विजय प्रताप
आज मुझे ऐसे लोगों के बीच बोलते हुए बहुत अच्छा लग रहा है जो धर्म तथा जाति की किसी दीवार को नहीं मानते। वे केवल इंसानियत की जात पर ही विश्वास करते हैं। आज भी हमारे समाज में जातिगत भेदभाव देखने को मिलता ही रहता है। जाति के रूप में अगड़े लोग उन्नति करते जा रहे हैं और पिछड़े लोग और अधिक पिछड़ते जा रहे हैं। अगड़ों की रिश्तेदारी तथा जान.पहचान अगड़े लोगों से ही है जिस से वे उन की सलाह या मदद से जीवन में तरक्की करते जा रहे हैंए जबकि वहीं पिछड़े लोग साधनों की कमी के चलते पिछड़ते ही जा रहे हैं।
दुनिया में मौजूद सभी समाजों में जाति व्यवस्था थी। यूरोप और अमेरिका में भी लोग अपने.अपने समूह बना कर रहते थेए फिर चाहे वो राष्ट्रपति बुश हों या अमेरिकी संसद में मौजूद कोई और व्यक्ति। पहले से ही मानव की समूहों में रहने की प्रवृत्ति रही भारतीय समाज भी इसी तरह बना हुआ है। लेकिन धीरे.धीरे वह समाज जातियों,भाषाओं तथा अमीर-गरीब में विभाजित हो गया। बड़े लोगों ने अपने समाज को संपन्न बना लिया जबकि साधनों के अभाव में अन्य जाति के लोग पिछड़ने लगे। धीरे-धीरे जाति के आधार पर भेदभाव तथा राजनीति होने लगी।
आगे चल कर जातिगत भेदभाव के खिलाफ लोगों ने आवाज उठानी शुरू की। इस के लिए कानून भी बनाये गये – जाति के आधार पर भेदभाव करने वालों को सजा भी दी जाने लगी। लेकिन कानून बनने के बाद भी लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा है। समाज वैज्ञानिकों द्वारा किये गये सर्वेक्षण के अनुसार इस तरह के केस तो दर्ज होते हैं लेकिन वे किसी तार्किक परिणति पर नहीं पहुँच पाते हैं। समाज वैज्ञानिकों ने चौंकाने वाले आँकड़े पेश किये हैं। इन आँकड़ों को देख कर लगता है कि हम ज़बानी रूप से ही समानता की बात करते हैं – वास्तव में असमानता ही ज्यादा देखने को मिलती है।
समाज में जातिगत भेदभाव आज ही पैदा नहीं हुआ है। यह पहले से ही कायम था। जब देश छोटी-छोटी रियासतों में बँटा हुआ था तब जाति के खिलाफ बड़ी बगावत नहीं होती थी। कभी भी समता की भूख ने राष्ट्रव्यापी रूप धारण नहीं किया। आजादी से पहले भी जातिगत भेदभाव मौजूद था। उस समय समाज में सभी लोगों को साथ मिला कर चलने के लिए प्रोत्साहित किया गया ताकि राष्ट्रीय एकता कायम हो सके और ऐसा हुआ भी।
समाज में समानता कायम करने के लिए कई आंदोलन चलाये जाते रहे हैं। इस के लिए कई राजनेता भी काम करते रहते हैं। कई राजनेता अपने.आप को दलित समर्थक बताते हुए पिछड़ी जाति के लोगों के हितों के लिए कार्य भी कर रहे हैं। समता की ओर बढ्ने में लोकशाही ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की है। जनता की निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले राजनेता पिछड़ी जाति के प्रति होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज भी उठाते हैं और उन्हें न्याय दिलाने का प्रयास भी करते है। लेकिन सत्ता में काबिज जो राजनेता समाज में मौजूद जाति-व्यवस्था के प्रति संवेदनहीनता दिखाते हैं, वे छोटी जातियों के प्रति होने वाले अत्याचार को और तीखा बना देते हैं।
जातिगत भेदभाव के प्रति हम लोगों को मिल कर आंदोलन चलाने चाहिए । इन मिश्रित आंदोलनों से एक ताकत पैदा होती है। इन संगठनों में कई लोग जाति की अनदेखी करते हुए केवल सरकारी नौकरियों में आरक्षण चाहते हैं। अमीरों और गरीबों के बीच मौजूदा शोषण की बात ही करते हैंए इस से जाति का सवाल टल सा जाता है। हम सब को गाँधी जी के संगठन की तरह संगठन बनाना चाहिए। जैसे ही गाँधीजी कांग्रेस में सक्रिय हुए तो उन्होंने 1920 में एक ऐसा फैसला किया जिस से प्रत्येक कार्यकर्ता सम्मानजनक रूप में ईमानदारी से कार्य कर सके। उन्होंने कार्यकर्ताओं की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए ष्तिलक स्वराज फंड नाम का एक फंड बनाया जिस से वे अपनी जरूरतों को आसानी से पूरा कर सकें और ईमानदारी से काम कर सकें।
