मूली लौट आई – बच्चों की समझदार कहानियाँ-1

राजेन्द्र भट्ट*

बच्चों के दिलों-दिमागों में बहुत बड़प्पन और समझदारी होती है। दरअसल ‘सेनाइल’ यानी खड़ूस होना कोई पेजमार्क नहीं है कि साठ साल के बाद ही शुरू हो। यह तो उम्र के शुरू   के पड़ावों से ही चालू  हो जाता है और आखिरकार आदमी पूरा खड़ूस हो जाता है।

स्वार्थोंकांइयापनपूर्वाग्रहजात-धर्म का अंधापन – ये सब दरअसल कार्बन की परतें हैंजो दिल-दिमाग पर जमती जाती हैं और उनमें सचाईसरलताविवेक और समझदारी की वह करंट ठीक से नहीं उतर पाती है  जो बच्चों के निर्मलबिना कार्बन-कालिख वालेएकदम ‘गुलाबी स्वस्थ’  दिलों-दिमागों पर उतर जाती है। तभी तोदेखिए ना कि बढ़े-बूढ़ों के बचकानेपन ने यह  दुनिया कितनी अमानवीय और खतरनाक बना दी है! अब तो इसे बच्चों का बड़प्पन ही बचा सकता है जो बहुत सरलता और समझदारी से बड़े दिल-दिमाग वाली  बातें समझ जाते हैंअपनी अनगढ़ बातों और सरल कहानियों से ज़िंदगी की उस ऊन को सुलझा देते हैं जो प्रकृति ने हमें अच्छे-भले गोले में सुलझा के दी थीपर हमने अपनी खड़ूस धूर्तताओंअहंकारों और समझदारी के भरम में उलझा दी हैदूसरों की जिंदगी में टांग अड़ाने के चक्कर में अपनी ज़िंदगी को भी सड़ा लिया है।

तो आज गियर बदलते हैंसही गियर लगते हैं और अकल और बड़प्पन पाने के लिएबचपन में पढ़ी कुछ कहानियों से सच्चा ज्ञान हासिल करने की कोशिश करते हैं। आज की कहानी है ‘मूली लौट आई’!

कथा 1: मूली लौट आई

आसमान में बादल गरज कर वर्षा ऋतु के आगाज की खबर दे रहे थे। पिंटू खरगोश अपने घर में इत्मीनान से बैठे  अपनी समझदारी की बात सोच रहे थे। मौसम का पहले से अंदाज़ लगा कर उन्होंने तीन-चार महीने के लिए फल-सब्जियाँ ठीक से स्टोर कर दी थीं और अब उन्हें आँधी-बारिश के मौसम में भटकने की जरूरत नहीं थी। अचानक उन्हें ख्याल आया कि उनकी दोस्त गिगलू गिलहरी ने शायद राशन स्टोर न किया हो। थोड़ा मस्त-लापरवाह तो हैं ही। फिर सोचा, ऐसे उन्हें कुछ दे कर आएंगे तो उन्हें खामखां एहसान और अपनी लापरवाही पर उलाहना जैसा लगेगा। लिहाजा, जब वह  घर पर न हों, उस वक्त चुपके से उनके दरवाजे पर कुछ छोड़ कर आ जाएँ। ( देखा आपने, बच्चों की कहानियों के पात्रों का बड़प्पन!) तो पिंटू ढेर सारी गाजर-मटर चुपके से गिगलू के घर छोड़ आए।

(आप हमेशा जल्दी, टेंशन में रहने वाले बड़े हैं ना, सोच रहे होंगे कि फटाफट कहानी का अंत हो तो कुछ और जुगाड़ में लगें। इसलिए कहानी की शहद जैसी किस्सागोई ( जो बच्चों के ही भाग में है, आपके नहीं) को छोड़ बाकी कहानी ‘शॉर्ट कट’ में सुनाते हैं।)

