आखिरी पन्ना : अर्थव्यवस्था पर चर्चा

आखिरी पन्ना*

आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के सितंबर 2020 अंक के लिए लिखा गया।

कोरोना ने जीवन कई तरह से बदला है। विशेषज्ञों का तो कहना है कि कुछ चीज़ें तो हमेशा के लिए बदली हैं। पाठकों और उत्तरांचल पत्रिका के बीच जो बदला है वो ये है कि पाठकों को फिलहाल पत्रिका उन्हें उनकी मेल पर पीडीएफ़ के रूप में मिलती है। उससे ये भी हुआ है कि आपके इस स्तंभकार को महीने का आखिरी दिन तक मिल जाता है जब वह आखिरी पन्ना लिख सके। और इस बार आखिरी दिन जो सबसे बड़ी खबर आ रही है, वो ये है कि इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रैल से जून के बीच विकास दर में 23.9 फ़ीसदी की गिरावट आई है।

आप सोच सकते हैं कि इसमें ऐसी चिंता की क्या बात है क्योंकि इसकी वजह पिछले कुछ महीनों से चल रहा लॉकडाउन है और इसके समाप्त होते ही अर्थव्यवस्था अपने आप पटरी पर आ जाएगी। काश कि मामला इतना सीधा-सादा होता। सच बात ये है कि ऐसा नहीं है, बिलकुल भी नहीं जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने अपने एक लेख में बताया है। कोरोना की वजह से तो पूरे विश्व की अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित हुई हैं, कुछ काफी बुरी तरह प्रभावित हुई हैं लेकिन जितनी और जिस तरह से हमारी अर्थव्यवस्था चौपट हुई है, उसका कोई उदाहरण नहीं है। अब जैसे मिसाल के तौर पर देखें कि छ:-सात वर्ष पहले तक भारत की अर्थव्यवस्था की गिनती कई वर्षों तक विश्व की तीन या चार सबसे तेज़ी से बढ्ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में होती थी लेकिन अभी हाल ही में ‘द इकोनोमिस्ट’ ने जो 42 अर्थव्यवस्थाओं की लिस्ट जारी की है, भारत की अर्थव्यवस्था गिरकर अब 35वें स्थान पर आ गई है यानि तीसरे स्थान से 35वें पर! इसका दोष आप पूरी तरह कोरोना पर नहीं दे सकते क्योंकि अर्थशास्त्री बताते हैं कि भारत में मंदी कोरोना से पहले ही आनी शुरू हो गई थी। दरअसल 2016 से ही हम ऐसी स्थिति में पहुँच गए थे कि हर साल की विकास दर उससे पिछले वर्ष की विकास दर से कम होती थी।

भारत की अर्थव्यवस्था जिसकी गिनती तेज़ी से बढ्ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में तीसरे नंबर पर थी, कोरोना काल में अन्य देशों की अपेक्षा इतनी कैसे पिछड़ गई। इसका उत्तर विशेषज्ञ ये बताते हैं कि नोटबंदी की भारी भूल से पहले ही बुरी तरह कमज़ोर हो चुके देश के छोटे छोटे काम धंधे जिन्हें सूक्ष्म और लघु उद्योग कहा जाता है, कोरोना के बाद हुए बिलकुल बिना प्लानिंग के किए गए लॉकडाउन की मार बिलकुल नहीं सह सके और इसका कुपरिणाम अप्रैल से जून की तिमाही में सामने आया। अब लॉकडाउन खुल जाने के बाद भी जल्दी कोई उम्मीद नहीं बनती क्योंकि देश के विभिन्न भागों से जिस तरह बिना किसी तैयारी के श्रमिकों को वापिस ग्रामीण क्षेत्रों में ठेल दिया गया, उससे ना केवल काम-धंधों पर बुरा असर पड़ा अपितु करोना का ग्रामीण इलाकों में फैलने का भी खतरा बढ़ गया। कोई आश्चर्य नहीं कि अगस्त के अंत में भारत दुनिया में एक दिन में सबसे ज़्यादा कोरोना-ग्रसित मरीजों का देश बन गया। और यह तो तब है जब हम अभी तक भी प्रति दस लाख पर 30 हज़ार टेस्टिंग कर रहे हैं और टेस्टिंग की ये दर कोरोना-ग्रसित मरीजों में शीर्ष के दस देशों में नीचे से दूसरे नंबर पर है।

इस हालत में चिंता की बात ये है कि समाज के तौर हम एक तरह से अज्ञान और अपढ़ता की दुनिया में धकेले जा रहे हैं। आप में से कुछ पाठकों ने शायद ये नोट भी किया हो कि कल जब जीडीपी से संबन्धित आंकड़े आए तो साधारण परिस्थितियों में सभी टीवी चैनल्स पर यही चर्चा का विषय होना चाहिए था लेकिन कई न्यूज़ चैनल्स ने तो इतनी बड़ी बात का ज़िक्र तक नहीं किया जैसे सकल घरेलू उत्पाद में लगभग एक चौथाई की कमी की खबर का कोई महत्व ही ना हो और वहाँ रिया और सुशांत की खबर ही चलती रही। एक नामी इंग्लिश चैनल पर तो उस समय हास्यास्पद स्थिति बन गई जब रिया और सुशांत पर चल रही चर्चा के दौरान चर्चा में भाग ले रहे एक मेहमान ने जीडीपी आंकड़ों का ज़िक्र शुरू कर दिया तो एंकर हड़बड़ा गया और मेहमान पर चिल्लाने लगा कि आप समय खराब कर रहे हैं।

धीरे-धीरे हम ऐसी दुनिया की तरफ बढ़ रहे हैं जहां झूठ और सच के बीच फर्क करना मुश्किल होता जा रहा है बल्कि झूठ को सच बना कर पेश करने का रिवाज़ बढ़ता जा रहा है।   

(*आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के सितंबर अंक के लिए 31 अगस्त 2020 को लिखा गया था।)

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