AI काल में जीने का सबब – 2

वागीश कुमार झा*

सूचना तंत्र का संजाल मानव जीवन के हर पहलू को आच्छादित कर चुका है. दशकों पूर्व इंटरनेट ने इसको एक नई उड़ान दी. अब आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI – जिसे हिन्दी में कृत्रिम मेधा कहा गया है), अपने विविध रूपों में एक शांत सुनामी की तरह इस पूरे खेल को बदल देने वाली है. हमारे लिए, समाज एवं समुदाय के तौर पर और एक व्यक्ति के तौर पर, इन परिवर्तनों का मतलब क्या है? शैक्षिक तकनीक, इतिहास और संस्कृति के गंभीर अध्येता वागीश कुमार झा की यह लेख श्रृंखला इन्हीं पहलुओं पर ध्यान आकृष्ट करती है. श्रृंखला का पहला लेख “खुशी का एल्गोरिथम” आप यहाँ पढ़ चुके हैं। आज प्रस्तुत है “ख्वाब हो तुम या कोई हक़ीकत”!

ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत…

फर्ज कीजिए कि हम जब सुबह सो कर उठे तो देखा कि शरीर में दो की जगह एक और हाथ उग आया है. यह एकदम सहज ही हुआ हो जैसे. ध्यान से देखा तो औरों के भी एक हाथ उग आए हैं. और यह कितना सुविधाजनक है. यह हाथ बस मोबाइल के उपयोग के लिए समर्पित है. बाकी का कोई काम भी हर्ज नहीं हो रहा. यह मानव विकास की नई अवस्था है. वैसे विकासवाद के सिद्धांत को मानने वाले भी इतनी नाटकीयता की उम्मीद नहीं करते हैं. पूंछ भी एक ही दिन में गायब नहीं हुई होगी. धीरे धीरे छोटी होती गयी और एक दिन विलुप्त हो गयी हमारी पूंछ। लेकिन अगर आप ध्यान देंगे तो मोबाइल फोन मनुष्य के शरीर के एक अंग के रूप में स्थापित हो गया है, हमारे सहज विकास के विस्तार की तरह. और यह जितना सहज लगता है उससे अधिक नाटकीय घटना है.

वैसे तो मोबाइल फोन का औपचारिक जन्मदिन 3 अप्रैल 1973 को माना जाता है जिस दिन मार्टिन कूपर, जो मोटोरोला कंपनी में एक शोधकर्ता और कार्यकारी  थे,  ने अपने प्रतिद्वंद्वी कंपनी बेल लैब्स के डॉ. जोएल एस. एंगेल को अपने हाथ में लिए यंत्र से पहला फोन कॉल किया था. उस समय इस उपकरण का वजन 2 किलोग्राम था और इसे ईंट (द ब्रिक) कहते थे. इसके पहले टॉक टाइम की उम्र केवल 30 मिनिट थी और इसको फिर से चार्ज होने में 10 घंटे लगते थे. लेकिन व्यवसायिक रूप से पोर्टेबल सेल्यूलर फोन 1981 में ईएफ जॉनसन और मिलिकॉम, इंक. द्वारा स्वीडन में पेश किया गया था. 1981 से अब तक 43 साल में आज मोबाइल फोन मानव शरीर के एक अंग के रूप में स्थापित हो चुका है. विकासवाद के परिप्रेक्ष्य में यह बेहद नाटकीय माना जायेगा. हो सकता है इसपर विद्वान असहमत हों. (असहमति में ही विद्वता स्थापित होती है!) लेकिन इस बात पर कोई दूसरी राय शायद ही हो कि मोबाइल फोन के इस असाधारण पहुंच ने आज, मार्शल मैक्लुहान के शब्दों में, संचार का एक आंतरिक स्फोट (internal implosion) कर दिया है. 

कुछ इसी तरह का या शायद इससे भी अधिक नाटकीय परिवर्तन इंटरनेट और फिर AI के आने के साथ शुरू हुआ है. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन दो घटनाओं ने सूचना की सुनामी ला दी है. इसी के साथ हमारे जीवन में आमूल चूल परिवर्तन देखने को मिल रहा है. जिस तरह लोग ‘मीडिया का उपभोग’ कर रहे हैं वह अभूतपूर्व है. (‘मीडिया का उपभोग’ जैसी उक्ति कुछ दिनों पहले तक अजीब लगती पर आज रोजमर्रा का मुहावरा बन चला है).

