सर्वानुमती का माहौल बनना ज़रूरी

आखिरी पन्ना*

यह लिखे जाने के समय देश चुनाव परिणाम आ जाने के बाद प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में फिर एक बार नई सरकार के गठन की प्रतीक्षा कर रहा है। कई तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं और रोज़ किसी ना किसी अखबार में मंत्रिमंडल के सभी प्रमुख मंत्रालय बाँट दिये जाते हैं। कभी भाजपा अध्यक्ष और स्वयं को चाणक्य के रूप में प्रस्तुत करने वाले अमित शाह को मंत्रिमंडल में गृह मंत्री बनाया जाता है तो कभी ये कहा जाता है कि नहीं, अभी 2022 तक वह एक और पारी अध्यक्ष के तौर पर खेल सकते हैं। लुब्बे-लबाब ये कि चाहे परिणाम आने और शपथ लेने के दिन में केवल सात दिनों का अंतर है लेकिन सत्तर तरह के अनुमान आ रहे हैं।

जैसा कि आपको याद होगा कि हमने तो चुनाव-परिणामों पर भी अनुमान लगाने से परहेज किया था और मंत्रिमंडल के स्वरूप पर तो खैर अनुमान लगाने का प्रश्न ही नहीं।

इसके बजाय हम कोशिश करते हैं कि हमें जो काम नई सरकार के सामने बहुत ज़रूरी लग रहे हैं, उनपर एक निगाह डाल लेते हैं क्योंकि पत्रकारिता के धर्म के नाते हमें जो देश-समाज के लिए सही लग रहा है, उसे अपने पाठकों के सामने लाना ज़रूरी है।

सबसे पहले उस बिन्दु पर बात कर लेते हैं जिसकी चर्चा स्वयं प्रधानमंत्री ने चुनाव-परिणाम आने के बाद अपने दूसरे भाषण में की। इस बार उन्होंने अपने पिछले नारे “सबका साथ सबका विकास” को बढ़ाकर उसमें “सबका विश्वास” भी जोड़ दिया है। यह महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भाजपा के केवल अपने बल पर सत्ता में आने से और चुनाव-प्रचार के दौरान कुछ नेताओं द्वारा धर्म को लेकर की गई टिप्पणियों के कारण सामाजिक वातावरण में एक तिक्तता महसूस की जा रही थी। प्रधानमंत्री ने जिस तरह चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच ये कहा कि हम उनके भी हैं जिन्होंने हमें वोट नहीं दिया है, उससे एक अच्छा संदेश जाता है।

ऐसे संदेश का जाना बहुत ज़रूरी भी है क्योंकि चुनाव परिणाम आने के दो-तीन दिन के भीतर ही ऐसी एक-दो घटनाएँ हो भी चुकी हैं जिनसे कान खड़े होना स्वाभाविक है। एक घटना तो दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में गुरुग्राम की है जहां एक मुस्लिम युवक की टोपी उतरवा कर उसे “जय श्री राम” उद्घोष करने को कहा गया। उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री के इस संदेश को जनता के आखिरी आदमी तक पहुंचाया जाएगा और देश का हर नागरिक अपने को सुरक्षित समझेगा।

यह तो हुई एक सामाजिक-राजनैतिक बात। अब हम आते हैं हमारी दूसरी चिंता पर – वो है आर्थिक मोर्चे पर देश की स्थिति। सच कहें तो भाजपा द्वारा चुनाव जीत जाने से देश की आर्थिक स्थिति के बारे में जो पहले का सच था, वो बदलने वाला नहीं है और सच ये है कि पिछ्ले दो-तीन वर्षों में देश की आर्थिक स्थिति काफी कमज़ोर हुई है। अब चाहे उसका कारण नोटबंदी कहें या कोई ऐसी आर्थिक घटनाएँ जिन पर सरकार का बस नहीं था लेकिन चुनावों के पहले या दौरान भी अखबारों में आर्थिक विषयों के जानकारों का कहना था कि हम आर्थिक मोर्चे पर बहुत अच्छा नहीं कर रहे हैं। आर्थिक विषयों के अखबार ‘एचटी-मिंट’ का कुछ दिन पहले एक स्तम्भ आया था जिसमें उनहोंने ज़िक्र किया था कि भारत में शायद आर्थिक-मंदी का दौर शुरू हो भी चुका है। लेख में बताया गया था कि नौकरियाँ बढ़ नहीं रही, पुरानी नौकरियों में कोई तरक्की नहीं हो रही और ये सब इशारा कर रहा है कि निजी क्षेत्र में धन्धा मंदा हो रहा है।

