विषाद और कर्मयोग का अध्ययन अवसाद-मुक्ति में सहायक होगा

सत्येन्द्र प्रकाश*

हिन्दू दर्शन कर्म और धर्म दोनों को परिभाषित करता है। धर्म की एक सरल किन्तु अति व्यापक परिभाषा दी गई है। “धारयति इति धर्मः। अर्थात् जो धारण करने योग्य है वही धर्म है।

अब प्रश्न यह निश्चित करना है कि धारण करने योग्य है क्या। कैसे निश्चित होगा, कौन निर्णय करेगा। धर्म का प्रयोजन क्या है। इसकी आवश्यकता किसे है। ब्रह्माण्ड में चौरासी लाख योनियों का वर्णन आता है। तो फिर धर्म की चाह क्या सभी को है या यह मनुष्य मात्र की ज़रूरत है।

शास्त्रों में उद्धृत है, “अन्य प्राणियों से इतर केवल मनुष्यों को ही सोचने की क्षमता प्राप्त है। वह सही और ग़लत का भेद कर सकता है। अन्य प्राणियों को यह शक्ति मिली ही नहीं है, उनके लिए ना कुछ गलत है ना कुछ सही। इसी कारण मनुष्य योनि को श्रेष्ठ बताया गया है। और धर्म सही और ग़लत कर्मों में भेद के लिए व्यापक मानदंड तय करता है।”

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि धर्म केवल मनुष्यों के लिए आवश्यक है।

किन्तु अगर मनुष्य के पास यह शक्ति है कि वह सही ग़लत का भेद कर सकता है, तो फिर सभी की सोच समान होनी चाहिए और सबका कर्म एक सा होना चाहिए। लेकिन ऐसा है नहीं। कारण पूर्व जन्मों के संचित कर्म फल और प्रारब्ध उसे अन्य मनुष्यों से अलग कर्म करने को प्रेरित करते हैं। हर मनुष्य के मन में अन्य से अलग भाव जन्म लेता है जो पूर्व जन्म के कर्मों और इस जन्म में पू्र्व में किए कर्मो से निश्चित होता है।

सही और ग़लत में भेद करने के क्रम में मनुष्य का मन उद्विग्न होता है। संसार में आने का प्रयोजन क्या है? भौतिक संसार में सही क्या है और ग़लत क्या है, कौन निर्धारित करता है? विशेषकर तब जब कर्मफल का अस्तित्व क्षणिक हो।
उसके मन में अनेकानेक भाव उत्पन्न होते हैं । मन अपने ताने-बाने बुनना शुरू करता है। कई बार इनमें विरोधाभास भी होता है। मन अनियंत्रित होने लगता है और वो अपना comfort zone तलाशता है। comfort zone के disturb होने की सोच मात्र से वह भयभीत हो जाता है। ऐसी स्थिति में मन का अवसाद ग्रस्त होना संभव है।

शास्त्रों ने भी साधक के गुणों में मन में संशय का होना आवश्यक माना है। अच्छा साधक वही होता है जो गुरू से मन में उत्पन्न संशयों के निराकरण करने के लिए बार बार प्रश्न करता है। संशयों से भरे सशंकित मन में विषाद का पैदा होना स्वभाविक ही है।

योग वशिष्ठ और श्रीमद् भगवद्गीता ऐसे दो ग्रन्थ हैं जिनमें धर्म विदित कर्म पथ पर मन के विषादग्रस्त होने की चर्चा विस्तार से हुई है। या यूँ कहें कि संवेदनशील मनुष्य के जीवन में ऐसे मोड़ का आना संभवतः दैवीय है जहाँ मन विषादग्रस्त होगा।

