क्या हमने बातचीत करना बंद कर दिया है?

नन्दिता मिश्र*

आज हम जिस दुनिया में जी रहे हैं उसमें संचार और सम्पर्क के साधनों की कोई कमी नहीं है। जितना व्यक्तिगत सम्पर्क इस समय हो रहा है, इतना पहले कभी नहीं हुआ होगा। मोबाईल ने तो हमारी दुनिया बदल दी है। बात करें, गप्पे लगायें, घर बैठे खरीददारी करें – मनोरंजन के सब माध्यम मोबाइल में मिल जाते हैं। कोरोना के लॉकडाउन के बाद मोबाइल और लैपटॉप और भी ज़रूरी हो गया है। अब आप अपनी नौकरी भी घर बैठ कर सकते हैं और अपनी पढ़ाई भी। फिर एक दशक से भी कुछ ज़्यादा हुआ कि हमारे बीच व्हाट्सएप आ गया। व्हाट्सएप् के चक्कर में हममें से बहुत से लोगों ने अपने साधारण मोबाईल बदल कर स्मार्ट फोन ले लिए। इसके अलावा सम्पर्क के लिये, प्रचार के लिये फेसबुक, यू ट्यूब, टिक-टॉक, इंस्टाग्राम, ट्विटर (अब इसका नाम एक्स हो गया है), स्नैपचैट जैसे जाने कितने ही प्लैटफॉर्म हैं और लगातार नए प्लेटफॉर्म भी बन रहे हैं। दिन भर में करोड़ों की संख्या में इनकी मदद से व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यापारिक हर तरह के संदेश और वीडिओ एक जगह से दूसरी जगह तुरंत पहुंच जाते हैं। इसी तरह उनका जवाब भी फौरन मिल जाता है। ये हमारी ज़रूरत बन गये हैं।  

कहीं खो गई हैं हमारी चौपालें

इन तकनीकी अस्त्रों से लैस होने के बाद हम अनजाने में ही इनके आदी बन गए और हमने अपनी एक बहुत प्यारी चीज़ खो दी है – वह है बातचीत, संवाद, वार्तालाप। अब ये एप ही हमारे सम्पर्क सूत्र बन गये हैं जो मोबाईल के माध्यम से हमारी मुट्ठी में हमेशा उपलब्ध रहते हैं। शुरू में ये एक हमारे जीवन में एक सुविधा की तरह आये और अब हमें इनकी आदत हो गयी है या बल्कि यूं कहें कि लत पड़ गई है। इसका  सबसे बड़ा असर हमारी सहज रूप से होने वाली बातचीत पर पड़ रहा है। हमारी अभिव्यक्ति पर पड़ रहा है। हमारा आमने-सामने होने वाला आपसी में संवाद लगातार कम हो रहा है। कोरोना काल में हमने ज़ूम और गूगल मीट के जरिए मीटिंग्स करना भी सीख लिया है और कोरोना के समाप्त होने के बाद भी लोगों को यह सुविधाजनक लगने लगा है कि ऑनलाइन मीटिंग ही हो जाए तो आने-जाने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी। हम अब इतने सुविधाभोगी हो गए हैं कि मीटिंग-स्थल पर जाने में भी हमें आलस्य होने लगता है और हम यह भूल जाते हैं कि अगर हम वहाँ चले गए तो चार लोगों से मुलाकात हो जाएगी और उनसे आमने-सामने कुछ गप्प-गोष्ठी हो जाएगी।

यूं तो आप और हम चौबीसों घंटों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं किन्तु क्या ऐसा नहीं लगता कि डिजीटली कनेक्ट होने के बावजूद भी हम एक दूसरे से दूर हो रहे हैं। मेरी पीढ़ी के लोग तो यह महसूस करते ही हैं कि एक दूसरे के प्रति भावनाओं और संवेदनाओं में कमी आती जा रही है। बल्कि शायद अब हम साथ मिलकर बैठने के सहज कायदे भी भूलते जा रहे हैं। जैसे यदि कभी साथ मिलते बैठते भी हैं तो कुछ ज़रूरी और कुछ गैर ज़रूरी बातों के बाद आपस में बात करने के लिये कुछ नहीं होता। एक चुप्पी सी छा जाती है। कोई अपना मोबाइल ले कर चला जाता है, तो कोई वहीं बैठ कर संदेश लिखना-पढ़ना शुरू कर देता है। सभा समाप्त हो जाती है।

