विधायिकाओं में आए दिन गतिरोध – इस स्थिति को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता

राजकेश्वर सिंह*

देश की राजनीति के मौजूदा दौर में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जिस तरह की तलवारें खिंची हैं, वह काबिले-गौर है। वैसे तो सत्ता और विपक्ष के बीच एक-दूसरे का विरोधी होना कोई नई बात नहीं है बल्कि स्वाभाविक ही है, लेकिन इन दिनों दोनों एक दूसरे पर हमले करने के जिस स्तर पर आ गए हैं, वह सामान्यजन को परेशान करने वाली बात है।

इस मसले पर बात होगी तो जाहिर है कि उसकी तह में जाना ही होगा कि बातचीत के स्तर को घटाने की शुरुआत किसने की? या फिर इस स्तर को गिराने में ज्यादा कसूरवार कौन है? इस स्थिति को समझने के लिए हर किसी का अपना नज़रिया हो सकता है, लेकिन स्थिति को मर्यादित और सीमा के दायरे में रखने की बात होगी तो इस मामले में सरकार की जवाबदेही ज्यादा बनती है। ठीक वैसे, जैसे संसद को सुचारु चलाने के मामले में सरकार की होती है, क्योंकि विपक्ष तो जनता और देश से जुड़े मुद्दों पर सरकार की घेरेबंदी करेगा ही। सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह विपक्ष की ओर से उठाए गए सवालों का माकूल जवाब दे और संसद में अपने विधायी कार्य में उनका समर्थन भी हासिल करे।

मौजूदा समय में केंद्र की सत्ता में जो पार्टी है, कभी जब वह सत्ता से बाहर होते हुए विपक्ष में थी, तब संसद में कई-कई दिनों तक किसी मुद्दे पर व्यवधान उत्पन्न करने पर उसका तर्क होता था कि यह विपक्ष का अधिकार है कि वह जनता से जुड़े मुद्दे सदन में प्रमुखता से उठाए और यदि उसके चलते संसद की कार्यवाही बाधित होने की नौबत भी आती है, तो भी वह गलत नहीं है। यह अलग बात है कि आज जब वही पार्टी केंद्र की सत्ता में है तो वह उस फार्मूले की कायल नहीं दिखती। उसे लगता है कि उसका हर कदम जायज़ है और विपक्षी दलों को सरकार के जायज़ कामों और जनता से जुड़े मुद्दों से कोई सरोकार ही नहीं रह गया है।

सत्तापक्ष की शायद इसी सोच का ही नतीजा है कि वह विपक्ष पर कुछ सतही नजरिया रखने लगा है, वरना भाजपा की अगुवाई वाले राजग गठबंधन के विरोध में बने 26 विपक्षी दलों के नये गठजोड़ ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डवलपमेंटल, इंक्लूसिव अलाएंस) को सत्तापक्ष के बड़े-बड़े नेताओं की ओर से खुलेआम घमंडिया गठबंधन कहकर क्यों पुकारा जाता? इसी तरह विपक्ष के गठबंधन की तुलना भारत को गुलाम बनाने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी और पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया जैसे संगठनों से कैसे की जा सकती है! इस तरह के कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिससे यह समझना आसान हो सकता है कि सत्ता और विपक्ष के बीच राजनीतिक लड़ाई का स्तर सतह पर कैसे आया और उसके लिए कौन से तत्व जिम्मेदार हैं। आखिर इस बात से असहमति किसे हो सकती है कि जिस तरह सत्तापक्ष को अपना गठबंधन बनाने और उसे विस्तार देने का अधिकार है, वही अधिकार तो विपक्ष को भी हासिल है तो फिर बातचीत का स्तर इतना क्यों गिर जाना चाहिए?