स्वयं भगवान जब मनुष्य का शरीर ग्रहण करते हैं तो एक समय उनका मन विचलित होता है, विषादग्रस्त होता है। जीवन के प्रति मन में उदासीनता का भाव उत्पन्न होता है। रामावतार में भगवान शिक्षा ग्रहण के पश्चात् और राजकाज में लगने के पूर्व पिता की अनुमति से तीर्थाटन और राज्य भ्रमण करते है। मनुष्य जीवन की कड़वी सच्चाई से स्वयं प्रभु राम के मन में भी जीवन से विरक्ति पैदा होती है। वैराग्य उत्पन्न होता है। जीवन के इस पड़ाव पर गुरू वशिष्ठ मनुज-तनधारी भगवान राम को कर्म योग के मर्म की शिक्षा देते हैं। योग वशिष्ठ यद्यपि महारामायण का हिस्सा नहीं है, भगवान श्री राम और गुरू वशिष्ठ के संवाद स्वरूप महर्षि बाल्मिकि द्वारा निरुपित हुआ है। भगवान को कर्म योग के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करने का गुरू द्वारा दिया गया ज्ञान ही योग वशिष्ठ है।

श्रीमद् भगवद्गीता की शुरुआत ही अर्जुन जिनके सखा एवं सारथी स्वयं भगवान हैं, के विषाद योग से हुआ है। अर्जुन का मन निहितार्थ कर्म के फलाफल को लेकर अवसाद ग्रस्त होता है। कुरुक्षेत्र में अपने समक्ष स्वजनों को देखकर अर्जुन ने अपनी स्थिति कुछ इस प्रकार व्यक्त की है,

“ दृष्ट्ववेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति॥

वेपथश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च ज़ायते।
गांडीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते॥”

अवसाद से अर्जुन का शरीर काँप रहा है, अंग शिथिल पड़ रहे हैं । हाथ से गांडीव फिसल रहा है। एक क्षत्रिय के लिए जो निर्दिष्ट कर्म है, अर्जुन उसे करने में अपने को असमर्थ पा रहा है। भगवान के प्रिय शिष्य और सखा दोनों है अर्जुन। उनकी ऐसी मनोदशा है। तो फिर आम मनुष्य का क्या।

अर्जुन को इस अवसाद से बाहर निकालने के लिए और धर्म विदित कर्म करने के लिए भगवान ने गीता का उपदेश दिया है। गीता में सांख्य (ज्ञान) योग, कर्मयोग, भक्तियोग, ब्रह्म ज्ञान सभी पर भगवान ने स्वयं उपदेश दिया है। अर्जुन के मन के संशयों के निराकरण के क्रम में भगवान श्री कृष्ण ने हिन्दू दर्शन को सांगोपांग समझाया है।

धर्म विदित कर्म, जो निष्काम हो, को भगवान श्री कृष्ण ने ब्रह्म और जीव के योग (union) का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया है। कर्मयोग सर्वश्रेष्ठ तभी होगा जब वो निष्काम हो। अन्यथा वह कर्मफल के बंधन में आत्मा को बांधेगा। मनोनुकूल फल की अप्राप्ति से मन विषादग्रस्त होगा। मन दुखी होगा। उपाय निष्काम कर्म। फल की चिन्ता किए बग़ैर । कर्म को भगवान को पूर्णतः समर्पित कर दे। अर्थात् कर्ता भाव का त्याग कर स्वंय को निर्दिष्ट कार्य के निष्पादन में निमित्त मात्र समझें। तभी तो भगवान कहते हैं,

“ कर्मण्य्वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
माँ कर्मफलहेतुर्भुर्मा के संगोऽस्त्वकर्मणि॥”

धर्म विदित कर्म की बात करें तो कर्म उस काल खंड में वर्णाश्रम व्यवस्था द्वारा निश्चित किया गया था। एक क्षत्रिय का धर्म विदित कर्म, धर्म की पुनर्स्थापना करने हेतु संघर्ष करना है। क्षत्रिय का धर्म विदित कर्म अधर्म का नाश है, और उन सभी का नाश करना है जो अधर्म के साथ खड़े हैं।