अगर हम भी अपने संगठनों को लोकतंत्र कायम करने तथा जाति तोड़ने में सक्षम बनाना चाहते हैं तो उन्हें भी ईमानदारी और इज्जत से काम करने के लिए सुविधाएँ दें। गाँधी जी ने इस बात को समझा और कांग्रेस जैसी पार्टी जिस में अधिकतर लोग अंग्रेजी बोलते थे उस में जवाहर लाल नेहरू जैसे पैसे वाले घरों के लोग भी शामिल थे लेकिन उन्होंने कहा कि मैं सब से पहले फंड बनाऊँगा ताकि सभी लोगों को तनख्वाह दी जा सके। उन्होंने मोतीलाल नेहरू जैसे अमीर आदमी के बेटे जवाहर लाल नेहरू से भी कहा कि अगर उन्हें कांग्रेस में काम करना है तो तनख्वाह ले कर ही करना पड़ेगा। उन्होंने उसी तरह से एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन कर एक अच्छे कार्यकर्ता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की। उन्होंने खादी और टोपी पहन कर गाँव.देहात में घूम-घूम कर लोगों को एकत्र किया और जाति तोड़ो संगठन के लिए काम किया।
हमें भी ऐसा ही कार्यकर्ता बन कर जाति के बंधनों को तोड़ने का हर संभव प्रयास करना है। अपने रोजमर्रा के कामों को छोड़ कर समाज के कामों को महत्ता देने का प्रयास करना होगा। हर आंदोलन के लिए कुछ पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है, इसलिए हम में से कुछ लोगों को इस काम को पूर्णकालिक रूप से अपनाने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा तभी होगा जब हम उन लोगों को आर्थिक साधन उपलब्ध करा सकेंगे।
जब तक पूरे समाज का नेतृत्व दलित और पिछड़ी जातियों द्वारा नहीं होगा तब तक जाति बंधन नहीं टूट सकते। अगर समाज का नेतृत्व करने वाले नेता उस विशेष समाज से आएँगे तो वे उन की समस्याओं को आसानी से समझ सकते हैं क्योंकि उन्होंने उन समस्याओं को स्वयं भोगा है और महसूस किया है। वे लोग सामाजिक समता का नारा जोर से लगा सकते हैं। जब तक लोकतंत्र पर उच्च वर्ण का कब्जा रहेगा तब तक जाति बंधन नहीं टूट पाएगा। देश में सामाजिक रूप से समता कायम करने के लिए आर्थिक समानता कायम करने का प्रयास करना चाहिए।
समाज में मौजूद असमानता को मिटाने के लिए समाज के निचले एवं पिछड़े तबके के अधिक से अधिक लोगों को आगे आना चाहिए। बहुत सारे राजनीतिक समूह पिछड़ी जातियों को समानता दिलाने के लिए जागरूक करते रहते हैं लेकिन स्वयं जनता सोती रहती है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि कुछ समाजों तथा क्षेत्रों में आर्थिक संपन्नता तथा अन्य कारणों से जातिगत भेदभाव देखने को नहीं मिलता है। तो उस समाज में मौजूद व्यक्ति अन्य लोगों की बातों तथा अन्य क्षेत्रों में होने वाली असमानता की अनदेखी करते हुए अपने में ही खोया रहता है। जैसे हम ने उत्तरकाशी में एक दलित सम्मेलन तथा उस के बाद कई छोटी.छोटी गोष्ठियाँ की थीं। उन गोष्ठियों में जाने से पहले हम ने सोचा भी नहीं था कि उत्तराखण्ड जैसे क्षेत्र में भी जातिवाद मौजूद है। लेकिन वहाँ भी जातिवाद मौजूद था।
समाज में मौजूद असमानता को तभी दूर किया जा सकता है जब समाज के हर क्षेत्र एवं वर्ग से इस के खिलाफ आवाज उठाई जाए। ऐसा तभी हो सकता है जब उच्च जातियों में पैदा हुए लोग अपने घमंड को त्याग कर सब के दर्द को समझ कर मानव कल्याण के लिए प्रयास करें। जैसे बिहार में जयप्रकाश जी के नेतृत्व में चलाया गया सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन था। इस आंदोलन के दौरान 5 जून 1974 को जयप्रकाश जी ने पूरे समाज को संपूर्ण रूप से बदलने का प्रयास किया। इसी के आधार पर 1 जनवरी 1975 को छात्र युवा संघर्ष वाहिनी नाम से एक संगठन भी बनाया गया। इस संगठन में शामिल लोग आज भी अपने नाम के साथ अपनी जाति का प्रयोग नहीं करते।
हिमालय स्वराज अभियान द्वारा “जातिगत व्यवस्था” पर हुई गोष्ठी में विजय प्रताप के व्याख्यान के कुछ अंश।