कश्मीर पर दीर्घकालीन रणनीति हेतु राजनीतिक सर्वानुमति बनाना अनिवार्य

आज की बात

काश्मीर के पुलवामा में 44 सीआरपीएफ़ जवानों की शहादत से मन बहुत व्यथित है। वैसे तो युद्ध क्षेत्र में शहादत गौरव का विषय होनी चाहिए लेकिन इस तरह से हमारे वीर जवानों का चले जाना गहरे क्षोभ का विषय है। व्यथित मन बार-बार इन जवानों के परिवार की तरफ जा रहा है जिनमें जाने कितने सारे लोगों के सरताज इस तरह चले गए। कितने ही लोगों के पुत्र/पति/भाई उन्हें रोता-बिलखता छोड़ गए। उम्मीद करनी चाहिए कि हम सब यानि हमारी सरकार और हमारा समाज अपनी ज़िम्मेवारी समझते हुए उनके इन परिजनों को अकेला महसूस नहीं होने देंगे।

किसी भी ऐसी दुर्घटना के बाद यह वांछनीय और स्वीकार्य होता है कि दुर्घटना के कारणों की पड़ताल कर ली जाए। स्वाभाविक है कि ऐसे मामलों में तो ये सुरक्षा विशेषज्ञों का काम होना चाहिए और इसमें एक आम आदमी ऐसी पड़ताल कर भी कैसे सकता है? फिर भी चूंकि हम एक जागरूक लोकतन्त्र में रहते हैं, इसलिए नीतिगत विषयों पर तो बात होती रहनी चाहिए।

इसीलिए कल शाम से ही ‘एक्सपर्ट’ लोग अपनी राय दे रहे हैं। उन्हें सुनने के बाद जो सबसे बड़ी बात सामने आई है वह यह है कि इमरान खान ने पाकिस्तान में प्रधानमंत्री का पद सम्हालने के बाद चाहे दोस्ती की कैसी भी मीठी बात की हो, सच्चाई वही पुरानी है कि पाकिस्तान भारत में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिए हमेशा आमादा रहता है।

इस घटना की ज़िम्मेवारी लेने वाले आतंकवादी संगठन जैश-ए-मुहम्मद का सरगना मसूद अजहर अभी भी पाकिस्तान में खुला घूमता है। तमाम अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद पाकिस्तान ना केवल उसे भारत को वापिस नहीं सौंपता बल्कि उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करता और पाकिस्तान की इस सीनाज़ोरी के पीछे चीन होता है।

आज के इकनॉमिक टाइम्स में मुख पृष्ठ पर ही इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व अधिकारी अविनाश मोहनने का एक लेख प्रकाशित किया है जिसमें उन्होंने बताया है कि अब चिंता की बात ये हो गई है कि पहले काश्मीर के युवा फिदायीन (आत्मघाती) हमलों में हिस्सेदारी नहीं करते थे और उसके लिए पाकिस्तान को विदेशी आतंकवादी भाड़े पर लेने पड़ते थे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अब स्थानीय कश्मीरी युवक बड़ी संख्या में आतंकवादियों के संगठन जॉइन करने लगे हैं।  

अविनाश मोहनने अपने इस लेख में आगे लिखते हैं कि ये युवा अब उस पीढ़ी के हैं जो 90 के दशक के बाद की है और जो अपने आस-पास केवल ‘डैथ और डिस्टरकशण” (मौत और विनाश) का तांडव देखते हुए बड़ी हुई है। अब ऐसे युवा अपने को छिपाते नहीं बल्कि खुलकर अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालते हैं। यह एक बहुत ही गंभीर बात है कि अब युवाओं के आतंकवादियों में शामिल होना कश्मीर के समाज में स्वीकार्य होता जा रहा है।

प्रश्न ये है कि हम कैसे निपटें इस सब से। कहने की आवश्यकता नहीं कि टेलीविज़न स्टूडिओ में बैठकर या व्हाट्सएप्प पर युद्धोन्माद फैला इस समस्या का हल नहीं ढूंढा जा सकता। इसका हल खोजने के लिए एक दीर्घकालीन रणनीति बनाने की आवश्यकता है।

कश्मीर पर दीर्घकालीन रणनीति बनाने के लिए सबसे पहले एक राजनीतिक सर्वानुमति (political consensus) बनाने की आवश्यकता है। और यहीं हमारी राजनीति बौनी साबित हो रही है। कभी-कभी लगता है कि हम बौने युग में जी रहे हैं। किसी एक राजनीतिक दल को दोष दिये बिना हम कह सकते हैं कि क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के चलते हम देश और समाज के हित को ताक पर रखते चले आ रहे हैं और वर्षों से चला आ रहा घाव अब नासूर बन गया है।

अभी भी समय है कि सभी राजनीतिक दल एक दूसरे पर दोषारोपण करने की बजाय और बिना एक दूसरे की देशभक्ति पर संदेह किए कश्मीर पर एक “न्यूनतम साझा एक्शन-प्लान” (Common Minimum Action-Plan) बना लें! इस “न्यूनतम साझा एक्शन-प्लान” पर सर्वानुमति बनाने के लिए वह सेवा-रत एवं सेवा-निवृत्त रक्षा-विशेषज्ञों, समाज-शास्त्रियों और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त काश्मीर विशेषज्ञों का एक समूह बनाया जा सकता है जो सभी राजनीतिज्ञों को ज़मीनी हकीकत (ground-reality) से वाकिफ कराते हुए एक ऐसा एक्शन-प्लान बनवा सकते हैं जिससे आगे के लिए एक रोड-मैप तैयार हो जाए और जिससे समस्या का सर्व-स्वीकार्य हल निकलने की संभावना बन सके।

यह करने के लिए सभी राजनीतिक दलों को बहुत उदारता बरतनी होगी और यहीं हमारी राजनीति ओछी साबित हुई है। कहना होगा कि वाजपेयी सरकार के समय एक ऐसी कोशिश की शुरुआत हुई थी जिसे कश्मीर के लोग आज भी याद करते हैं। कुछ समय पहले जब वाजपेयी जी की मृत्यु हुई थी तो उनके तत्कालीन प्रेस अधिकारी ने एक टीवी शो के दौरान कश्मीर में हुई वाजपेयी जी की एक प्रेस-वार्ता का ज़िक्र किया। इन अधिकारी ने बताया कि जब उनसे पूछा गया कि क्या बातचीत संविधान के दायरे में होगी तो वाजपेयी जी ने कहा कि बातचीत इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत दायरे में होगी।

क्या हमारे आज के राजनीतिज्ञ इतनी उदारता और इतनी समझदारी दिखा सकते हैं जो वाजपेयी जी ने एक ऐसे दल में रहते हुए दिखाई थी जहां ऐसी बात कहना कमजोरी की निशानी माना जा सकता था?

विद्या भूषण अरोरा

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