आरटीआई को कमज़ोर करने की मुहिम

आज की बात

इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जिसने यूपीए-2 के दौरान चले भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन का सबसे ज़्यादा फायदा उठाया, उसे आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध बने सबसे कारगर हथियार सूचना के अधिकार – ‘आरटीआई’ को कमजोर करने दोषी माना जा रहा है। अगर भाजपा में अभी भी ऐसे लोग बचे हैं, जिन्हें अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई पड़ती है तो उन्हें भी कल उस वक़्त बहुत तकलीफ हुई होगी जब लोकसभा ने आरटीआई कानून में संशोधन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

एक तरह से 2014 में भाजपा सरकार का जन्म आरटीआई और सीएजी जैसी संस्थाओं की मदद से ही हुआ था। ऐसे में उसी सरकार द्वारा आरटीआई को कमजोर करना तो मातृ-द्रोह जैसा लग रहा है। यदि ये तुलना सही नहीं लग रही तो कह सकते हैं कि जिस सीढ़ी से आप ऊपर चढ़े, उसी सीढ़ी को आप परे फेंक रहे हैं।

सूचना का अधिकार स्वतंत्र भारत का पहला ऐसा कानून था जिसने एक आम आदमी को ये ताकत दी कि वह सार्वजनिक पैसे से वेतन पाने वाले सरकारी अधिकारियों से सीधे सवाल पूछ सके। पूछ सके कि किसी काम की प्रगति कैसी है, उसमें यदि कोई देरी हो रही है तो क्यों हो रही है और इसी तरह के कोई भी सवाल जो कई बार अधिकारियों को या कभी-कभी तो मंत्रियों तक को परेशान कर देते हैं। ऐसे कानून को बोथरा बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।

मज़े की बात ये कि आरटीआई कानून लाने का सेहरा चाहे यूपीए के सिर पर ही बांधा जाता है जो तकनीकी तौर पर सही भी है लेकिन इसके बीज एनडीए के 1999-2004 के शासन-काल में ही पड़ गए थे जब देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जन-आंदोलनों के दबाव में तत्कालीन केंद्र सरकार ‘फ्रीडम ऑफ इन्फॉर्मेशन’ एक्ट लाई थी। लेकिन उस कानून में इतनी खामियां थीं कि वह ठीक प्रकार से लागू ही ना हो सका। फिर यूपीए सरकार आई तो उसने पिछले कानून को निरस्त करके मई 2005 में एक नया कानून बनाया जिसे बहुत व्यापक विचार-विमर्श के बाद तैयार किया गया ताकि उसमें कोई कमी ना रहे। इस प्रक्रिया में उन सभी की भागीदारी रही जिन्होंने बरसों इसके लिए लड़ाई लड़ी थी।

इन सब के संयुक्त प्रयासों के बाद एक ऐसा कारगर सूचना का अधिकार बना जिसके तहत ली गई सूचनाओं से कई बार स्वयं यूपीए सरकार को भी शर्मिंदा होना पड़ा। फिर भी उनको ये श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने जन दबाव में ही सही, इस कानून को कमजोर नहीं किया।

यहाँ रिकॉर्ड के लिए यह उल्लेख भी किया जा सकता है कि केंद्र द्वारा सूचना का अधिकार लाने से पहले ही अलग-अलग जन आंदोलनों के दबाव में ऐसा कानून कई राज्यों में पहले ही लाया जा चुका था। राजस्थान में मजदूरों और किसानों के बीच काम कर रही संस्था मजदूर किसान शक्ति संगठन ने इस विषय में सबसे ज़्यादा काम किया था और सूचना के अधिकार की लड़ाई को उन्होंने एक जन-आंदोलन का रूप दे दिया था।

आज फिर एक बार इन जन-आंदोलनों की सारी ऊर्जा जो उन्होंने इस कानून के बनवाने में लगाई थी, व्यर्थ जाने का खतरा है। मोदी सरकार सूचना के अधिकार में संशोधन कर रही है और लोकसभा ने इन संशोधनों को स्वीकार कर लिया है। आज दिन में ये संशोधन प्रस्ताव राज्यसभा में लाया जाएगा। क्या संशोधन हैं ये? सरकार को ऐसी क्या जल्दी है इन्हें करने की जब ना केवल विरोधी दल बल्कि तमाम ऐसे लोग जिन्होंने इस अधिकार को लाने के आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की थी, इन संशोधनों को पुरजोर विरोध कर रहे हैं। आइये समझने का प्रयास करते हैं।

ऊपरी तौर पर देखने से लग सकता है कि ये संशोधन केवल इतने भर हैं कि इनसे सूचना आयुक्तों का वेतन और उनका कार्यकाल की समय सीमा बदलना चाहती है। फिलहाल सूचना आयुक्त का कार्यकाल नियुक्ति की तिथि से पाँच वर्ष या पैंसठ वर्ष की आयु हो जाना निर्धारित है लेकिन सरकार इसको बदल कर उनका कार्यकाल अपने हाथ में रखना चाहती है। स्वाभाविक है कि इसका कोई और अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि सरकार जिस सूचना आयुक्त को अपने अनुकूल नहीं समझेगी, उसे अपनी मर्ज़ी से निकालने का अधिकार अपने लिए सुरक्षित करना चाहती है।

इसी तरह दूसरा प्रस्ताव ये है कि सरकार सूचना आयुक्तों का वेतन और अन्य सुविधाएं और भत्ते भी अपनी मर्ज़ी से तय करना चाहती है जबकि वर्तमान व्यवस्था के अनुसार सूचना आयुक्तों के वेतनमान चुनाव आयुक्तों के बराबर होते हैं। समझ नहीं आ रहा कि सरकार की अगर नीयत खराब नहीं है तो फिर उसे इतनी जल्दी क्या पड़ी है कि वह इतना विरोध झेलकर भी सूचना आयुक्तों का कार्यकाल और वेतनमान अपने कब्जे में लेना चाहती है। स्पष्ट है कि सरकार सूचना आयोग को भी किसी भी अन्य सरकारी दफ्तर की तरह बनाने पर आमादा है जो लगभग पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में हो।

