ दिक्कत ये है कि सरकार के अलावा कोई कानून और संविधान की बात करे तो उसे विद्रोही करार दे दिया जाता है। संविधान अब केवल सत्तारूढ़ दल के नेताओं की लफ़्फ़ाज़ी के काम आता है अन्यथा उत्तर प्रदेश में तो एक के बाद एक घटनाएँ ऐसी हो रही हैं कि लगता है कि देश का सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण राज्य किसी अराजक स्थिति में पहुँच गया है।

साक्षी और अजितेश की शादी का तो खैर ऐसा मामला था जो कम से कम ऊपरी तौर पर तो फिलहाल ठीक-ठाक निपट गया लगता है। यह बात अलग है कि पुलिस सुरक्षा मिलने के बावजूद भी साक्षी और अजितेश अभी तक बरेली वापिस नहीं आ सके हैं।

अब हम अगले मामले पर आते हैं। हमारे सुधि पाठकों को याद होगा कि करीब 6 वर्ष पहले, अगस्त-सितंबर 2013 में उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर और आस-पास के गांवों  में सांप्रदायिक हिंसा में 60 से अधिक लोगों की जानें चली गई थी और 40,000 से ज्यादा लोग अपना घर-बार छोडने को मजबूर हो गए थे। हाल ही में प्रकाशित इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक इन दंगों के बाद जिन 41 लोगों पर मुकदमे चलाये गए जिसमें 10 लोगों की हत्या का मामला भी था, उनमें से 40 रिहा हो गए हैं।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक उपरोक्त मामलों में सरकारी पक्ष के सभी गवाह मुकर गए। यहाँ तक कि जिन रिश्तेदारों की मौजूदगी में हत्या करने के आरोप चार्जशीट में लगे थे, वो रिश्तेदार भी मुकर गए। पुलिस हत्या में इस्तेमाल हथियार भी कोर्ट में पेश नहीं कर सकी और ना ही सरकारी वकील ने इन मुद्दों पर किसी को क्रास-एक्जामिन (cross-examine) ही किया। कुल मिलाकर ये कि सरकारी पक्ष की तरफ से ये केस करीब करीब लड़ा ही नहीं गया तो फिर इसमें किसी को क्या सज़ा होती?

मुजफ्फरनगर दंगों के मामलों में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार रवैया शुरू से ही ढुलमुल रहा है। पिछले वर्ष तो ये खबर भी आई थी कि दंगों के बहुत से आरोपियों पर से मुकदमे वापिस लेने के बारे में भी ज़िला प्रशासन से पूछताछ की गई थी लेकिन ज़िले के अफसरों ने और पुलिस अधिकारियों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया था। हालांकि इस मामले में आगे क्या हुआ, इसकी कोई खबर देखने में नहीं आई। अभी तो ये जो हो रहा है, वो आशंकाओं को सच करता हुआ ही हो रहा है। खबरों के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से इस मामले में कोई अपील भी नहीं की जा रही।

पूर्वी उत्तरप्रदेश का ही एक ज़िला है सोनभद्र जहां कम से कम दस आदिवासियों की हत्याओं का मामला गरमाया हुआ है (और ठंडा होने का इंतज़ार कर रहा है)। जिस रोज़ मुजफ्फरनगर के दंगों के दौरान 10 हत्याओं के आरोपियों के छूटने की खबर छपी थी, ठीक उसी दिन ये समाचार भी छपा कि सोनभद्र ज़िले उभा गाँव में 10 आदिवासियों की गाँव प्रधान और उसके गुर्गों ने गोलियों से भून कर हत्या कर दी। भूमि के एक टुकड़े को लेकर हुई इस घटना में 28 लोग बुरी तरह से घायल भी हुए हैं।