अतएव, विषाद या अवसाद से मुक्ति कर्मयोग से जुड़कर ही संभव है। वर्णाश्रम के परिप्रेक्ष्य में आज के धर्म विदित कर्म को समझना होगा। वर्ण की संकल्पना व्यवसाय या पेशे के साथ की गई थी और आश्रम की परिकल्पना आयु के विभिन्न पड़ावों के साथ। अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो वर्णाश्रम धर्म की प्रासंगिकता आज भी है। विद्यार्जन/कौशल विकास मुख्यतया उम्र के पहले चरण में होता है जैसा शास्त्रोक्त ब्रह्मचर्य आश्रम में होता है, गृहस्थ आश्रम अपने व्यवसाय यानि अपने लिए निर्दिष्ट कर्म से समाज और राष्ट्र निर्माण में योगदान करते हुए अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन है। वानप्रस्थ सक्रिय पेशेवर दिनचर्या से स्वयं को धीर धीरे विलग करते हुए अपने संचित अनुभवों से आवश्यकतानुरूप योगदान का चरण है। और संन्यास सक्रिय जीवन से विलग होकर भगवत् भक्ति में तल्लीन होने का पड़ाव है। किन्तु हर आश्रम के लिए निर्दिष्ट कर्म ईश्वर के निमित्त के रूप में किया जाना ही मनुष्य का कर्तव्य है। कार्य निष्पादन में स्व का बोध होना अभीष्ट फल की प्राप्ति न होने पर दुख और विँषाद का कारण बनता है। इसी तरह वांछित फल की प्राप्ति में स्व के जुड़ने पर हर्षातिरेक होने पर अनावश्यक लगाव बढ़ता है और उसके समाप्त होते ही अवसाद जकड़ लेता है।

मन कहने मात्र से या ग्रंथों के अध्ययन से कहाँ मानता। मन की चपलता सोच को कहीं से कहीं ले जाती है। मन को साधकर इसे प्रभु चरणानुरागी बनाने के लिए भक्ति और ध्यान का आश्रय लेना होगा।

आज के गार्हस्थ्य जीवन में हमारे धर्म विदित कर्म निश्चित हैं। गृहस्थाश्रम के जिस पड़ाव से हम गुज़र रहे हैं उसके अनुसार निर्दिष्ट कर्म पथ पर पूरे मन से ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ अग्रसर होना ही अवसाद से मुक्ति का रास्ता है।

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है॥

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4 COMMENTS

  1. कर्ताभाव का त्याग करके कर्म करना एक पुष्ट एवं परिपक्व कर्म योगी ही कर सकता है, इसलिए गीता में, सारे कर्मों को अपने इष्टदेव को समर्पित करके ही करने की बात कही गई है और सचमुच जहां फल की अपेक्षा न हो वहां मन अवसादग्रस्त भी नहीं होगा।

    सत्येन्द्र प्रकाशजी द्वारा ब्याख्या सटीक और ज्ञानवर्धक है ‌। ‌धन्यवाद।

  2. धर्म और कर्म आपस मे मिले लगते हैं। पानी मे घुले रंग की भाँति धर्म से रंगे कर्म मनुष्य योनि हेतु दिशा निर्देश है यह मान लेना होगा।
    सुंदर लेखनी,सरल तरीके से समझा दी आपने…अनुरोध है कि ऐसे लेख और लिखें।🙏🏻

  3. योग वशिष्ठ और श्रीमद् भगवद्गीता ऐसे दो ग्रन्थ हैं जिनमें धर्म विदित कर्म पथ पर मन के विषादग्रस्त होने की चर्चा विस्तार से हुई है। या यूँ कहें कि संवेदनशील मनुष्य के जीवन में ऐसे मोड़ का आना संभवतः दैवीय है जहाँ मन विषादग्रस्त होगा।

    बेहद उम्दा आलेख। पूरा सार यही है।

  4. Aapka lekh aaj ke samay mein dharam ke prayojan aur usko practical roop mein kaise apanaye iski vyakhya karta hai. Yah aaj ke bhag daud ki life me bahut hi jaruri hai.

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