तो गुगलू ने जब सब्जियाँ देखीं, उन्हें मज़ा आया। गिफ्ट देने वाले अनाम दोस्त को शुक्रिया किया और बरसात को लेकर पिटू वाली ही चिंता अपनी मित्र – मिंटी मुर्गी के बारे में की। बस, कुछ सब्जियाँ जोड़ी-घटाईं और चुपके से मिंटी के घर छोड़ आईं।

सिलसिला चल निकला। पाँच-छह दोस्तों के घर, तमाम वैराइटी वाली सब्जियाँ पंहुच गईं। सब बरसात के लिए सजग हुए और सबके घर पूरा राशन हो गया।

एक दिन जब पिंटू सुबह की सैर से घर लौटे तो उनके घर के बाहर सब्जियों का पैकेट पड़ा था। उसमें वे गाजरें भी थीं जो उन्होंने गिगलू के घर पंहुचाई थीं!

( व्याख्यात्मक टिप्पणी: मैंने कहानी का शीर्षक ‘मूली लौट आई’ क्यों लिखा, जबकि लौटी तो गाजर थी? दरअसल, मेरी सुनी मूल कहानी में तो मूली ही थी। मूली को गाजर करने का एक कारण तो यह था कि खरगोश के साथ, गाजर ही ज्यादा जमती है।)

पर दूसरा कारण ज्यादा  महीन, ज्यादा बड़ा था। जैसा मैंने कहा, देश-समाज के हालात उम्र के साथ-साथ हमारे दिलों-दिमागों को सड़ा देते हैं, मलिन कर देते हैं। कहानी लिखते-लिखते अचानक जो देश में चल रहा है, वह याद आ गया। देश में चुनाव चल रहा है, ईडी-सीबीआई वगैरह चल रहा है, माफी, इनाम या फिर जेल, एनकाउंटर भी चल रहे हैं। अंतरात्माओं की धुलाई और दल-बदलाई चल रही है। कितने पदों, लाभों की गाजरें हैं, कितने डरों के डंडे हैं!   किसी जमाने का पढ़ा शायद आपको याद हो, अगर  याद करना चाहें, कि किसी भी पुख्ता इमारत की तरह, अपने लोकतन्त्र के भी चार खंभे होते थे। अगर दो ही रह जाएँ – गाजर और डंडा – तो इमारत तो हिलती रहेगी न! और ऐसे अस्थिर तंत्र में,  लोक-मन भी तो डंडे के आतंक  और गाजर की लालसा से विचलित हो ही सकता है – मूली को गाजर लिख ही सकता है।  बस, यही सोचते-सोचते ‘कैरट एंड स्टिक पॉलिसी’ शब्द दिमाग से अंगुलियों में, और फिर कहानी में घुस गया। अब आ ही गया है तो एक ‘शेड’ बड़ों की दुनिया का मान कर पढ़ डालिए। आखिर सुधारनी तो बड़ों की ही दुनिया है – बच्चे तो सुधरे ही होते हैं। बस, बड़े उन्हें बिगाड़ देते हैं।

पर  छोड़िए, बड़ों की कहानियों को – एक दिन में बासी होने वाले अखबार, एक-दो महीने में बासी हो जाने वाले  चुनावों और कुछ सालों में इतिहास के कूड़े के ढेर में चले जाने वाले राजनीतिबाजों और उनके चंट-बेहया ताबेदारों को। असल में तो यह स्थायी मानवीय मूल्यों वाले बड़प्पन की,  बच्चों की ही कहानी है जिसका मर्म  बिना कार्बन-कचरे वाले दिल-दिमाग वाले समझदार बच्चे ही समझ सकते हैं।

 वह मर्म है कि दूसरे प्राणियों के लिए चिंता, सरोकार, समानुभूति (एंपैथी) अपना भी भला करते है, पूरी दुनिया का भला करते हैं। और अंत में, सब भला-भला सा लगता है। बच्चों की भली, निर्मल दुनिया जैसा।

अगली बार – पन्नालाल की और गौरव की कहानियाँ – अनगढ़ सी; पर जिंदगी की उस ऊन को सुलझाने वालीं जो हम रोज बुढ़ाते खड़ूसों ने बेवजह उलझा ली है।

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*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

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11 COMMENTS

  1. Darasal aisi hi sachchi ghatna meri ek bahut samajhdar dost ne batai thi jise nazeer ke taur par main apne mentees ko batati hoon.

