पत्रकारिता का संकट : ये कहां आ गये हम?

राजकेश्वर सिंह*

देश के मौजूदा सारे संकट एक तरफ़ हैं, लेकिन एक नया संकट इन दिनों जेरे बहस है।  इस बहस की धार दिनों-दिन तेज़ होती जा रही है। सवाल बढ़ते जा रहे हैं। वजह यह है कि पत्रकारिता के जिस फ़ोरम पर सारी समस्याओं, अच्छे और ख़राब विषयों पर सभी तरह के विमर्श होते रहे हैं, आज वही पत्रकारिता ही खुद की विश्वसनीयता के  गहरे संकट से गुज़र रही है। बीते कुछ वर्षों में ही जैसे सब कुछ बदल गया हो। किसी  खास व्यक्ति, समुदाय से नहीं बल्कि तमाम अलग-अलग हिस्सों से पत्रकारों और पत्रकारिता पर सवालों की बौछार होने लगी है। हो भी क्यों न? क्योंकि कुछ ऐसी चीजें पहली बार हुई हैं जिससे मौजूदा दौर के पत्रकार व पत्रकारिता को बहस के केंद्र में आना ही था।

यह किसी ने नहीं छिपा है कि देश आज़ाद होने के बाद से कई बरस पहले तक उन्हीं मीडिया संस्थानों ने अलग पहचान बनाई, बुलंद मुक़ाम हासिल किया, जिसने किसी सत्ता की ख़ामियों को बेनक़ाब करने में बड़ी भूमिका निभाई हो। अब वैसा नहीं है। पहली बार ऐसा देखा गया है कि सरकार नहीं, विपक्ष को सबसे पीटने, अच्छे शब्दों में कहें तो सत्ता पक्ष को नहीं बल्कि विपक्ष को घेरने वाला मीडिया ज़्यादा चमक रहा है।


न्यूज चैनलों की लोकप्रियता का आकलन उनकी टीआरपी से होता है। बीते तीन हफ़्ते की टीआरपी में वह न्यूज़ चैनल सबसे ऊपर चल रहा है, जो बीते छह वर्षों से लगभग सारे सवाल विपक्ष से पूछ रहा है। उसने उस न्यूज़ चैनल को पीछे छोड़ दिया है जो परोक्ष रूप से खुद भी पक्षपाती सवालों के आरोपों से मुक्त नहीं था। कह सकते हैं कि बीते कुछ सालों में ही पत्रकारिता का चेहरा ही बदल गया और यह रोज़-ब-रोज और भी विकृत होता जा रहा है।

दरअसल पत्रकारिता कभी एकदम अलग एक महती ज़िम्मेदारी का काम होता था। मालिक, संपादक, पत्रकारों को बहुत इज़्ज़त की नज़र से देखा जाता था। दो-तीन दशक पहले तक बड़े-बड़े माफिया, गुंडों, भ्रष्टाचार में गले तक डूबे नेताओं व अफ़सरों के ख़िलाफ़ खबर लिखने वाले पत्रकार देर रात जब   अपना काम ख़त्म कर स्कूटर,  मोटरसाइकिल से घर जाते थे उन्हें ये चिंता नहीं होती थी कि इनमें से कोई उन पर हमला कर सकता है। अपवादों को छोड़ दें तो तब कोई माफिया, गुंडा या भ्रष्ट नेताओं के गुर्गे उन्हें खरोच तक पहुँचाने के बारे में नहीं सोचते थे।

