तीन औरतें एक गाँव की

सत्येन्द्र प्रकाश*

इस लेख में मैं आज आपको अपने गाँव की तीन महिलाओं की कहानी सुनाऊँगा। पर पहले ही बता दूँ कि ये कहानी असाधारण महिलाओं की नहीं है। बल्कि अति साधारण ऐसी तीन औरतों की है जो गाँव की स्मृति पटल से कब की गायब हो चुकी हैं या यूं भी कह सकते हैं कि वो कभी स्मृति पटल पर थीं ही नहीं। गाँव की आम परिचर्चा में उनके नाम कभी नहीं आते। परिहास के लिए भी नहीं।

उनके जीवन में एक सा कुछ भी तो नहीं था। ना कद ना काठी ना शक्ल ना सूरत। उनकी जाति  भी एक नहीं थी। काम करते हुए भी तो उन्हें कभी साथ नहीं देखा जाता। एक दूसरे की सहेलियाँ तो कतई नहीं थी। भूले भटके भी साथ बैठकर दूसरों की निंदा करते तक इन्हें नहीं देखा जाता। तो फिर ऐसा क्या था इन तीनों में जो आज ये एक साथ इस कहानी की किरदार बन रहीं हैं। कुछ भी एक सा ना होते हुए भी कुछ तो था एक समान इन तीनों में। हाँ, गाँवों में कुछ एक समान ना होते हुए भी एक समानता तो आम थी। गरीबी और विपन्नता की। इसके अलावा भी एक समानता थी इनमें। असमय अपने पतियों को खो देने की।

उन दिनों ये गरीबी और विपन्नता वाली समानता इतनी असामान्य नहीं थी कि स्मृति में इनकी छाप बनी रहे और इन्हें साथ लेकर कहानी रची जा सके। फिर वैसी कौन सी बात है कि आज इन तीनों ने इस कहानी को साथ दस्तक दी है। पच्चीस वर्ष से ज्यादा हो रहा होगा इनमें से आखिरी को भी धरती छोड़े। एक को गुजरे तो चालीस साल से भी अधिक हो गया होगा। इतने लंबे अंतराल के बाद किसी एक के दिलो-दिमाग में अगर ये आज भी जीवित हैं तो उसकी दृष्टि से इनमें कुछ तो असाधारण है। इनका अति साधारण होना ही वो असाधारण बात है जो इस कहानी की प्रेरणा है। साठ-सत्तर या फिर उसके बाद के दशक तक ऐसे चरित्र थोड़े बहुत अंतर के साथ हर गाँव में होते रहे हैं। अपने जीवन काल में लोगों के उपहास और दोहन का शिकार होते रहने में ही इनके जीवन की ‘सार्थकता’ होती रही।  

सरली, जी हाँ सरली, सरला नहीं जो आज भी एक प्रचलित नाम है। उन तीन में सरली वो पहली औरत है जिसकी बात यहाँ होनी है। सरली नाम का परिष्कृत हिन्दी शब्द ‘सरल’ यानि सुलझा हुआ से कोई दूर दूर का भी रिश्ता नहीं है। भोजपुरी का ‘सरल’ तो सड़े हुए के लिए प्रयोग में आता है। सरली ने अपना नाम भोजपुरी के सरल से ही पाया था। माता पिता क्या अपने बच्चों का नाम ऐसा भी रख सकते हैं। चौकिए नहीं। उन दिनों तो ये आम बात थी। अपने बच्चों को दूसरे की नजर से बचाने के लिए माँ बाप ऐसा नाम अक्सर रख दिया करते थे। खास कर वैसे माँ बाप जिनके कई बच्चे बालपन में ही काल कवलित हो गए होते, वो एक बच्चे का नाम ऐसा भी रख देते। ऐसा नाम रखने पर बच्चे के जीवित बचे रहने की संभावना बढ़ जाती थी, ऐसी मान्यता थी।

प्रौढ़ सरली की जो छवि आँखों में अटकी हुई है वो इस नाम के अनुरूप ही है। उसकी शारीरिक संरचना के लिए ‘इकहरे’ शब्द का प्रयोग भी शायद इस शब्द का अपमान होगा। कृशकाय इतनी कि चिर रोगग्रस्त होने का बोध हो। शरीर का लंबा होना इस बोध को और गहरा कर देता। गोल मटोल छोटे चेहरे पर धँसी आँखे और पिचके गाल, ऐसा प्रतीत होता कि काले पतले डंडे पर इसे टिका दिया गया हो। काफी कुछ फसलों को नुकसान से बचाने के लिए खेतों में खड़े किए गए पुतले जैसा।

