शिक्षा, संगठन और संघर्ष का संदेश

राजेन्द्र भट्ट

14 अप्रैल को डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की जयंती है। कहाँ से शुरू करें? इतना विराट-बहुआयामी व्यक्तित्व; और कितना कुछ उनके व्यक्तित्व-कृतित्व के हर पक्ष पर, हर नजरिए से कहा जा चुका है, कि आगे कहने की अपनी क्षमता ही क्या है? क्या ‘महानायक’, ‘दलितों के मसीहा’ और ’स्मृति को नमन’ किस्म के ‘स्टीरिओटाइप्स’ पर आ जाएँ, जैसा उनकी स्मृति के सभी कारोबारी कर रहे हैं?

चलिए, वही करते हैं। ‘स्टीरिओटाइप्स’ के साथ सुविधा ये है कि एकदम से एक ‘स्टॉक विजुअल’ – एक तयशुदा चित्र सामने आ जाता है।  स्टीरिओटाइप् बना देने के  बाद, दिमाग और सोच के इस्तेमाल की ज़रूरत नहीं रहती। ये सीधा ‘दिल तक’ पहुंचता है और इस की प्रतिक्रिया – बायोलॉजी की भाषा में कहें तो, बिना मष्तिष्क को कष्ट दिए, सीधे तंत्रिका-तंत्र से –‘रिफ़्लेक्स एक्शन’ के जरिए हो जाती है। (जैसे आँख के आगे तिनका आ जाने से पलक झपक जाना, रोज के रास्ते के परिचित मोड पर पैरों या साइकिल के हैंडल का अपने आप मुड़ जाना।) दिमाग का काम ही नहीं रहता। विज्ञापन और प्रचार गुरुओं, राजनीति के खिलाड़ियों और मीडिया-वीरों के लिए ऐसे स्टीरिओटाइप्  ‘ब्रांडिंग’ और ( सही या गलत, पर निश्चित रूप से सतही) ‘मेसेज’ पहुंचाने के लिए अचूक हैं। एकदम सही निशाने पर संदेश – पाने वाले के दिमाग पर जरा भी ज़ोर डाले हुए – एकदम ‘दिल से’।

तो दलित का स्टीरिओटाइप् कैसा बनेगा? बिखरे बाल, फटेहाल, पैबंद वाले कपड़े, बैकग्राउण्ड में टूटा घर, टूटी खाट, चेहरे से टपकती यातना-भुखमरी, जुड़े हाथ – बेचारा, दरिद्रनारायण।

इस पर करुणा जगा कर कुछ सिक्के फेंक कर आप ‘सामाजिक समभाव’ में हिस्सेदारी कर सकते हैं; महान हो सकते हैं; प्राचीन संस्कृति की दुहाई दे सकते हैं; आरोप-प्रत्यारोप कर सकते है; लाभों-वोटों की फसल काट सकते हैं। ये रामजी का  केवट है – गले लगाओ; अपने छोटेपन, आपके  बड़प्पन के गुण गाएगा। दुत्कार दो; टुकुर-टुकुर ताकेगा, मूर्ख-सा गिड़गिड़ाएगा। कुछ देकर, इसके मंदिर-प्रवेश (जीवन का चरम फल!) के प्रश्न पर  आप कविता लिख सकते हैं -समाज में समरसता ला सकते हैं। फिर यह आपके गुण नहीं भूलेगा; आप जो कहेंगे, करेगा।

स्टीरिओटाइप् बनाना भावना का, दिल का काम है, दिमाग का नहीं; इसलिए इससे दिमाग, सोच, पढ़ाई, तर्क, विवेक – सब कुंद पड़ जाते हैं।  सामाजिक समानता और न्याय के लिए व्यवस्था में बदलाव के जरिए स्थायी  समाधान के सवाल ठंडे बस्ते में चले जाते हैं। व्यवस्था लंबे समय तक जस की तस चलाई जा सकती है। ऐसी पवित्र शांति के अमृत के साथ, जिसके बारे में कवि दिनकर ने (व्यंग्य में) कहा कि इसमें क्रांतिकारी बदलावों वाला जहर न घोलो-