आजकल माहौल ऐसा है कि पत्रकार अब वह सब लिखने, दिखाने की हिम्मत नहीं जुटा सकते जो उन्हें वाक़ई लिखना और दिखाना चाहिए। दूसरी तरफ़ पत्रकारों के भी ‘फैंस-क्लब’ बन गये हैं, और भी बन रहे हैं। वर्तमान विसंगतियों को आत्मसात कर चुके पत्रकार से अब जवाबदेह पत्रकारिता करने से ज़्यादा खुद के ब्रांड बनने पर ज़ोर दे रहे हैं। टीवी न्यूज़ चैनल में एंकर का काम है कि वह समाचार की गंभीरता व महत्ता के हिसाब से उसे प्रस्तुत करे लेकिन आजकल एंकर ऐसे हैं कि वे उन समाचारों को किसी राजनेता की तरह भाषण या खुद की भड़ास निकालते हुए चैलेंज देते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं। ज़्यादातर न्यूज़ चैनल पर एंकर ग़ुस्से में देखे जा सकते हैं। किसी डिबेट में किसी पैनलिस्ट से मनमाफिक जवाब न मिलने पर उस पर अपनी खीझ उतार रहे हैं। यदि किसी पैनलिस्ट ने उनकी किसी ग़ैर ज़रूरी हरकत पर सवाल कर दिया तो उसकी खैर नहीं। ऐसे एंकर को पत्रकार के रूप में उसे अपने दायित्वों की समझ भले न हो, लेकिन वह तपाक से प्रतिक्रिया ज़रूर देता है कि उसे उस पैनलिस्ट से पत्रकारिता सीखने की ज़रूरत नहीं है।

ऐसे पत्रकारों व एंकर्स पर एक कहावत सटीक बैठती है। किसी ने किसी से पूछ लिया, “क्या आप अब भी अपनी पत्नी को पीटते हैं?” अब सामने वाला जवाब दे कि – नहीं , तो भी यह माना जायेगा कि वह पत्नी को पहले पीटता था… ठीक वैसे ही ये पत्रकार और एंकर्स ऐसे पैनलिस्ट, नेताओं व अफ़सरों से ‘मुर्ग़े से अंडा दिलाने’ जैसे सवाल पूछ रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले ही एक एंकर व स्वघोषित बड़े पत्रकार ने अपने चैनल पर मुंबई के उन नेताओं को (जिन्हें वह नापसंद करता है) अपनी कमीज़ की बाहें चढ़ाते हुए पहलवान की शैली में चैलेंज दिया कि हिम्मत हो तो वे उसे इंटरव्यू दें, उससे बात करें। आखिर कोई पत्रकार, पत्रकारिता ने नाम पर ऐसा कैसे कर सकता है?

वर्तमान पत्रकारिता के बदतर हालात का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि ऐसे पत्रकारों को केंद्र की सत्ता शीर्ष पर बैठे नेता उनके सोशल अकाउंट पर उन्हें फ़ॉलो करते हैं। ऐसे में पत्रकारिता का वह हाल होना ही था, जो आजकल हो रहा है।

कभी पत्रकारिता का मक़सद सरकार, समाज को आईना दिखाना था। सरकार में बैठे ज़िम्मेवार नेताओं और अधिकारियों से सवाल पूछना था। इस लेखक ने बतौर पत्रकार उस दौर को सिर्फ़ क़रीब से देखा ही नहीं, बहुत उसे जिया भी है। पत्रकारिता से मेरा जुड़ाव कोई 33 बरस पहले हुआ था। 1988 में दिल्ली व देश के कुछ दूसरे हिस्सों से प्रकाशित एक राष्ट्रीय दैनिक में उत्तर प्रदेश के एक मुख्यमंत्री के बारे में मेरी एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। संयमित तरीक़े से सरकार व सत्ता से सवाल पूछने का मेरा यह सिलसिला ढाई दशक तक चला। उस दौर के पत्रकारों की पत्रकारिता का अंदाज़ा 1970, 1980 के दशक में समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित समाचारों की हेडलाइंस से लगा सकते हैं। एक मैगज़ीन की कवर स्टोरी थी, “मुख्यमंत्री जी, जोखई की ज़मीन लौटा दीजिए”। दिल्ली, पटना, लखनऊ और जयपुर से प्रकाशित एक समाचार पत्र ने उत्तर प्रदेश के एक मुख्यमंत्री को उनकी ज़िम्मेदारी का अहसास कराने के लिए खबर छापी, “गजरौला की ननों से कम पवित्र नहीं हैं जस्सू पंडित की बेटियां”। दरअसल मुरादाबाद ज़िले के गजरौला में दो ननों से दुष्कर्म की घटना हुई थी और तत्कालीन मुख्यमंत्री वहां खुद हालात का जायज़ा लेने गये थे, जबकि उसी दौरान मेरठ में हुई वैसी ही घटना का मुख्यमंत्री ने नज़रअंदाज़ कर दिया था।