अगर मैं आज से कुछ ही दिनों पहले अपने काका को कहता कि चलिए अपने फोन से सब्जी खरीद लाते हैं तो वो मेरे मानसिक स्वास्थ्य के बारे में चिंतित हो जाते. फोन से सब्जी खरीदने की बात बहकी बहकी अवस्था की स्थिति भी नहीं थी, आज से कुछ ही साल पहले. बैंकों में पैसे निकालने की लंबी लाइन में खड़े होने की बात आज के बच्चों को बिना अचंभित हुए समझना असंभव है. कोई और काम नहीं था क्या आप लोगों को! घंटों कोई बैंक में खड़ा होता है!! अब इतना समय है कि रील देखते और संदेश भेजते भेजते कब दिन बीत जाता पता ही नही चलता. अब हम उनसे पूछते हैं, ‘कोई और काम नहीं है क्या तुम लोगों को, 24 घंटे मोबाइल पर लगे रहते हो…!’ संचार का संजाल आज आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक संबंधों को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है.

इस संचार क्रांति के साथ ही तरह तरह कि भ्रांतियां भी साथ आई हैं. डीपफेक उनमें सबसे ताजातरीन घटना है. ये कोई सामान्य साइबर ठगी नहीं है जहां आपके अकाउंट से हजारों रुपए लेकर कोई चला गया. न मारा, न खून किया, बस आपसे ओ टी पी लिया. और यह जग जाहिर है कि किसी को ठगने वाला बहुत सोच समझ कर योजना बनाता है, उसके पास एक नहीं कई वैकल्पिक तरीके होते हैं छल के. और उनके लिए इसके सफलता की कुंजी है कि जिसे छला जाना है उसके पास सोचने का वक्त नहीं हो. सब कुछ इतना सहज हो या एकदम जरूरी. यह जानते हुए भी कि वो अनजान व्यक्ति है, आप विश्वास कर लेते हैं. लेकिन ये सब डीपफेक नहीं है. डीपफेक इससे कुछ एकदम अलग लेवल की बात है।

कल्पना कीजिए कि अगर आपकी बेटी आपको फोन करे और कहे कि वो एक अलग शहर में है और अचानक एक  मुश्किल में पड़ गई है। इस मुश्किल से उबरने के लिए उसे तुरंत कुछ रुपए चाहिए. अभी. तब आप क्या करेंगे? इसमें सोचना क्या है, कोई भी बाप तुरंत मदद करने आगे आएगा. लेकिन जब थोड़ी देर में ही आपको पता चलता है कि जो आवाज आपने सुनी, वही जो हू बहू आपकी बेटी की आवाज थी, वो बनावटी ढंग से कृत्रिम मेधा की अमोघ होती जा रही दक्षता से बनाया गया कपट था!! डीप फेक यानी गहन छल का ये एक साधारण उदाहरण है.

डीपफेक का तात्पर्य उन हेरफेर किए गए वीडियो या अन्य डिजिटल साधनों और उनके प्रतिनिधित्व से है जो कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग करके लोगों के इस तरह के झूठे वीडियो या ऑडियो बनाते हैं । यह ऑडियो या वीडियो वास्तविक चेहरे या आवाज को मिला कर बनाया जाता है, जो उन्होंने असल में कभी न किया, न कहा है। इनका झूठ पकड़ पाना संभव नहीं हो पाता क्योंकि इसमें इस्तेमाल की गई आवाज या तस्वीर वास्तविक मालूम पड़ते हैं। तकनीकी ढंग से भी उनका झूठ पकड़ पाना आज एक बेहद कठिन प्रक्रिया है.