खेती बारी तो कुछ खास थी नहीं। जीवन यापन के लिए दूसरों के खेतों में मेहनत मजदूरी का आसरा होता किन्तु खेतों का काम पूरे साल का तो होता नहीं। तो वैसे समय में जब खेतों का काम नहीं है तो सरली भूख कैसे मिटाती? ये यक्ष प्रश्न सिर्फ सरली के समक्ष नहीं होता बल्कि गाँव की लगभग तीन चौथाई आबादी उन दिनों अस्तित्व के इस सत्य का सामना करती। जिन घरों में मर्द होते और  परिवार में कई सदस्य रहते तो भरण पोषण के कई और विकल्प होते। भैंस पालन और दूध की बिक्री ऐसे ही विकल्पों में एक होता। कई परिवार के एक-आध सदस्य असम और बंगाल जाकर परिवार के वैकल्पिक आमदनी का जरिया बन जाते।

सरली के पास ऐसा कोई रास्ता नहीं था। बाहर कमाई करने वाला कोई अन्य सदस्य परिवार में था नहीं। भैंस पालने में जिस शारीरिक सामर्थ्य की आवश्यकता होती, सरली उससे भी वंचित थी। सरली फिर करे तो क्या करे। काफी सोच विचार कर उसने गाय पालने का मन बनाया। देशी गाय कम कीमत पर उपलब्ध हो जातीं। भैंस की तुलना में गाय पालना आसान भी होता। गाय कम शारीरिक श्रम से संभाली जा सकती। चारा इत्यादि की आवश्यकता भी गाय के लिए कम होती। हाँ भैंस की तुलना में गायें दूध भी कम देती तो आमदनी भी कम ही होता। सरली के अकेले पेट के लिए देशी गाय से होने वाली आमदनी भी शायद काफी थी।

सरली की गाय ही उसे मेरी माई (माँ) के करीब लाई। माई को मेरे लिए गाय का दूध चाहिए था। भैंस के दूध और बुद्धि में छत्तीस का संबंध है ऐसा माई मानती थी। सो भैंस का दूध पिला माई मेरी बुद्धि मोटी नहीं करना चाहती। और व्यावसायिक कारणों से गाँव में गाय का दूध आसानी से उपलब्ध नहीं था। बहुत पड़ताल के बाद किसी ने माई को सरली और उसके गाय के विषय में बताया। बताने वाले ने यह भी बताया की सरली का घर गाँव के दूसरे छोर पर है। पता नहीं वह अकेली औरत नियम से हर दिन इतनी दूर दूध पहुँचाने को राजी होगी भी या नहीं।

फिर भी माई ने उसे बुलवा भेजा। गाँव में यद्यपि गाय का दूध आसानी से उपलब्ध नहीं था, इस दूध के ग्राहक भी न के बराबर थे। भैंस के दूध के मुकाबले गाय का दूध कम मीठा और पतला होता। दही भी ठीक से नहीं जमता। तो गाय के दूध का ग्राहक मेरी माई के जैसा बमुश्किल ही मिलता जिसे अपने बच्चे की बुद्धि कुशाग्र करवानी हो। सरली तो जैसे प्रतीक्षा ही कर रही थी। उसने माई का प्रस्ताव सुनते ही तपाक से हाँ कर दी। नियम से हर दिन सुबह नौ बजे से पहले दूध पहुँचाने की शर्त भी सरली को मान्य थी। नौ बजे से दूध पहुँचाने की शर्त माई ने सरली को परेशान करने के लिए नहीं रखा था। दूध नौ बजे से पहले चाहिए था ताकि स्कूल जाने से पहले मैं दूध पी सकूँ।

बचपन में दूध मुझे कतई पसंद नहीं था। माई के साथ सरली के इस करार से मुझे काफी तसल्ली हुई। सरली की काया इस करार के शीघ्र टूटने का स्पष्ट संकेत दे रही थी। कृशकाय सरली लगभग एक मील या उससे भी अधिक की दूरी तय कर समय पर दूध पहुँचाने का अपने इस करार का मान कब तक रख पाएगी। दूध आने का सिलसिला चल पड़ा। मेरी दूध न पीने की जिद्द और माई का मुझे दूध पिलाने का संकल्प के बीच द्वन्द छिड़ गया। सरली के दूध का बखान माई ऐसे करती जैसे कामधेनु के दूध के सभी गुण उसके गाय के दूध में उपलब्ध हों। माई का संकल्प विजयी हुआ या सरली का बिना नागा दूध पहुँचाने का श्रम, मुझे नहीं पता। पर माई और सरली की साँठ गाँठ के सामने मेरी जिद्द कमजोर पड़ गई। स्कूल जाने से पहले मैं नियमित दूध पीने लगा।