सब समेट पहरे बिठला कर कहते कुछ ना बोलो।

शांति सुधा बह रही न इसमें गरल क्रांति का घोलो।

लेकिन  अम्बेडकर थोड़ा अलग हैं – असुविधाजनक हैं। अमृत नहीं, लावा हैं – निगलना कठिन है। न स्टीरिओटाइप् के खांचे में फिट होते हैं, न ऐसा करने के पक्षधर हैं। आँसू बहाते, हाथ फैलाए ‘बेचारे’ नहीं हैं कि करुणा का हथियार चल सके। काबिल और होनहार ‘बड़े लोगों’ जैसी छवि है। अमेरिका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और लंदन में ग्रे’स इन की बड़ी-शानदार डिग्रियाँ हैं। तेजस्वी हैं, हाथ न वंदना में  जुड़े हैं, न याचना में फैले हैं; दृढ-प्रतिज्ञ अंगुली भविष्य की दिशा दिखा रही है; टाई-सूट पहनते हैं, परंपरा की वंदना नहीं, अँग्रेजी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रखर पक्षधर हैं। भावमय राष्ट्र और भाव-विह्वल स्वतन्त्रता की गाथा गाने की बजाय अपने वंचित साथियों की गैर-बराबरी दूर करने का पक्का भरोसा मांगते हैं।

पूर्वाग्रहों की गहरी परतें, अनजाने में हमारे मष्तिष्क और अवचेतन पर पड़ी होती हैं और  सच का भी एक ‘समूह या भीड़-स्वीकृत स्वरूप’ हमारे दिमाग पर छा जाता है; पत्थर की एक मोनोलिथ शिला सा, इकहरा ‘राष्ट्र’ हमारे सोच पर जम जाता है। मुझे भी, सुविधा-प्राप्त सवर्ण संस्कारों और बचपन से पढ़ी ‘राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संघर्ष’ की इकहरी पढ़ाई की वजह से, अम्बेडकर के टाई-सूट, आज़ादी की लड़ाई के दौर में दलितों के लिए उनकी ‘सौदेबाजी’ अटपटी लगती। बाद में, बहुत से स्रोतों के जरिए, बिना ‘भाव-प्रवाह’ में बहे, थोड़ा रुक कर विवरण पढे तो सोचा – दृढ़ता  से, अ-भावुक हुए आखिर क्या मांग रहे हैं अम्बेडकर? दलितों-वंचितों  के लिए, एक सामान्य मानव जैसी गरिमा, हक, बराबरी – न ज्यादा, न कम। संदेश क्या है – शिक्षित बनो, एकजुट हो जाओ, संघर्ष करो। दिमाग से सोचो – याचक, गरीब, गमखोर दिल से नहीं।

टाई-सूट पहन कर, पूरी प्रखरता से वंचितों के हक के लिए (याचना  नहीं) मोल-तोल करते बाबासाहेब फटेहाल दलित के भाव-चित्र को  – उसे फँसाने वाले, उसे हमेशा वंचित रखने वाले स्टीरिओटाइप् को –  तोड़ रहे थे। यह स्टीरिओटाइप् ही तो दलित की समस्या, उस पर अन्याय  की जड़ में था। समस्या  का समाधान तो अपने हक़ के लिए बिना भावुक हुए तन कर खड़े हो जाने में था।

दलित-वंचित के लिए स्टीरिओटाइप् तोड़ना ज़रूरी था। पीढ़ियों से पैर बांधने वाली उस महान संस्कृति, परंपरा, रिवाजों – उन अतीत के बंधनों, उनसे जड़तापूर्ण  जुड़ाव को तोड़ना ज़रूरी था जिन पर उसे गर्व करना तो सिखाया गया था पर जिन परंपराओं और गाथाओं  में उस वंचित के लिए गर्व करने के लिए कुछ भी नहीं था –  उसकी ‘जात’ का एक भी नायक नहीं था। बेशक उनके वर्गों के हमेशा हाथ जोड़ने की भूमिका वाले ‘चरित्र अभिनेता’ तक ‘अपग्रेड’ हो सकने  वाले  केवट-हनुमान-शबरी-सुग्रीव हों,  कुछ ‘सजा’ पाए शंबूक और एकलव्य  हों; या फिर छोटे-बड़े ‘खलनायक’ राक्षस-असुर हों, जिन्हें पावन ग्रन्थों और  गौरव-गाथाओं में   हंसी आने वाली कुरूप-डरावनी  शक्लों, छिछोरे मेनेरिस्म वाले  मनुष्य और हैवान के बीच के प्राणियों जैसा ‘चित्रित’ किया जाए; जो (उनके न चाहने के बावजूद) उनके बचे-खुचे जंगली ठिकानों में भी ‘धर्म-प्रचार’ के लिए जबरन घुस आए ऋषि-मुनियों का  अगर प्रतिरोध करें, तो उनका सफाया करने ‘नायक’ प्रभु पहुँच जाएँ और उन्हें ‘मुक्ति’ प्रदान करें। (‘ट्रेड फॉलोज दि फ्लैग’ की यूरोपीय देशों की उपनिवेश बनाने के जमाने की नीतियाँ याद कीजिए।)   

