आज की बात
आज जब Twitter पर ये खबर देखी कि प्रज्ञा ठाकुर (इनके नाम के पहले साध्वी लगाना मुझे अच्छा नहीं लगता – मैं एक सामान्य हिन्दू हूँ और जिस तरह से मेरे माता-पिता और मेरे आस-पास के समाज ने मेरे मन में जो छवि एक साधु या साध्वी की बनाई, उसमें प्रज्ञा ठाकुर और साक्षी महाराज जैसे लोग ‘फिट’ नहीं होते) ने महात्मा गांधी के हत्यारे नत्थू राम गोडसे को ‘देशभक्त था, देशभक्त है और देशभक्त रहेगा’ जैसे श्रद्धापूर्ण वक्तव्य से नवाजा तो मन एकबारगी उदास हो गया।
और भी उदास हुआ जब मैंने उपरोक्त खबर पर टिप्पन्नी करते हुए ट्वीट किया कि “ये बहुत ही शर्मनाक है और ये बहुत ही बुरी बात है कि भाजपा ऐसे उम्मीदवार को पार्टी से क्यों नहीं निकाल देती?” तो मेरे इस ट्वीट के जवाब में किसी भूतपूर्व पत्रकार ने पूछा कि “क्यों आपको ज्वाइन करनी है क्या?” मैंने मन ही मन खीझने के बावजूद उन्हें शांति से ही उत्तर दिया (कि नहीं लेकिन
मैं महात्मा गांधी को सचमुच बहुत पसंद करता हूँ! जब भी कोई उनके हत्यारे को देशभक्त बताता है तो मुझे तकलीफ़ होती है!) तो उनका लंबा सा उत्तर आया जिसका एक हिस्सा था कि “साध्वी की अपनी वेदना और पीड़ा है. राजनीति में नई हैं जल्द सीख जाएंगी”।
अब किस वेदना और पीड़ा से वह गोडसे को देशभक्त कहती हैं ये या तो प्रज्ञा ठाकुर जानती होंगी या उनके प्रशंसक – हमें तो यही समझ आता है कि गांधी के हत्यारे की महिमा-मंडन के पीछे एक ही कारण है कि उन्हें गांधी जी की समावेशी राजनीति पचती नहीं है जिसमें वह हिन्दू और मुसलमानों को भारत माता की आँखों की तरह बताते हैं। प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोग जिनके दिमाग नफरत के लिए प्रशिक्षित हैं, उन्हें ऐसी बातें कहाँ पचेंगी और स्वाभाविक है कि वो ऐसे आदमी के हत्यारे को देशभक्त ही कहेंगी।
फिर बाद में चलकर भाजपा के टिवीटर हैंडल से एक वक्तव्य आया कि पार्टी प्रज्ञा ठाकुर से सहमत नहीं है और उनसे अपील करती है कि वह अपनी इस भूल के लिए सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगे। हमने सोचा कि हम इस ट्वीट का भी ‘रिप्लाइ’ कर दें और ये सोच कर कि अब तक रिप्लाइ में से कुछ देख लें। और यहाँ से खिन्नता का एक दौर और शुरू हुआ।
उपरोक्त ट्वीट के जवाब में ऐसे ऐसे लोगों ने ट्वीट किए हुए थे जिन्हें इस बात की कतई शर्म नहीं थी कि वो एक हत्यारे का खुले आम समर्थन कर रहे हैं और एक ऐसे हत्यारे का जिसने महात्मा गांधी की हत्या की जिन्हें पूरा विश्व के महामानव मानता है। थोड़ी तसल्ली की बात हालांकि ये थी कि इन गोडसे भक्तों के साथ साथ ऐसी संख्या में भी प्रतिक्रियाएँ कम नहीं थीं जिन्होंने प्रज्ञा ठाकुर के ब्यान की निंदा की थी।