मौजूदा दौर में भी देश के विभिन्न हिस्सों में अपराधों, घपलों और घोटालों की बाढ़ सी है – अब वह पहले से कोई कम नहीं हैं। सांसदों, विधायकों में अपराधी छवि के राजनेताओं की संख्या में इज़ाफ़ा ही हुआ है। आज देश में अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी की जो स्थिति है, उस पर चर्चा की बजाय हमारे टीवी चैनल केवल रिया-कंगना के नशे में मस्त हैं। अभी हाल ही में कोटा नीलिमा ने जो पत्रकारिता से  संचार माध्यमों के शोध के काम में चली गईं, एक टीवी डिबेट्स का एक मूल्यांकन किया जिसमें उन्होने पाया कि कैसे सरकार को मदद करने के लिए विपक्ष के मुद्दों को दरकिनार क्या जाता है। आप कोटा नीलिमा के टिवीटर अकाउंट पर जा कर या इस लिंक #ratethedebate पर जाकर उनके निष्कर्षों को टिवीटर पर पढ़ सकते हैं।

जब देश समस्याओं से जूझ रहा हो और आगे भी कोई बहुत उम्मीद न नज़र आ रही हो तो ऐसे में मीडिया की भूमिका और बढ़ जाती है। वह देश और समाज हित में बड़ा दायित्व निभा सकती है, लेकिन उससे कहीं चूक हो रही है जिसके लिए बड़ी हद तक मीडिया संस्थानों के मालिकों, प्रबंधकों के खुद के हित ज़िम्मेदार हैं। वे ऐसी संपादकीय नीति पर काम कर रहे हैं कि पत्रकार चाहकर अपने दायित्वों का ज़िम्मेदारीपूर्वक निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। दरअसल मीडिया मालिकों, प्रबंधकों की धन कमाने की नीति और रणनीति देखते-देखते पत्रकार खुद भी बेपटरी हो गया है, इसलिए पत्रकारिता का मौजूदा संकट और गहरा गया है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण, दैनिक हिंदुस्तान और अमर उजाला जैसे प्रमुख पत्रों में वर्षों वरिष्ठ पदों पर काम किया है। पाँच वर्ष उत्तर प्रदेश के राज्य सूचना आयुक्त भी रहे हैं और अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। 

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

3 COMMENTS

  1. बढ़िया लेख, लेकिन विडम्बना है कि मीडिया के पूरी तरह व्यवसाई रूप ले लेने से एक खास वर्ग ही चिंतित है। एक बड़ा वर्ग अब आम मीडिया से उकता कर सोशियल मीडिया पर ‘ आन डिमांड कंटेंट ‘ ही देखता है। फिर मीडिया अपना नफा नुकसान देख कर ही काम कर रहा है।

  2. बहुत ही खूबसूरत ढंग से आज के पत्रकार और उनकी पत्रकारिता पर विस्तार से चर्चा करते हुए सम्पादकों और पत्रकारों को उनके कर्त्तव्य एवं दायित्वों का बोध कराया है। इसके लिए आपको बधाई एवं साधुवाद है। आप अपनी निष्पक्ष लेखनी को और धार देते हुए पत्रकारों को सही मार्गदर्शन करते रहें।

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