उदाहरण के लिए रश्मिका मांधना का ऐसा ही वीडियो 6 नवंबर 2023 को सामने आया था जिसमे रश्मिका का चेहरा एक ब्रिटिश प्रभावकर्ता (इनफ्लुएंसर) जारा पटेल के वीडियो पर चिपका कर वायरल किया गया था. उसको बनाने वाला व्यक्ति महीनों बाद 20 जनवरी को गिरफ्तार किया गया है. दिल्ली उच्च न्यायालय को दी गई सूचना के मुताबिक दिल्ली पुलिस ने ऐसे 15 साइबर पुलिस स्टेशन बनाए हैं जिनका नया नाम इंटेलिजेंस फ्यूजन एंड स्ट्रेटेजिक ऑपरेशन (IFSO) दिया गया है. इस केस की तहकीकात के दौरान IFSO के डीसीपी (स्पेशल सेल) हेमंत तिवारी के मुताबिक 500 से अधिक सोशल मीडिया अकाउंट को खंगाला गया. ध्यान रहे कि ईमनी नवीन नाम के इस नौजवान की गिरफ्तारी अभी दिल्ली पुलिस का दावा भर ही है, हालांकि उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है. फिर भी इसे पूरी तरह साबित कर पाना आज भी एक टेढ़ी खीर है. यहां एक हाई प्रोफाइल व्यक्ति से जुड़े केस की बात हो रही है. और आज रोज़ दसियों ऐसे वारदात रजिस्टर किए जा रहे हैं।

डीपफेक बनाने के लिए ‘डीप लर्निंग’ तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है इसमें ऑटोएन्कोडर जैसे प्रशिक्षण जनरेटिव न्यूरल नेटवर्क आर्किटेक्चर और जनरेटिव एडवरसैरियल नेटवर्क (GANs) आदि शामिल हैं. दूसरी तरफ तस्वीरों और वीडियो में छेड़छाड़ और तोड़-मरोड़ का पता लगाने के लिए भी  छवि फोरेंसिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन ये सभी अभी काफी शुरुआत के दौर में हैं और इनके व्यापक प्रयोग की शुरुआत होने में अभी समय लगेगा.

आपके अपनों की आवाज का नमूना ले कर, AI की मदद से हूबहू उसी के जैसी आवाज बना कर अपने फायदे की बात कहा जाना अब बेहद सरल हो गया है. जैसे किसी पसंदीदा गायक की आवाज में कोई नया गाना जिसे मशीन ने गाया लेकिन आपके लिए यह पकड़ पाना मुश्किल है. अभी हाल ही में दक्षिण भारत के बेहद लोकप्रिय नायक रजनीकांत की आने वाली फिल्म “लाल सलाम” का एक गीत “थिमिरी येज़ुदा” रिलीज हुआ और खूब पसंद भी किया जा रहा है. लेकिन लोगों को गायकों की आवाज कुछ जानी पहचानी लग रही थी. लोग अचंभित थे कि अरे, ये तो बंबा बाक्या और शाहुल हमीद की आवाजें हैं. ऐसा कैसे हो सकता था! ये गायक तो कब के दिवंगत हो चुके हैं, उनकी आवाज में आज कोई गाना तो तभी हो सकता है जब वो कोई पुराना गीत हो!!

अभी ये चर्चा शुरू ही हुई थी कि इस गीत के रचयिता और अकादमी पुरस्कार विजेता संगीतकार ए आर रहमान ने भी स्वयं सबके सामने आ कर कहा कि ये एकदम नया गीत है जिसके लिए  उन्होंने उन दिवंगत गायकों की आवाजों के नमूने ले कर उन्हें पुनर्जीवित कर उनकी आवाज में AI तकनीक की मदद से इस गीत को तैयार किया है। इस गीत की नैतिकता के संबंध में फिल्मकारों और संगीतकारों के बीच घमासान बहस जारी है. लेकिन AI के इस तरह के प्रयोग ने फिल्म संगीत में एक नए युग का सूत्रपात कर दिया लगता है. मैं तो उसी दिन से तलत महमूद का गया कोई नया गाना सुनने की उम्मीद लगाए बैठा हूं.

ऑडियो के साथ साथ वीडियो भी डीप फेक की सहायता से बनाए जा रहे हैं. अब क्या करेंगे हम! जब मेरी बेटी फोन पर बात कर रही होगी तो क्या हम यह पूछेंगे कि तुम असली वाली हो या जेनरेटिव AI वाली? और इसका वो जो जवाब देगी उसकी सत्यता कौन प्रमाणित करेगा? इस सत्यहंता समय में ‘विश्वास’ का खुला तांडव होगा, वो चाहे भगवान पर विश्वास हो या कृत्रिम मेधा वाली मशीन पर, एक ही बात है.