लेकिन हमारी चिंता ये है कि आखिर इतने सारे लोग कहाँ से आ गए या यूं कहें कि इतने सारे लोगों के दिमाग में इतना सांप्रदायिक जहर भरना कैसे संभव हो गया कि वो गांधी जैसे व्यक्ति की हत्या करने वाले के समर्थन में उतर आए। यहाँ ये याद रखना होगा कि गांधी सिर्फ राजनीतिक नेता ही नहीं थे बल्कि वो एक समाज-सुधारक भी थे। एक ऐसे समाज-सुधारक जो अपने को खुले आम सनातनी हिन्दू कहने के बाद भी अपने जीवन में (बड़े होने के बाद) मंदिर केवल तभी गए जब उन्होंने मंदिरों में दलितों के प्रवेश के लिए आंदोलन चलाया अन्यथा वह कहते थे कि जब तक मंदिर सबके लिए नहीं खुलेंगे, वह मंदिर कैसे जा सकते हैं? इसी तरह उन्होंने महिलाओं को भी सक्रिय राजनीतिक जीवन में उतारा और उनके नेतृत्व में महिलाओं ने स्वतन्त्रता आंदोलन के विभिन्न चरणों में खासा योगदान किया।
इसीलिए हम कहते हैं कि यह बहुत ही आश्चर्यजनक है (और एक तरह से देश की उदारवादी विचारधारा की ख़ासी असफलता भी) कि गांधी जैसे व्यक्ति की हत्या को आज 70 वर्ष से भी ज़्यादा समय बीत जाने के बाद कुछ लोग ना केवल सेलिब्रेट करते हैं बल्कि गोडसे को वह खुला समर्थन देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इनमें से बहुत से समर्थकों ने अपने नाम के आगे शब्द “चौकीदार’ शब्द भी लगा रखा है।
सवाल इस बार के चुनावों का नहीं है ना ही किसी के हार-जीत का। सवाल प्रज्ञा ठाकुर का भी नहीं है कि उसने अब माफी मांग ली है (हालांकि जो माफी मांगी भी है वह माफी नहीं है और सिर्फ इतना कहा है कि जो पार्टी लाइन है वही मेरी लाइन है।) सवाल ये है कि इतने वर्षों से दिमागों को प्रदूषित करने का ये खेल चल रहा है और हमारे समाज की उदारवादी विचारधारा के लोग चाहे वो गाँधीवादियों की सर्वोदय से जुड़ी संस्थाएं हों या गांधी और लोहिया को मानने वाले समाजवादी, वामपंथियोंऔर यहाँ तक कि वामपंथ से जुड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां हों – आप सब क्या सोते रहे?
कम्युनिस्ट पार्टियों ने शुरू से ही गांधी जी को उपहास या निंदा का पात्र माना और इस तरह आरएसएस और दक्षिणपंथियों को एक स्पेस मिल गया। गनीमत है कि वामपंथियों ने गांधी का पिछले कुछ वर्षों में पुनर्मूल्यांकन किया है और अब वह एक समावेशी समाज की अवधारणा को स्थापित करने के लिए गांधी के योगदान को स्वीकारने लगे हैं।
आपने नोट किया कि हमने कांग्रेस का नाम नहीं लिखा? नहीं लिख रहे क्योंकि उसका इस मामले में फेल होना तो जैसे स्वतन्त्रता के बाद से ही तय हो गया था। सत्ता ये कर देती है कि आपको आलसी और आरामपसंद बना देती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि नेहरू जी ने लोकतन्त्र को मजबूत बनाने के लिए बहुत कुछ किया लेकिन वो कांग्रेस को उस तरह से रचनात्मक कामों की तरफ नहीं जोड़ सके जो गांधी जी स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान कर लेते थे। और जैसा कि हमने ऊपर कहा, उसी स्पेस को आरएसएस ने ले लिया।
सवाल ये है कि ये समाज इस दलदल से खुद को निकालने में सक्षम भी है या नहीं? इस ज़हर को पिछले कई दशकों से हमारे समाज के एक बड़े वर्ग के मन और दिमाग में लगातार भरा गया है। इसको निकालने में भी मोटे तौर पर उतना ही समय लगेगा या शायद कुछ ज़्यादा ही। ऐसे में राजनैतिक सूझ-बूझ के साथ साथ धैर्य की भी ज़रूरत होगी और धैर्य से ही समाज अपने लिए वो संभावनाएं तलाशेगा जिससे ऐसे कूड़े से निजात मिलेगी।
विद्या भूषण अरोरा
बहुत अच्छा लिखा।
जयशंकर गुप्त
U should write a piece every day