दूध पीने का क्रम तो रोज का है। पर गाय या भैंस के दूध देने का क्रम आठ दस माह में टूटता है जब अगला बछड़ा जनने की प्रक्रिया पुनः शुरू होती। सरली की गाय फिर से गर्भवती हुई और धीरे-धीरे उसका दूध देना बंद हो गया। मेरे लिए गाय के दूध की तलाश पुनः चालू हुई। इसी क्रम में ‘सुगनी’ को माई ने बुलवाया। सुगनी के बारे में मैंने सुन रखा था। देखा भी था उसे। गाँव की बेटी थी। ब्याह के ससुराल चली गई थी।

तीन-चार साल के भीतर ही एक छोटे बच्चे शंकर को उसकी गोद में छोड़ उसके पति स्वर्ग सिधार गए। अबोध शंकर को गोद में लिए सुगनी अपने नैहर(मायके) वापस आ गई। कोई और चारा नहीं था। पति की मृत्यु असमय हुई थी। जैसा उन दिनों होता था, खामियाजा सुगनी को भुगतान ही था। ससुराल के गाँव में पहले काना-फूसी और फिर खुली चर्चा होने लगी। पति को खा गई। ये डायन है। बारी-बारी परिवार के अन्य लोगों को भी खा जाएगी। एक भाई के गुजरने के बाद उसकी अबला पत्नी को गाँव घर से बेदखल करने का सहज तरीका यही होता था। अंधविश्वास में डूबा समाज इसे आसानी से स्वीकार भी कर लेता। किसी भी तरह की कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता।

सुगनी कुछ दिन माँ बाप के साथ रही, पर वे भी शीघ्र ही गुजर गए। ससुराल से डायन का तमगा ले मायके आने वाली सुगनी, मायके में भी संदेह की नजर से देखी जाने लगी। ऐसे में माई द्वारा सुगनी को बुलाना, उससे अपने बेटे के लिए गाय का दूध खरीदने के लिए, एक बहुत ही साहसिक कदम था। माई अंध-विश्वासी ना हो, ऐसा नहीं था। पर मुझे गाय का दूध ही मिले ताकि मेरी बुद्धि कुशाग्र हो, माई की सर्वोच्च प्राथमिकता थी या फिर मन के किसी कोने में ऐसे अंधविश्वासों को खारिज करने की भावना, ये तो माई को ही पता होगा। कुल मिला कर ये कि सुगनी से दूध लेने की बात पक्की हो गई। सुगनी का घर हमारे घर के करीब भी था। तो उसके लिए दूध पहुँचाना आसान भी था।

सरली से बिल्कुल अलग, सुगनी गोरी चिठ्ठी अच्छी नाक नक्श वाली आकर्षक महिला थी। गाँव की बेटी होने के नाते माई वगैरह से चुहल करने का हक बनता था, जिसे सुगनी बड़ी सहजता से कर लेती। दूध पहुँचाने के क्रम में सुगनी के साथ कभी कभार शंकर भी आता। शंकर के लिए माई की आँखों में एक प्यार भरी ममता झलकती। माई कभी गुड के साथ रोटी लपेट कर शंकर के हाथों में दे देती तो कभी एक दो बिस्कुट अगर घर में बचा रहा हो तो। एक दूसरे के बेटों के लिए ये ममता सुगनी के बर्ताव में भी साफ झलकती। सुगनी ने जब तक मेरे लिए दूध पहुँचाया, दूध की शुद्धता का उसने खास ख्याल रखा।

‘बिलगुआ के माई’ तीसरी किरदार है इस कहानी की। इसका अपना नाम शायद इसे भी पता ना हो। बेटे का नाम ‘बिलगु’ था। तो पूरा गाँव इसे ‘बिलगुआ के माई’ कहकर ही बुलाता था। बिलगु के बापू बिलगु को छोटी उम्र में ही छोड़कर चले गए। बिलगु की माई मेहनत मजदूरी कर बिलगु को पालती रही, इस उम्मीद में की बिलगु के बड़े होने पर उसे थोड़ी राहत मिलेगी। बढ़ती उम्र के साथ बिलगु अपनी बुद्धि की सीमाओं और अटपटे व्यवहार को लेकर गाँव के लिए उपहास का साधन मात्र बन कर रह गया। अपनी माँ को राहत देने की कौन कहे वो अपना पेट पाल ले यही बहुत था। कहीं टिक कर मेहनत मजदूरी करना बिलगु की फितरत में नहीं था। बेगार के बाद भोजन मिल जाए बिलगु को इतना ही आता था। उसकी माई के प्रति उसकी कोई जिम्मेदारी है बिलगु को इसका भी इल्म नहीं था।