इसीलिए, दलित-वंचित वर्गों के लिए ज़रूरी है  कि  अपने संघर्ष की प्रेरणा और संबल के लिए, वे नए नायक गढ़ें – जो तथाकथित प्राचीन संस्कृति के गौरव-ग्रन्थों से तो हो ही नहीं सकते,  साथ ही वे दीन-हीन, आत्मविश्वास और गरिमा से रहित स्टीरिओटाइप् भी नहीं हों।

बाबासाहेब के नेतृत्व की यही प्रासंगिकता है। शासकों से शासकों की अँग्रेजी भाषा में तर्क कर सक्ने वाला, आत्मविश्वास से दिपदिपाता, मेधावी, दैन्य-मुक्त नायक, जो दलितों-वंचितों को भरमाने वाले व्यवस्था-पोषक स्टीरिओटाइप् को तोड़ता है; मन-मष्तिष्क को हथौड़ा-सा मारते  हुए चेताता है – पढ़ो-लिखो, संगठित हो कर संघर्ष करो – तभी व्यवस्था में पुख्ता बदलाव आएंगे – तभी वह समतापूर्ण और न्यायपूर्ण हो सकेगी।

और हाँ, पिटते-अपमानित होते अन्य समुदाय भी बाबासाहेब को प्रतीक और प्रेरणा के तौर पर ग्रहण कर सकते हें – अगर तुम्हारी कोई दयनीय, पिछड़ी, अपढ़ छवि है तो उसे तोड़ो।  स्टीरिओटाइप् न बनो, न दिखो। क्योंकि  स्टीरिओटाइप् केवल करुणा पैदा करने वाले, लात खाने  या फिर कुछ फेंके हुए सिक्के पा जाने वाले ‘बेचारे’ ही नहीं होते। अक्सर कुछ स्टीरिओटाइपों की ऐसी भी ‘ब्रांडिंग’ कर दी जाती है कि वे शातिर लगें; उन्हें घृणा, खीझ, खतरे, गद्दारी, अज्ञान और गुस्से का स्थायी पात्र बना दिया जाए । उनकी एक खास पहचाने जाने वाली ‘विजुअल’ छवि में ये सारे  नकारात्मक संदेश प्रचारित कर दिए जाएँ; और  समय के साथ न बदल पाने की अपनी जड़ता की वजह से, वे खुद इस ‘ब्रांडिंग’ के मोहरे बन जाएँ।

बाबासाहेब की मूर्तिभंजक आधुनिक, शिक्षित और समर्थ छवि का उनके लिए भी यही संदेश हो सकता है – उपेक्षा, अपमान, अविश्वास और घृणा के ‘टारगेट’ न बनो। मीडिया की फसल और राजनीति के बकरे न बनो। इसीलिए, शिक्षित बनो, दिमाग की खिड़कियाँ खोलो, जिम्मेदार बनो, ‘विक्टिम’ या ‘मूढ़-शरारती विलेन’ न दिखो।  आत्मविश्वास और ताकत लाओ जो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा से आएंगे। बाबासाहेब जैसे बनो और दिखो – तभी ‘ब्रांड’ नहीं किए जाओगे, हड़पने या हमला करने वाले तुमसे कम पढे-लिखे, कम योग्य होंगे तो खुद हीन भावना के शिकार हो जाएंगे। उनके लालची या हत्यारे हाथ और इरादे ठिटक जाएंगे।

पर ये बातें भी कोई दूसरे समुदाय वाला कहेगा तो  बावजूद उनमें से कुछ के नेक इरादों के – इसके पीछे पीड़ित समुदाय की मज़ाक बनाने या उसकी पहचान मिटाने के षड्यंत्र की बू आएगी। जैसे कि साबरीमाला हो या ‘तीन  तलाक’ – महिलाओं पर करुणा तभी ईमानदार और बगैर मिलावटी लगेगी, जब वो दुख-असमानता  झेल रही महिलाओं के ही बीच से ही निकलेगी।