योगी सरकार को शायद समझ नहीं आ रहा कि सोनभद्र में हुए हत्याकांड से उपजे असंतोष और अविश्वास से कैसे निपटा जाये। तभी योगी जी बौखलाहट में नज़र आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में सिर्फ एक लोकसभा सीट जीतने वाली कॉंग्रेस की नेत्री प्रियांका गांधी का सोनभद्र जाने का रास्ता रोकना और इस भूमि विवाद को कॉंग्रेस की दें बताना जो वहाँ जाने कितने दशकों से सत्ता में नहीं है, योगी जी के असुरक्षा के भाव को दिखा रहा है। अगर ये सच भी हो कि इस भूमि विवाद की जड़ में कोई दशकों पुराना विवाद है, तो भी ऐसे वक़्त में जब दस लोग गोली से भून दिये गए हों और दर्जनों घायल अस्पतालों में कराह रहे हों, तब इधर-उधर दोषारोपण करना एक सत्ताधारी राजनीतिज्ञ का हलकापन ही दिखाता है।

उपरोक्त तीनों घटनाएँ जो हमने ऊपर ब्यान की हैं, समाज के हाशिये पर पड़े लोगों से संबंधित हैं। अगर इस देश को सबके लिए सुरक्षित बनाना है और सबका विश्वास भी जीतना है तो फिर केंद्र एवं राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि समाज का कोई भी वर्ग अपने को अलग-थलग महसूस ना करे और किसी को ऐसा ना लगे कि प्रशासन किसी ताकतवर की तरफदारी कर रहा है और कमजोर के साथ न्याय नहीं हो रहा। शासन के हर अंग को, केंद्र की शक्तिशाली सरकार से लेकर पंचायत तक सभी को अपना संवैधानिक कर्तव्य तत्परता से निभाना चाहिए।

विद्या भूषण अरोरा

1 COMMENT

  1. “संविधान अब केवल सत्तारूढ़ दल के नेताओं की लफ़्फ़ाज़ी के काम आता है ”

    1. साक्षी व अजितेश विवाह प्रकरण
    2. मुजफ्फरनगर दंगो में आरोपी बरी
    3. सोनभद्र जमीन विवाद मामला

    ऊपर जो आपकी ही लिखी पंक्ति है वही आज का सच बयान करती है। जिसे अनुकूल बनाने में आज के rapid media का बहोत योगदान है।

    साक्षी अजितेश की शादी जो सिर्फ वयस्कता का मामला होना चाहिए था उसे दलित और उच्च जातिवाद की शादी और दबंगई का मामला बना दिया गया, जहां दोनों ही शिक्षित परिवार से है। दूसरा ये कि हमारा संविधान माँ बाप को कोई हक ही प्रदान नही करता अपने बच्चों के भविष्य को तय करने का, जो उन्हें बेहतर शिक्षा देने और सफल बनाने के लिए क्या नही करते।

    मुजफ्फरनगर दंगों की बात करे तो यही सब हरियाणा में भी हुआ है जाट आरक्षण दंगो में, मौके पर पकड़े गए आरोपियों को ही बरी कर दिया गया। सब राजनीतिक व आधिकारिक मिलीभगत और ढुलमुल संविधान व न्यायपालिका सब ही जिम्मेदार है। ये अन्याय है उन तथाकथित उच्च वर्ग के साथ जिनकी दुकाने जली या अन्य नुकसान हुआ। यही कारण है मुज्जफरनगर दंगो में भी, जो कि साफ दिखता था राजनीति से प्रेरित।

    तीसरा सोनभद्र मामला, जिसे पहले जमीनी विवाद बताते बताते तीसरे चौथे दिन तक आदिवासी और दबंगई का मामला बना दिया गया। मीडिया की कोई दिलचस्पी ही नही कि मालिकाना हक़ीक़त क्या है, बस breaking news और TRP।संविधान भी ऐसा ही है कि अगर कोई किराये पर कोई भी property लेता है और एक लंबे अरसे के बाद उस पर कब्जा कर लेता है, तो मालिक ही अपनी जमीन किसी भी न्यायालय से नही छुडवा सकता, जिस जमीन से उनका परिवार पला बढ़ा उस किरायेदार ने तो जमीर ही बेच दिया।

    जब राजनीति, एडमिनिस्ट्रेशन, न्यायपालिका और संविधान का ये हाल हो तो संविधान बदलना ही बेहतर है अपितु अंधविस्वाश से पूजा करने से।

    इसीलिए आपकी पंक्ति सही प्रतीत होती है “संविधान अब केवल सत्तारूढ़ दल के नेताओं की लफ़्फ़ाज़ी के काम आता है।”

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