ख़ुरशीद अकरम* की तीन कविताएं

रोज़ बात किया करो दोस्त

रोज़ बात किया करो दोस्त

दूर से ही सही

रोज़ मुझे यक़ीन दिलाया करो

कि ये झुलसते दिन गुज़र जाएंगे!

रोज़ मुझे सुनाया करो

वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष!

रोज़ याद किया करो कि

हमारी दोस्ती हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी है

और रोज़ याद किया करो कि

अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की पहली जंग

( हार गए तो क्या)

लड़ी तो थी साथ-साथ!

रोज़ याद में लाया करो

अपने बचपन की होली और मुहर्रम की हमा-हमी!

रोज़ याद दिलाया करो कि

बरसों जब हम छड़े-छांट थे,

सारी मस्ती की थी साथ साथ!

रात रात-भर दुनिया जहान की बात की

कितनी बार नए साल का जश्न मनाया साथ साथ

और कितनी ही बार रक्तदान दिया

किसी दोस्त के बाबा के इलाज में!

रोज़ दुहराया करो कि हाँ

एक भूल हुई, मगर

अगली बार नहीं!

रोज़ एतराफ़ करो कि

चाहे जितना भी लुभावना हो धर्म की रक्षा का सवाल

विकास का लोभ

तुम नहीं चुनोगे

कम से कम तुम नहीं

कम से कम तुम नहीं माँगोगे

मुझसे मेरी नागरिकता का प्रमाण!

कम से कम तुम मुझे छिपा दोगे

अपने घर के पिछवाड़े

अगर दंगाई आएंगे

तो तुम झूठ बोल दोगे माँ की सौगन्ध खा कर!

रोज़ भरोसा दिलाया करो

कि सब बदल जाऐंगे तब भी

तुम साथ ना छोड़ोगे!

कम से कम तुम

मैं अगर मारा जाऊँगा

कोई और रोए  ना रोए

तुम रोओगे

कम से कम तुम!

*******

बिना शीर्षक

बाहर हवा गर्म थी

मैं निकलता तो झुलस जाता

तो मैं क्या करता

सफेद चादर बिछाई

और सो गया!

सोए हुए आदमी की कोई आवाज़ नहीं होती

सोया हुआ आदमी सोचता है सिर्फ वही

जो सपने आयें!

और मैं सपने में चला गया

बग़ैर किसी कोशिश के

वहां से चला गया कोमा में

बिना किसी सवारी के

उधर में सरोद सुनता हूँ सर धुनता हूँ

शे’र पढ़ता हूँ वाह करता हूँ

अज़ान होती है सिजदे करता हूँ

मुझे जगाओ नहीं

नींद नहीं …मैं कोमा में हूँ !

******

अपना पैग़ाम है…

जिगर  मुरादाबादी का शे’र है : “उनका जो काम है वो अहल-ए-सियासत जानें –अपना पैग़ाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे”! उनसे मुआफ़ी के साथ ये कविता!

अपना पैग़ाम है…

शाइरी को सियासी नहीं होना चाहिए

शाइरी को

तितली के परों पर सवार हो कर

बाग़ -बगीचों में जाना चाहिए,

फूल को छेड़ना चाहिए

भंवरो के साथ-साथ

गुनगुनाना चाहिए!

उसे भक्ति के गीत गाना चाहिए

और रात में जल्दी सो जाना चाहिए!

सुबह की सैर के लिए

वो चाहे तो हिल-स्टेशन जाये

हिमपात देखे, सेल्फी बनाए

या घुड़दौड़ देखने

रेस-कोर्स जाये दूरबीन लेकर!

चाहे तो डुबकी लगाए स्वीमिंग पूल में

या पाँव पानी में डाल कर करे

छप-छप छप-छप!

शाइरी को चाहिए लफ़्ज़ तराशे हुए बरते

रूपक सुंदर-सुंदर

और उपमाएं मनोरम उठाना चाहिए

उसे कला से उतना ही प्रेम करना चाहिए

जितना प्रेमी को प्रेमिका से प्रेम!

और उसे

नफ़रत की धार को

निहत्थों पे वार को

ज़ुल्म की कटार को

शोलों की दीवार को

पीड़ितों  की पुकार को

ना देखना चाहिए (आँख बंद)

ना सुनना चाहिए (कान बंद)

ना कुछ बोलना चाहिए (ज़बान बंद)

‘उनका जो काम है वो अहल-ए-सियासत जानें’*

अपना पैग़ाम है कि

शाइरी को सियासी नहीं होना चाहिए !

____________

*ख़ुरशीद अकरम मूल रूप से उर्दू में लिखते हैं। उनके दो कहानी संग्रह, कविता और आलोचना के एक-एक संग्रह और अनुवाद सहित लगभग दस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता और आलोचना की तीन किताबें शीघ्र प्रकाश्य। कई कहानियां उर्दू, अंग्रेज़ी और दीगर ज़बानों के ऐन्थालजी में शामिल हैं। कई वर्ष तक साहित्यिक पत्रिका आजकल (उर्दू) के संपादक रहे हैं। संपर्क: 73 ब्, पॉकेट-ए, सुखदेव विहार डी डी ए फ्लैट्स, नई दिल्ली- 110025.

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4 COMMENTS

  1. मिलते ही मैंने तीनों कविताएँ पढ़ ली थी….तीनों अच्छी हैं…

    पर मुझे पहली और तीसरी कविता ज्यादा पसंद आई…पहली कविता ने तो मुझे बचपन की दोस्ती और मस्ती याद दिला दी.. उस समय भी दोस्तों को बचाने के लिए ..मां कसम, सच बोल रहा हूं….कहना आम और आसान बात थी…पर आजकल के महौल में दोस्त को दंगाईयों से बचाने के लिए झूठ बोलना, बहुत बहादुरी काम काम है….

    आखरी कविता में ठीक ही कहा है कि जिनका काम है सियासत करना वो जाने…पर अपना पैगाम तो यह है कि शायरी को सियासी नही होना चाहिए. ..

    धन्यवाद

  2. दिल को छूने वाली कविताएं। यकीन करो, दोस्त, ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन।तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर।

    • कविता यही यकीन दिलाना चाहती है कि कोई खुर्शीद अकेला नहीं है। उसके मित्र भट अभी हैं। करोड़ों भट करोड़ों खुरशीदों के साथ खड़े हैं !

  3. पहली कविता ने तो झकझोर दिया…. सब कुछ कुशलता और अमन चैन से चलता रहे… कहीं छुपने और छुपाने की नौबत न आये… आमीन

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