    Yeh kuch yuva maen theen Jo college ke zamane kee dost theen. Yah bahut sampann striyan apne badhte bachchon ke chote ho gae kapde apni doston ko deti rahti theen. Meri dost kee choti beti jab janmi to uskee doston ke die kapdon mein kuch ve kapde bhi shamil the Jo uski badi beti ke the…

  2. वाह, बहुत मजेदार शिल्प है इस कहानी का. कई स्तरों पर चलने वाली ये कहानी किसी फॉर्मेट में, खांचे में फिट नहीं होना चाहती. कई बार पढ़ने का आग्रह करती है, और हर बार अलग अलग आयाम खोलती है.

    जैसा कि लेखक कहते हैं, “असल में तो यह स्थायी मानवीय मूल्यों वाले बड़प्पन की, बच्चों की ही कहानी है जिसका मर्म बिना कार्बन-कचरे वाले दिल-दिमाग वाले समझदार बच्चे ही समझ सकते हैं।” अब अगर ये कहीं कि इसका “मर्म” समझने में कामयाब हुआ तो खुद को “बिना कार्बन कचरे वाले दिल – दिमाग वाला घोषित कर रहा होऊंगा. लेकिन ये मुझे ठीक से पता नहीं.

    लेकिन फिर याद आया कि अगर आपका लिखा पाठक को झटके न दे, अपनी जगह से हिला न दे, तो फिर लिखने का कोई खास मतलब नहीं. भट्ट साब की लेखनी का ऐसा नायाब जादू पहली बार महसूस किया.

    अभी भी सोच रहा हूं…मूली, गाजर, डंडा और…. अंडा!

    (बाबा नागार्जुन की कविता चार पुत्र भारत माता के मन में गूंज रही है)

  3. आपकी टिप्पणी के बाद मेरा verdict: आप ऐसे बड़प्पन भरे बच्चे हैं जिनसे इस कहानी को आस है।

  4. कहानी बहुस्तरों पर चलती है. कोई सपाट रास्ता नहीं है. कोई बनी बनाई गत नहीं हैं,. सरगम की उलटफेर से सीधे पछाड़ खा कर गिरती हैं धोबी के मूसल की तरह, और कपडा साफ.
    मुझे लगता है यह मेरी कहानी भी हो सकती है. खाना बनाते बनाते शाहिद परवेज़ भी सुन लेती हूँ, उनकी तानो के कुछ बोल याद करके, औरअक्सर फ़ोन आने पर स्पीकर ओन करके झट से रोटी भी सेंक लेती हूँ.
    पगडंडी का घुमावदार पेंच |
    धन्यवाद

    • एक विदुषी की टिप्पणी इतनी ही चित्रात्मक हो सकती है – वह भी ‘कई स्तर पर चलती है – नए अर्थ देती है। आभार।

  5. कहानी का असली स्वरूप समझने मैं बार बार पड़ना ही पडेगा।।भट्ट जी साहित्य के अनुभवी विलक्षण प्रतिभा है।।मैं अपने विद्यार्थी कालखंड से ही उनको अपना आदर्श मानते आया हुँ।।आपकी लेखनी और अंतर्मन की विवेचना को समझ पाना आसान नही है।। वर्तमान मैं प्रस्तुत “मूली लौट आयी”” उसका एक उदाहरण है।।शानदार समझदार कहानी हेतु आभार जताया जा सकता है।।आपकी लेखनी को प्रणाम।।

    • बहुत आभार। आपकी सरलता, सादगी और सज्जनता का प्रशंसक रहा हूँ।

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