एक स्वस्थ लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों की ही न सिर्फ महत्वपूर्ण भूमिका होती है, बल्कि दोनों ही एक दूसरे के पूरक होते हैं। देश की जनता के प्रति दोनों की ही जवाबदेही है। देश की संसद और विधानसभाओं में जनता के प्रति उनकी जवाबदेही की भूमिका उनके कार्यों से परिलक्षित होती है। फिर भी कई मौकों पर यह दिखता है कि विधायिका जनता के प्रति अपने दायित्वों को लेकर बेहद उदासीन नजर आती है।

संसद और विधानसभाओं के सत्र और उनके विधायी कामकाज का समय कई बार हंगामे और शोर-शराबों की भेंट चढ़ जाता है। देश की संसद के सामने भी कई बार यह पेचीदा स्थिति उत्पन्न होती ही रहती है। सवाल यह है कि जब सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही जनता के प्रति जवाबदेह हैं तो फिर कौन नहीं चाहता कि जनता के जरूरी मुद्दों पर संसद में ही बहस न हो।

देश का सीमावर्ती राज्य मणिपुर ढाई महीने से अधिक समय तक हिंसा की आग में धधकता रहा। दो समुदायों के बीच भड़की हिंसा में महिलाओं के साथ बहुत ही जुल्म ज्यादती हुई। दुष्कर्म की घटनाओं को लेकर ऐसे वीडियो वायरल हुए, जिसने देश को दुनिया के सामने शर्मसार किया। राज्य में सरकारी मशीनरी पूरी तरह फेल रही। पूरे देश ने देखा कि संसद के मानसून सत्र में समूचा विपक्ष मणिपुर हिंसा मामले में किस तरह संसद में प्रधानमंत्री के बयान और उस पर चर्चा के बाद उनके जवाब की मांग पर अड़ा रहा, लेकिन सरकार उसके लिए तैयार नहीं हुई। अलबत्ता, वह उन नियमों के तहत बहस को तैयार थी जिसमें प्रधानमंत्री को न इस मामले में बयान देना पड़े और न उस पर बहस के बाद कोई जवाब। विपक्ष सरकार के उस प्रस्ताव पर राजी नहीं हुआ। सरकार आरोप लगाती रही कि मणिपुर मसले पर संसद में वह चर्चा के लिए तैयार है, लेकिन विपक्ष खुद चर्चा से भाग रहा है। एक तरह से नियमों के हवाले से तकनीकी कारणों के चलते उस समय संसद में मणिपुर मसले पर चर्चा नहीं हो सकी और संसद का काफी कीमती समय हो-हंगामे की भेंट चढ़ गया।

राज्यसभा में नियम-267 के तहत विपक्षी गठबंधन के 68 सदस्यों ने इस मसले पर चर्चा की नोटिस दिया था, जिसे सभापति ने खारिज कर दिया। उधर, लोकसभा में भी मणिपुर हिंसा मसले पर चर्चा न होने की स्थिति में विपक्ष की ओर से सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला दिया गया। लोकसभा अध्यक्ष ने उसे मंजूर भी कर लिया। उस पर चर्चा भी हुई, लेकिन मणिपुर से आने वाले दो सांसदों को ही उस चर्चा में हिस्सा लेने का मौका नहीं मिला। इसके अलावा सरकार के खिलाफ लाये गए इस प्रस्ताव पर लोकसभा में विपक्ष और सत्तापक्ष के जिन सदस्यों ने भाग भी लिया, उन्होंने उन्हें बहस के मिले कुल समय में से सबसे कम समय मणिपुर की स्थिति पर अपनी बात रखी। असल मुद्दे के बजाय सत्ता-पक्ष के ज्यादातर सदस्यों ने दूसरे मसलों पर बात रखी। मसलन परिवारवाद, देश को 70 सालों में क्या मिला और तब जो सरकारें थीं (खासतौर से कांग्रेस पार्टी) उसकी नीतियों में खामी का खामियाजा देश को अब तक चुकाना पड़ रहा है आदि । यहां तक कि अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के बाद अंत में जब प्रधानमंत्री से लोकसभा में जवाब दिया तो उन्होंने भी लगभग सवा दो घंटे के अपने लंबे भाषण में डेढ़ घंटे तक मणिपुर पर कोई बात ही नहीं की, लिहाजा विपक्षी सदस्यों ने उसका  विरोध करते हुए सदस्यों से बहिर्गमन कर दिया। हालांकि प्रधानमंत्री ने उसके बाद मणिपुर पर कुछ अपनी बात रखी और सदन को अवगत कराया कि केंद्रीय गृह मंत्री उस विषय पर एक दिन पहले ही सदन को विस्तार से जानकारी दे चुके हैं। उसके बाद सरकार ने सदन मे विश्वासमत भी हासिल कर लिया जिसके पारित होने में किसी को कभी कोई संदेह हो ही नहीं सकता था।

