जुलूस

मनोज पाण्डे*

पग-पग जमी घूल से उठते सिरों का जमघट
ढक लेता माटी को,
पतझड़ कुछ ज़्यादा हुआ सा.

अधूरी इच्छाओं को दांतों से मसलकर
हँसते होंठ खिसियाई हँसी को,

मरोड़ खाते कुछ होंठ
जनते मधुमक्खी के छत्ते के टूटने सी आवाजें.

सहसा गलों में हुआ विस्फोट,
बिखरे चीखों के कतरे –
गूंजती चीखें,
फुसफुसाती चीखें,
गिरती-लड़खड़ाती चीखें.

होंठ सी दो,
तो भी
गला चीखेगा ही.
जुलूस उठेगा ही.

*मनोज पाण्डे पूर्व सिविल सेवा अधिकारी हैं। उनका ब्लॉग आप https://manoj-pandey.blogspot.com पर देख सकते हैं।

3 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here