देश की आर्थिक स्थिति ग्रामीण अर्थव्यवस्था से भी सीधे जुड़ी है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी आजकल बिगड़ी पड़ी है। वैसे भी कृषि की हालत ऐसी है कि उसके लिए दीर्घकालीन उपाय करने होंगे। जोतें छोटी हो रही हैं और खेती हर तरह से घाटे का सौदा होता जा रहा है। चुनाव संहिता लागू होने के ज़रा सा ही पहले मोदी सरकार ने किसानों को छ: हज़ार रुपए की आर्थिक मदद का ऐलान कर ही दिया था जिसमें से पिछले वित्त-वर्ष के एक तिमाही के पैसे यानि 2000 रुपए उनके खाते में डलवा दिये गए थे। शायद अगली तिमाही के दो हज़ार रुपए भी दिये जा चुके हों। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर कुछ अच्छा असर पड़ेगा लेकिन शायद वो काफी नहीं है। कुछ ज़्यादा करना होगा।

हमारे निर्यात में भी पिछले कुछ सालों में कोई वृद्धि नहीं हुई है। यह चिंताजनक है क्योंकि जब से हमने अर्थव्यवस्था का ये मॉडल चुना है जिसमें हमने अपनी अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों से जोड़ लिया है, उसमें अगर हमारे निर्यात का हिस्सा लगातार बढ़ेगा नहीं तो फिर हमारी अर्थव्यवस्था पिछड़ती जाएगी। नई सरकार को तुरंत इस तरफ ध्यान देने की ज़रूरत होगी।

नई सरकार को मध्यमवर्ग की भी बहुत सी उम्मीदें पूरी करनी होंगी और दूसरी तरफ गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के लिए भी पैसा जुटाना होगा। आसान तो नहीं है ये लेकिन अगर राजनीतिक सर्वानुमती का माहौल बनाया जाये तो कोई बहुत मुश्किल भी नहीं। दिक्कत यही है कि चुनाव प्रचार के दौरान इस बार सभी ने महसूस किया कि कड़वाहट बहुत ज़्यादा बढ़ा दी गई है। पिछली बार यानि 2014 के चुनावों से ये प्रवृत्ति शुरू हुई जो 2019 में अपने चरम पर आ गई। ऐसे में राजनैतिक सर्वानुमती का माहौल बनना आसान नहीं होगा। वैसे पिछ्ले पाँच वर्षों में कई बार ऐसे मौके आए जब पक्ष और विपक्ष मिलकर काम करते तो अच्छा होता लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ।

समय आ गया है कि भाजपा और मोदी जी अब उदारता दिखाएँ और आगे बढ़ कर देश में कुछ मुद्दों पर विपक्ष के साथ मिलकर साझा कार्यक्रम बनाएँ ताकि देश की आर्थिक व्यवस्था को भी सुधारा जा सके और साथ ही समाज में जो अलगाववाद पिछले कुछ सालों में बढ़ा है, उस पर विराम लगे। मोदी जी को देश की जनता ने प्रचंड बहुमत दिया है। उन्हें जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए अगर विपक्ष के लिए थोड़ा नरम रुख भी अपनाना पड़े तो उन्हें उदारतापूर्वक ऐसा करना चाहिए। अभी अगले चुनाव पाँच साल दूर हैं, वह चुनाव अभियान की शैली 2023 से फिर अपना सकते हैं।

*यह आलेख उत्तरांचल पत्रिका के जून 2019 में प्रकाशित हो रहा है।

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