अब सवाल उठता है कि आखिर सरकार और विपक्ष के बीच मणिपुर के मसले पर संसद का कीमती समय क्यों बर्बाद हुआ? उसके लिए कौन जवाबदेह है ? आखिर मणिपुर भी इसी देश का हिस्सा है और वहां भड़की हिंसा के चलते उत्पन्न हुई असामान्य स्थिति पर देश की संसद में यदि विपक्ष की मांग के मुताबिक पहले ही बहस हो जाती तो क्या बड़ी मुश्किल आ जाती।

इस मसले पर संसद के जरिए प्रधानमंत्री की बात देश के लोगों तक काफी पहले भी पहुंच सकती थी और लोगों के दिल-दिमाग में मणिपुर की हिंसा को लेकर जो भी स्थिति थी, वह साफ  हो जाती। आखिर देश को यह जानने का हक है ही कि मुल्क के किसी हिस्से में इतनी हिंसा हो रही है तो क्यों और केंद्र और राज्य सरकार स्थिति से निपटने के लिए क्या कर रही है। संसद जनता के मुद्दों पर बहस और अपने नागरिकों के लिए कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था है और अगर जनता के जरूरी मुद्दों पर ही वहां बहस नहीं होगी तो फिर कहां होगी? संसद ही तो वह जगह है जहां सरकार व विपक्षी सदस्यों की ओर से कही गई बातों पर उनकी जवाबदेही तय होती है। लिहाज़ा गंभीर मसलों पर उचित फोरम पर बात होना जरूरी है। यह अलग बात है कि संसद के भीतर सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही कभी-कभी सियासी नफा-नुकसान के लिहाज़ से फैसले करते हैं।

सैद्धांतिक तौर पर सत्तापक्ष और विपक्ष हमेशा से इस बात पर सहमत रहे हैं कि संसद का कीमती समय दोनों पक्षों के टकराव, हो-हंगामे और व्यवधान में बर्बाद नहीं ही होना चाहिए। फिर भी दोनों ही इस पर अमल में कोताही करते दिखते हैं। वह भी उन स्थितियों में भी, जब संसद सत्र सिकुड़ते जा रहे हैं और उनकी सालाना लगातार बैठकें कम होती जा रही हैं। कहना गलत नहीं होगा कि इस स्थिति में सुधार लाने की ज़िम्मेदारी सरकारों की है, लेकिन व ऐसा नहीं कर रही हैं।

यह बात संसद पर ही नहीं, कई राज्य सरकारों पर भी लागू होती है, जहां वे साल भर में कम से कम दिनों में ही अपनी विधानसभाओं में विपक्ष से आमना-सामना करना चाहती हैं। संसद और देश भर की विधान सभाओं के काम-काज पर पैनी निगाह रखने वाली संस्था पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च के आँकड़े बीच-बीच में आते रहते हैं जिनसे यह निराशाजनक स्थिति सामने आती है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर संसद सहित देश भर की विधायिकाएं कम से कम बैठकों में काम चलाना चाहती हैं और सबसे ज्यादा चिंता की बात ये है कि कानून बनाने का अपना मुख्य काम तो वो बहुत ही लचर ढंग से कर रही हैं। कितने ही महत्वपूर्ण बिल बिना बहस के पारित हो जाते हैं और एक आदर्श स्थिति में कानून बनाने की प्रक्रिया में पक्ष और विपक्ष के सदस्यों से जो सुझाव आने चाहिएं, उनसे देश वंचित रह जाता है। विधायिका के लिए यह स्थिति ठीक नहीं है। यह स्वस्थ लोकतंत्र के भी हित में नहीं है। लिहाजा, सरकार और विपक्ष दोनों के लिए ही यह आत्मावलोकन जरूरी है कि इस स्थिति में कैसे सुधार हो और संसद व राज्य विधानसभाओं में जरूरी मुद्दों पर खुले दिल से बहस हो सके, जिसके लिए जनता ने उन्हें चुना है।

  

* लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

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