डीपफेक का इस्तेमाल कर बाल यौन शोषण सामग्री, लोकप्रिय अभिनेताओं या सेलिब्रिटी के अश्लील वीडियो, बदला लेने की मंशा से बनाए गए वीडियो, नकली / झूठे समाचार, धोखाधड़ी, बदमाशी और वित्तीय धोखाधड़ी जैसे मामलों में उनके संभावित उपयोग आदि आज के समय में गहरी चिंता का विषय हैं और इसने लोगों का व्यापक ध्यान आकर्षित किया है

ध्यान रहे, आज के समय में सत्य की स्थिति मैगी मसाला जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका है. सब्जी जैसी भी बनाएं, न बनाएं, इसका इस्तेमाल भोजन को स्वादिष्ट बना देगा. सत्यावरणयुक्त या सत्याभासी झूठ फ्लेवर ऑफ द सीजन है.

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श्रृंखला का पहला लेख “खुशी का एल्गोरिथम” आप पिछले सप्ताह यहाँ पढ़ चुके हैं। आगामी लेखों के लिए वेबपत्रिका पर निगाह रखिएगा।

Links to articles on artificial intelligence and associated new technologies, published on this website: Web 3.0: For Better or For Worse? —– Will Androids Enslave Humans in 50 Years? —– ChatGPT : Simple questions, not-so-simple answers

*वागीश स्कूली शिक्षा, शैक्षिक तकनीक, इतिहास और संस्कृति के अध्येता हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है। 

15 COMMENTS

  1. Well written, very informative sir…I deeply admire your writing skill and the way you present the facts…Thank you

    • धन्यवाद नारायण जी… अहां के अनुशंसा बहुत महत्वपूर्ण अछी. आभार

  2. श्रद्धेय,

    मेरे अनुसार-

    हमेशा की भाँति, इस लेख में तथ्य एवं तर्कों को विश्वसनीयता और व्यवहारिकता साथ पिरोया गया है।

    लेख के उपसंहार वाले खण्ड का वाक्य (सत्यावरणयुक्त या सत्याभासी झूठ फ्लेवर ऑफ द सीजन है) को मैं अपनी बातचीत में जरुरत एवं संदर्भ के अनुसार प्रयोग करने सम्बन्धी आपकी अनुमति की याचना करता हूँ।

  3. ब्रजेश जी,
    आपका आभार, पब्लिक डोमेन में जो है वो सबका है. (मैं ‘कॉपी लेफ्ट’ वाला हूं, कॉपी राइट वाला नहीं.) सबै भूमि गोपाल की…

  4. तकनीक जन्य असीम संभावनाओं के बीच उसके दुरूपयोग की विद्रुपता को बड़ी सहजता से उजागर किया है वागीश भाई ने। भाषा में वही प्रवाह वही लय है जो पाठकों को साँस रोक लेख को पढ़ने को बाध्य करे। हास्य मिश्रित कटाक्षों की पुट ऐसी कि लेख सार दिल से चिपक जाए। और प्रस्तुति के अंदाज़ के क्या कहने।
    वाह भाई वाह!

  5. सत्येंद्र भाई, इस लेख पर आपकी अनुशंसा मेरे लिए उत्साह का शिलाजीत है. बहुत बहुत आभार.

  6. बहुत सरलता और सहजता के साथ आपने इस अबूझ दुनिया से दो-चार करा दिया जो भाषा और भाव दोनों पर आपकी पकड़ से ही संभव है। इसमें जिन नैतिक और भावी समय से जूड़े मुद्दों के आपने संकेत दिए हैं वे आंदोलित करते हैं, मसलन उपभोक्ता (जो यों तो उपभोग करने के भरम में खुद वस्तु बन गया है) को विश्वास में लिए बगैर संगीत की मौलिकता या जोड़ तोड़ का रजनीकांत, रहमान वाला प्रसंग। आपका सब्जी कोई भी,मसाला मैगी का – वाला कमेंट भी तकनीक, व्यापार और मौलिकता और नैतिकता के कई पटल खोलता है। इन चुटीले से वाक्यों में पूरे लेखों की सामग्री है।
    अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।