ठीक इसी तरह, हर वंचित-अपमानित समुदाय को अगर सम्मान, न्याय और बराबरी हासिल करने हैं, तो अपने स्टीरिओटाइप् खुद तोड़ने होंगे, अपने बीच से अम्बेडकर गढ़ने होंगे – विवेकशील, गलीज परम्पराओं से मुक्त और शिक्षा से सामर्थ्यवान-गर्वोन्नत। ऐसे ही जैसे दुनिया के दूसरे हिस्सों में खड़े हुए मुस्तफा कमाल पाशा और नेल्सन मंडेला ।

और हाँ, जिस समता और विवेक के विचार को ग्रहण कर बाबासाहेब ने परिनिर्वाण की अंतिम यात्रा शुरू की, प्रेरणा और रोशनी का वह विचार भी तो यही था – अप्प दीपो भव – स्वयं अपने दीप बनो। याचक नहीं, प्रकाश देने में समर्थ बनो। 

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं।

11 COMMENTS

  1. अच्छा लिखा है । दरअसल कुछ भी नया करने के लिए स्टीरियोटाइप्स तोड़ने होंगे, नये मानक और मार्ग बनाने होंगे । वो कहते हैं न, लीक तोड़ना या लीक से हटकर चलना या नई लीक गढना। यह लेख भी यही करता है । बधाई!

  2. अच्छा है। दरअसल कुछ भी नया करने के लिए नई राह गढना होता है, स्टीरियोटाइप्स तोड़ने होते हैं। वो कहते हैं न, लीक तोड़ना, नई लीक बनाना या लीक से हटकर चलना। बधाई!

  3. बेहतरीन आलेख। अंबेदकर की छवि के साथ उनके क्रांतिकारी योगदान को जोड़कर देखना ही उनके व्यक्तित्व का समग्र आकलन प्रस्तुत करता है।

  4. बहुत सही कहा कि दलित समाज को अपने भीतर से अम्बेडकर गढ़ने होंगें।पर क्या ऐसा हो पाया।उनके बाद इस समाज से बाबूजी,मान्यवर, बहनजी और रामविलास सदृश नेता ही निकल पाए

    • रास्ता तो यहीं से निकलेगा। और ज़रूर निकलेगा।

  5. एक संशोधन। मेरी चूक से नाम ‘अम्बेडकर’ चला गया है।सही नाम ‘आम्बेडकर’ है।नज़्म व्यक्ति की पहचान है। निजी संपत्ति है। उसमें गलती ठीक नहीं है। क्षमायाचना।
    राजेंद्र भट्ट

  6. बहुत अच्छा आलेख है. खासकर इसकी शैली. आमूल परिवर्तन के लिए दलितों को एक नहीं दर्जनों आंबेडकर चाहिए. ठीक ऐसे ही जैसे देश को एक नहीं दर्जनों गांधी चाहिए. परंतु विडंबना है कि हर महानायक एक होता है. महानायक बनने की कसौटी ही यह है कि वह बाकी जनसमाज को अपने अनुसरण के लिए बाध्य कर देता है. डॉ. आंबेडकर में यह खूबी थी. इसलिए वे अपने समकालीनों में सबसे अलग हैं, महानायक हैं. वे आधुनिक भारत के वास्तुकार, चिंतक, लेखक, पत्रकार, नेता यानी उन सब विशेषताओं का संपूर्ण पैकेज हैं जिन्हें हम किसी महानायक के लिए जरूरी मानते हैं.

  7. बहुत ही बेहतरीन तरीके से मानव मन की इन्द्रियों की प्रतिक्रिया और उसके सामाजिक प्रभाव तथा उसके स्वार्थोचित उपयोग की विवेचना का आपका अंदाज ही निराला है। विशेषतः स्टरियोटाइप के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए हार्दिक आभार।

  8. An inspiring and unbiased rightup. Congratulations Mr. Bhatt. Unless social awakening and self realisation precedes, political awakening can not produce desired results. This may be one of the reasons of not upto the mark impact of political personalities emersed from amongst the down trodens. The need is that of social revolution.

  9. डॉ. अंबेडकर को हिंदूवादी शक्तियों ने आत्मसात कर लिया है मतलब घोट कर पी लिया है। अब वह दलित के बहुत ज्यादा काम के नहीं बचे हैं। बस डॉ. अंबेडकर पर माल्यार्पण ही किया जा सकता है।

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