आप पूछ सकते हैं कि सूचना आयुक्तों पर अपना नियंत्रण बढ़ाने से यह अधिकार किस तरह कमज़ोर होगा? इसका उत्तर ये है कि जब इस अधिकार के अंतर्गत सवाल पूछा जाता है और उसका उत्तर सरकारी अधिकारी नहीं देते तो फिर सवाल पूछने वाला सूचना आयोग के पास शिकायत लेकर जाता है। तब सूचना आयोग के सदस्य (जिनका वेतन और कार्यकाल सरकार अपने नियंत्रण में लेना चाहती है) दोनों पक्षों को बुलाकर उनकी बात सुनते हैं और फिर ये तय करते हैं कि सूचना दी जा सकती है या नहीं। इसके बाद सरकार को या तो बात माननी पड़ती है और या फिर हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जाना पड़ता है। आशंका व्यक्त की जा रही है कि अब जब सरकार ही इन लोगों का कार्यकाल और वेतन तय करेगी तो फिर इनकी स्वतन्त्रता कैसे बरकरार रहेगी।  

सूचना का अधिकार जब से बना है, लगभग इसके बनने के साथ से ही इसको कमजोर करने के प्रयास  हो रहे हैं। सबसे पहले तो स्वयं यूपीए सरकार जो इस कानून को लेकर आई थी, इसके बनने के एक साल के भीतर ही ‘परेशान’ हो गई और उसकी परेशानी का सबब बना सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह का वो फैसला जिसमें उन्होंने कहा कि सूचना के अधिकार के अंतर्गत फाइल नोटिंग भी देखी जा सकती है। फ़ाइल नोटिंग देखने का अर्थ है कि जानकारी मांगने वाला ये देख सकता है कि किसी भी निर्णय तक पहुँचने की प्रक्रिया क्या रही अर्थात उसमें किस अफसर या मंत्री ने क्या विचार दिये।

स्वाभाविक था कि इस फैसले से अफसरों में हड़कंप मच गया और उन्होंने सरकार को राज़ी किया कि इस फैसले को लागू करने से बचने के लिए सरकार को तुरंत संशोधन लाना चाहिए। चूंकि ये कानून उस समय एनएसी अर्थात नेशनल एडवाईज़री काउंसिल की तरफ से सरकार को भेजा गया था जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं, इसलिए इस कानून में संशोधन को आसान नहीं माना जा रहा था लेकिन अफसरशाही के दबाव में राजनैतिक नेतृत्व झुक गया और ये संशोधन प्रस्ताव तैयार हो गया।

लेकिन उस समय आरटीआई के समर्थन वाले जन-संगठन अभी खूब सक्रिय थे और इस प्रस्ताव की भनक लगते ही उन्होंने प्रस्तावित संशोधन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिये। देश भर से कई संगठन दिल्ली के आंदोलन स्थल जंतर-मंतर पर धरने पर बैठ गए। पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने भी इस धरने में हिस्सा लिया। सिर्फ आंदोलनकारी समूह ही नहीं बल्कि अन्य कई गणमान्य व्यक्ति इस संशोधन के विरोध में उतर आए। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस कृष्ण अय्यर, जस्टिस जे एस वर्मा और जस्टिस सावंत जैसे लोगों ने इन संशोधनों के खिलाफ तुरंत आवाज़ उठाई। यूपीए सरकार के घटक दलों में से कई ने संशोधन के विरोध में अपनी राय दी। ऐसा विरोध देखकर यूपीए सरकार ने जल्दी ही अपना प्रस्ताव वापिस लेने की घोषणा कर दी और इस तरह सूचना के अधिकार के समर्थकों ने राहत की साँस ली।

आज जब सूचना का अधिकार फिर एक बार खतरे में है, हम ऐसे किसी सक्रिय विरोध की उम्मीद कर सकते हैं जो सरकार को सूचना के अधिकार में संशोधन के प्रस्ताव को वापिस लेने के लिए विवश कर दे? शायद नहीं! फिलहाल तो नहीं! पिछले पाँच वर्षों में विरोध की परम्परा समाप्त हो गई लगती है। इस तरह के विरोध प्रदर्शनों में मध्यम वर्ग अगुआ की भूमिका निभाता है लेकिन हमारे देश का मध्यम वर्ग अब नकारा हो गया है। उससे किसी सार्थक मुद्दे पर आवाज़ उठाने की उम्मीद करना बेकार है। ऐसा क्यों हुआ, इसकी चर्चा फिर कभी अलग लेख में की जा सकती है।

आज राज्य सभा में ये संशोधन विधेयक आना है। कोई ना कोई क्षेत्रीय दल सरकार का साथ दे ही देंगे और इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि ये संशोधन स्वीकृत ना हो। कम से कम संसदीय समिति को ही विचारार्थ चला जाता तो आगे के लिए कुछ उम्मीद बनती कि कुछ मोहलत मिल जाएगी और  शायद सरकार को इस बीच सद्बुद्धि आ जाए!

मोदी सरकार भले ही ये कहे कि इन संशोधनों के लाने के पीछे कोई बदनीयती नहीं है, लेकिन जब आप सूचना आयुक्त को पूरी तरह सरकार की इच्छा पर निर्भर कर देंगे तो वह क्यों ऐसे फैसले देगा जिससे सरकार की नाराजगी उठाने का खतरा हो?

विद्या भूषण अरोरा

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