  7. भट्ट जी,
    आप तो भाषा के विद्वान हैं, तो यह समझने में मदद कीजिए कि उपयोग और उपभोग में क्या अंतर है? यह सवाल इसलिए मन में उठा है कि मनुष्य अपने उपयोग के लिए औजार तो आदि काल से बनाता आया है. एक बार औजार काम को सरल बनाने में अपनी भूमिका साबित कर ले तो वह मानव और समाज पर भी अपनी रूपांतरकारी भूमिका अदा करता रहा है. हमने भाषा बनाई, और तब से भाषा हमे बना रही है. होने को जो गुलाम थे वे गुलमवंश के तहत सम्राट भी हुए. लेकिन जबसे बाजार औजार बनाने का मुख्य कर्ता धर्ता बना, वो औजार उपयोग से अधिक उपभोग के लिए बनाने लगा और इस क्रम में उपभोक्ता स्वयं कब वस्तु में परिवर्तित हुआ कि औजार ही उसका उपयोग करने लगा यह पता नही लगा. अब तो मोबाइल फोन हम सबके गले का पट्टा है किसकी नकेल उन सबके पास है जिनके पास हमारा नंबर है. इस तरह उपयोग करने वाले से उपभोग करने वाला बनने की प्रक्रिया में ही मनुष्य के स्वयं वस्तु बन जाना अंतर्निहित तो नहीं?

    लेख पर आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया पर केवल धन्यवाद न देकर इसका लाभ उठाते हुए यह सवाल भी पूछ लेने का मन हुआ. हार्दिक आभार

  8. काफी संवेदनशीलता के साथ लेखक ने हास्य और व्यंग का छोंका लगा कर नैरेटिव प्रस्तुत किया हैं | कहीं ऐसा न हो यह बिना किसी छाप छोड़े सर के उपर से निकल जाये | आजकी पीढ़ी को उपदेश और परामर्श से परहेज़ हैं अतएव उन्हें अपना कुंआ खुद ही खोदने देना चाहिए | आक्जल एक स्लोगन काफी चल रहा हैं ‘लर्निंग बाई प्रैक्टिस’ जूझो और सीखो | समय की प्रतीक्षा करे further way round is the nearest way
    home.

  9. मधु जी,
    आपकी इस लेख पर सुविचारित टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार. लिखना मेरे लिए मुद्दों को स्वयं ही समझने का एक प्रयास भर होता है. प्रवचन और उपदेश जैसा अगर कहीं लगा हो तो वो मेरी कमी है. मैं बहुत शिद्दत से मानता और जनता हूं कि:

    शेख करता तो है मस्जिद में खुदा को सजदे
    उसके साजदों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं

    आपका पुनः बहुत धन्यवाद.

  10. लाजवाब! यह लेख एक हिंदी पाठक के लिए AI के गहन छल के आयाम को आसान और रोचक भाषा में बयान करता है।
    जब मैं यह लेख पढ़ना शुरू किया तभी मेरी बेटी (14) सो कर उठी। मैं पूछा, तुम्हारा तीसरा हाथ कहां है? वह अपना टैब दिखाते हुए मुस्कारा दी। फिर उसने पूरा लेख बड़े ध्यान से सुना। यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी।रश्मिका मांधना वाली घटना तो उसे पता ही थी, वह AI के दुरुपयोग से संबंधित समझाई बातों को बड़ी आसानी से समझती दिख रही थी।
    ज़माना कितनी तेजी से बदल रहा है इसका अहसास कराते हुए डीपफेक के इस्तेमाल के प्रति जहां अगाह करता है ये लेख वहीं हमें AI के सही और अच्छे उपयोग के बारे में अवगत कराता है, जैसे — ए आर रहमान ने “लाल सलाम” फिल्म के गाने के लिए किया है दिवंगत गायकों की आवाज़ में गाना रिकॉर्ड कर के।
    गहन छल के ज़माने में “विश्वास” और “सत्य” पर लेखक के विचार भी आंखें खोल देते हैं।

    • कमल भाई, आपकी बेटी का अपनी मोबाइल को दिखा कर यह कहना कि यह उसका तीसरा हाथ है, अदभुत घटना है। सचमुच आज के बच्चे की समझ से सीखने की जरूरत है। आपका बहुत धन्यवाद.

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