लोकतन्त्र के संरक्षण हेतु जातीय एवं धार्मिक उन्माद से ऊपर उठना होगा

आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के मई 2023 अंक के लिए लिखा गया है।

उत्तरांचल पत्रिका के नियमित पाठक तो शायद सोचते होंगे कि आखिरी पन्ना लिखना भी कितना आसान होता होगा क्योंकि इस एक पृष्ठ में  आखिर सामग्री होती ही कितनी है? ऐसे ही कोई भी विषय उठाया और कर दी आलोचना शुरू ! बमुश्किल आठ-नौ सौ शब्द हुए नहीं कि लिखना बंद कर दिया और भेज दिया छपने के लिए। काश कि ये इतना ही आसान होता। कम से कम मुझ जैसे स्तंभकार के लिए तो बिलकुल आसान नहीं है।

अपना मामला भी बिलकुल अजब है – पहले तो विषय ही खोजते रहते हैं। संपादक महोदय से विषय की बात करें तो वह यह कह कर टाल देते हैं कि आखिरी पन्ना का विषय कब से होने लगा? याद दिलाते हैं कि बरसों पहले जब हमने पहली बार आखिरी पन्ना लिखा तो खुद ही बंधनमुक्त रहने की मांग की थी! जी, वह तो सही है लेकिन इस बार के अंक में क्या-क्या आ रहा है, ये तो बता दें ताकि हमारा स्तम्भ पत्रिका की शेष सामग्री के साथ लयबद्ध हो सके तो संपादक जी कह देते हैं कि आखिरी पन्ना को लयबद्ध रहने की ज़रूरत ही नहीं है। आप अपना अलग राग ही गाइए, बस अनुशासनहीन नहीं होंगे तो आपका राग भी समवेत स्वरों में विलय हो ही जाएगा। अब हम क्या जवाब दें, अनुशासन में रहने की सलाह भी हल्के से दे ही दी – अनुशासन शब्द ही ऐसा कि एक बार तो कम्पकपी छूट जाती है। हम कोई कल के छोकरे तो हैं नहीं, 1975 में इन्दिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया था और कई तरह के ‘अनुशासन’ लगाए थे तो किशोरावस्था को तो प्राप्त हो ही गए थे।

अनुशासन में रहने की कई clauses या उपधाराएं होती हैं – उन में से एक है, सवाल ना पूछना! जो प्रसाद मिल रहा है, चुपचाप उसे ग्रहण कर लो और संतोष कर लो। आपातकाल में ऐसा अनुशासन बहुत ज़्यादा हो गया था। वैसे तो शक्ति के किसी भी केंद्र को अपने आप से सवाल पूछा जाना पसंद नहीं लेकिन लोकतन्त्र भी तो अपने आप में एक शक्ति केंद्र बन गया है अर्थात राज्य (सत्ता) और लोकतन्त्र अपने आप में दो शक्ति केंद्र बन गए और क्या उनका आपस में टकराव होता रहता है? ऐसा ही लगता है। आपातकाल में वो टकराव ज़्यादा हो गया था लेकिन कुछ ना कुछ टकराव सत्ता और लोकतान्त्रिक मूल्यों में हमेशा रहता है – आज भी है। ऐसे में महत्वपूर्ण बात ये होती है कि इस टकराव को समाज कैसे हैंडल करता है और अपने लिए लोकतन्त्र को कैसे बचाता है।

दुनिया के बड़े हिस्से में बृहत समाज ने सभ्यता के क्रमिक विकास के दौरान अपने लिए लोकतन्त्र को खटा है – अभी भी विश्व के कई हिस्सों में जनता की वाणी की कोई सुनवाई नहीं है लेकिन सौभाग्य से स्वतन्त्रता के बाद भारत की जनता को बिना किसी भेदभाव के वयस्क मताधिकार मिला, समानता का अधिकार मिला, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मिली, अपने-अपने धर्म को मानने की स्वतन्त्रता मिली और एक ऐसा संविधान मिला जिसने जनता को सर्वोपरि माना। लोकतन्त्र की इन्हीं विशेषताओं के चलते आज़ादी के बाद पिछले 75 वर्षों में हमने हर क्षेत्र में खूब प्रगति की। आर्थिक प्रगति के अलावा देश ने एक बड़ी छलांग मारी समाज के दलितों एवं पिछड़ों की बढ़ी हुई सामाजिक और राजनीतिक शक्ति के रूप में। जहां गांधी जी ने स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान ही दलितोद्धार की नींव रख दी थी, वहीं डॉ अंबेडकर द्वारा प्रज्वलित अलख ने दलितों में आत्म-सम्मान और स्व-गौरव का भाव भरा। इसी प्रकार से आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ी बहुत सारी मध्यम जातियों का भी सशक्तिकरण हुआ।

यह सब हम क्यों दोहरा रहे हैं? शायद ये सोच कर कि इतने सारे लोगों का इस लोकतन्त्र से (जिसे आमतौर पर आंशिक लोकतन्त्र ही कहा जाता है) सशक्तिकरण हुआ है तो क्या वो लोग इसे कभी भी कमजोर होने देंगे या इसे ऐसे ही हाथ से जाने देंगे? तो हमें लगता है कि राज्य सत्ता और लोकतन्त्र के इस सतत चलने वाले संघर्ष में चाहे पलड़े ऊपर-नीचे होते रहें लेकिन देश की आम जनता लोकतन्त्र का संवर्धन-संरक्षण अपने ढंग से और अपनी गति से करती रहेगी। क्या पता धीरे-धीरे एक समय ऐसा भी आए कि हमारा लोकतन्त्र पश्चिम की बेड़ियों से भी मुक्ति पा जाये और कुछ स्वावलंबी ग्राम-स्वराज्य जैसी व्यवस्था आ जाए जिसका सपना गांधी ने देखा था। लेकिन अभी वो दूर की बात लगती है और हमें वर्तमान में, ये जैसा भी लोकतन्त्र है, उतना बुरा भी नहीं है और उससे ही काम चलाना है।

अब देखिये, कहाँ तो हम विषय खोज रहे थे और खोजते-खोजते अनुशासन और अनुशासन-पर्व (आपात-काल) की चर्चा हुई, फिर लोकतन्त्र की चर्चा हुई और उसके संरक्षण-संवर्धन की चिंता हुई और फिर वो समय आया जब हमारी शब्द-सीमा समाप्त हो रही है और विदा लेने का समय आ गया है। बस आते-जाते एक बात कह दें – आपकी जहां भी किसी से देश-हित में चर्चा हो तो अपनी ये बात ज़रूर कहना कि मित्र, हमें देश को आगे ले जाना है तो हमें जातीय और धार्मिक विभेदों से ऊपर उठना होगा – बहुत उठे हैं हम लेकिन अभी लंबा सफर बाकी है। हमें एक-दूसरे से जुडने का प्रयास करना है, टूटने का नहीं! अभी कोई भाई जी गुरुद्वारे में श्री गुरु ग्रंथ साहब के किसी पद की व्याख्या कर रहे थे, वो बोले कि तोड़ने से बड़ा कोई पाप नहीं और जोड़ने से बड़ा कोई पुण्य नहीं। तो आइये, हम भी जितना हो सकें पुण्य कमाएं लेकिन तोड़ने का पाप तो कभी ना करें, लेशमात्र भी नहीं।

*******

विद्या भूषण अरोड़ा

Vidya Bhushan Arora

Banner image by 🆓 Use at your Ease 👌🏼 from Pixabay

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here