‘बिलगुआ के माई’ के लिए अपने पापी पेट की चिंता स्वयं की जिम्मेदारी थी। गाँव की औरतें  खुले आसमान के नीचे उन्मुक्त वातावरण में खेतों के काम को ज़्यादा पसंद करती। पर बिलगु की माई खेतों की बजाय घर के चौका बर्तन का काम पसंद करती। शायद खाने को कुछ अच्छा मिल जाए ये लोभ उसके मन में हावी रहता। या इस काम में कम शारीरिक श्रम की आवश्यकता थी। वजह जो भी हो, बिलगु की माई का  मेरे घर में प्रवेश इसी क्रम में होता।

स्थूल शरीर वाली चौड़ी कद काठी की बिलगु की माई, घेघा (goitre) के बावजूद गले में हँसली हरदम पहने रहती। नाम आते ही दिमाग में एक छवि उभर आए ऐसी कद काठी वाली थी बिलगु की माई।  शादी ब्याह आदि खास आयोजनों में इसकी उपस्थिति अनिवार्य होती। कभी ना तृप्त होने वाली भूख की मारी, बिलगु की माई को भी इन अवसरों का इंतजार रहता। काम काज के अतिरिक्त इन अवसरों पर परिवार की महिलाओं के मनोरंजन की भी जिम्मेदारी स्वतः अपने सिर ले लेती बिलगु की माई।

गाँव एक घर पर जब डकैतों ने धावा बोला, गाँव ने बिलगु की माई का अलग ही रूप देखा। शौर्य और पराक्रम की प्रतिमूर्ति बन बिलगु की माई गाँव की औरतों को नेतृत्व देती डकैतों पर टूट पड़ी। देशी कट्टों से छर्रों की बौछारें होती रही पर निर्भीक निडर बिलगु की माई ना खुद डिगी ना बाकी औरतों को अपना साहस खोने दिया। ‘कल्लू’ की कहानी में इसका जिक्र आया है। डकैतों के दाँत खट्टे कराने वाली गाँव की इन औरतों के सामने पूरा गाँव नतमस्तक था।

औरतों को केंद्र में रख कुछ लिखने का विचार आते ही गाँव की इन तीन औरतों की छवि आँखों के सामने उभर आई। गाँव आते जाते कभी भी चर्चा के क्रम इनका नाम नहीं आया। गाँव के पुरुषों की चर्चा, चाहे वो आपस में जुड़े हों या ना, किसी ना किसी प्रकार आपके सामने आ जाती। पर गाँव के सामाजिक आर्थिक ताने बाने में औरतों की भूमिका कभी भी चर्चा योग्य नहीं समझी जाती। पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए आरक्षित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व आज भी ‘प्रधान पति’ या ‘मुखिया पति’ कर रहे हैं। तो फिर उन दिनों इतनी अविवरणीय भूमिका के लिए भला इन्हें कौन याद करेगा। जितनी साधारण इनकी जिंदगी थी  उतनी ही खामोश इनकी मृत्यु। कहीं कभी भी कोई जिक्र नहीं।

मेरी ये कहानी एक श्रद्धांजलि है मेरे गाँव की इन तीन औरतों को, जिन्होनें किसी न किसी रूप में अपनी याद मेरे मन में छोड़ी है।

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है। इन्होंने पहले भी इस वेब पत्रिका के लिए लेख दिए हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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3 COMMENTS

  1. गाँव समाज मे ऐसे चरित्र देखे सुने है और गाहे बगाहे ये स्मृति पटल पर आते भी हैं। आपने कुछ ऐसे क्षण भिंयाड़ दिलाये जिन्हें टटोलने मैं आज भी गाँव जाता हूँ।
    इतिहास मे दर्ज है ऐसे लोग।
    सुंदर व्याख्यान। आपकी कलम अमर रहे और अमर रहे वह गाँव।जहाँ आपकी प्रेरणा की निर्मल धारा अनवरत भ रही है।

  2. अति साधारण महिलाओं के किरदार को आपकी कलम ने असाधारण बना दिया है। इन तीन में एक किरदार तो आज भी याद है। हमारी जड़ों की ओर आज भी ऐसे किरदार मौजूद हैं… उनमें कई तो ऐसे हैं जो ताउम्र याद रहेंगे। हर बार की तरह ही उम्दा और धारदार कहानी… शानदार, जानदार, ‘जबरजस्त…

  3. बचपन की यादों को साहित्य के माध्यम से बड़े सुंदर ढंग से व्यक्त करते हुए एक कहानी का रुप दिए हैं। साहित्य लेखन की निरंतरता बनी रहे……… बहुत सुंदर।

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