धीरे-धीरे हमें ये बात समझ में आ रही है कि ये वो जीवन नहीं है जो हम जीना चाहते थे। अपना भविष्य संवारने का जो सपना हमने अपने माता-पिता के साथ देखा था, उसे पूरा करना हमारा ध्येय था। पर वो इस कीमत पर? अपनों से दूर हो कर? महीनों बीत जाते हैं परिवार के साथ आराम से समय बिताये हुए। बच्चों की छुट्टियां कब आईं और कब चली गयीं पता ही नहीं चलता। इसमें सबसे ज़्यादा नुकसान बुजुर्गों का और बच्चों का हो रहा है। आज हर उम्र के व्यक्ति को डिप्रेशन हो रहा है। अकेलापन बढ़ रहा है। इस भागमभाग में हमारे ये आपसी संवाद के साधन सिर्फ औपचारिकता पूरी करते हैं। इनमें अभिव्यक्ति नहीं है, भावनात्मक लगाव नहीं है। ये न तो किसी की खुशी बढ़ाते हैं न दुख कम करते हैं। जो भी असर होता है वो तात्कालिक होता है और पूरी तरह सतही होता है। व्हाट्स एप ने दुनियादारी का स्वरूप बदल दिया है। अब हम मां और पिता के प्यार और सम्मान में ‘मदर्स-डे’ और ‘फादर्स-डे’ मनाते हैं। और भी बहुत से ‘डे’ हैं। हर रिश्ते का ‘डे’ है लेकिन रोज़ सुनने में आ रहा है कि लोगों में अकेलापन और अवसाद बढ़ रहा है। राजस्थान के कोटा शहर में युवावस्था की दहलीज़ पर खड़े जाने कितने ही किशोर अपनी जान गंवा चुके हैं और यह सिलसिला जल्दी रुकता भी नहीं दिख रहा। यह सब बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव में तो हैं ही लेकिन उससे भी बड़ी बात ये है कि तरह-तरह के सोशल मीडिया उपलब्ध होते हुए भी ये अकेलेपन का भी शिकार हैं।

संवाद तो है लेकिन सतही है

ऐसा नहीं है कि हम आपस में बोलते नहीं हैं। अजी सुबह से शाम तक हम बोलते ही रहते हैं या सोशल मीडिया के माध्यम से कुछ ना कुछ कहते ही रहते हैं। लेकिन सच बात ये है कि वो बोलना संवाद नहीं है। बातचीत सहज होती है। वो आपस में आत्मीय संबंध बनाये रखने का माध्यम होती है। याद करें कुछ साल पहले आप अपना जन्मदिन या शादी की सालगिरह कैसे मनाते थे। ये आयोजन ज्यादातर पारिवारिक होते थे और खुद के घर में मनाये जाते थे। बहुत हुआ तो चार-छह दोस्त और पड़ौसी शामिल हो जाते थे। घर में बने स्वल्पाहार से समारोह सफलतापूर्वक मन जाता था। आज व्हाट्सएप्प और फेसबुक पर दिन भर बहुत सारे संदेश तो आ जाते हैं लेकिन उन संदेशों में कितने ऐसे लोग होते हैं जिन्हें बिना सोशल मीडिया की घोषणा के आपके इस शुभ दिन की तारीख याद थी‌?

हमारी असंवेदनशीलता का सबसे बड़ा उदाहरण है किसी परिचित का देहान्त। पहले खबर मिलते ही दुख में साथ बैठने दिवंगत के घर जाते थे। अभी भी जाते हैं पर ठीक अंतिम यात्रा के समय या फिर शोकसभा के अंतिम आधे घंटे में। यदि ये समाचार आपको व्हाट्सएप पर मिला है तो तुरन्त एक शोक संदेश भेज कर हम फुर्सत से हो जाते हैं। इस तरह हम न किसी के दुख में शामिल होते हैं न सुख में!

आप याद करके देखें कुछ साल पहले की अपनी बस यात्रा और ट्रेन का सफर! कितना मज़ा आता था। सफ़र शुरू होने से पहले ही आसपास बैठे लोगों से परिचय हो जाता। ‌बच्चे बच्चों में मिल जाते थे बड़े भी आपस में मस्त हो जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं होता। बातचीत का पैमाना बदल गया है। सहज बातचीत दूर की बात हो गयी है। सब अपने अपने मोबाईल फोन में व्यस्त नज़र आते हैं। कोई भला आदमी अगर संवाद स्थापित करने की सोचे भी तो उसे सामने वाला एक-दो शब्दों में उत्तर देकर टालने का प्रयास करता है।

    हवाई यात्रा में एक नियम है आपको  अपना फोन जहाज के उड़ते समय ‘फ्लाइट मोड’ पर रखना पड़ता है। उस पूरी यात्रा में हम मोबाइल पर बात नहीं कर सकते। हम अपने सह यात्री से बात कर सकते हैं। पूरे सफर में फोन बंद रहने से कैसी बेचैनी होती है। मज़ा तब आता है जब एअर होस्टेस यात्रा समाप्त करने की घोषणा करती है और जब वो ये कहती है कि अब आप…वो अभी अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाती है और फोन कान पर लग जाता है। बातचीत होने लगती है। बिना फोन के कुछ देर चुप रहना एक सज़ा जैसा हो जाता है। फोन पर इतनी बातें करने वाला समाज ऐसा संवादहीन हो रहा है कि हमें अपने करीबियों की चिंताओं के बारे में पता नहीं होता। ये काफी अजीब बात है।

गुल-गपाड़ा बढ़ रहा है लेकिन अकेलापन है कि मिटता नहीं

हमारे समाज में गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। नये तीज-त्योहार मनाये जाने लगे हैं। पूजा स्थलों में हर आयोजन में बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं। एक ओर जहां हमारी उत्सव-प्रियता बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर हम अकेले भी पड़ रहे हैं। जैसा कि हमने ऊपर कहा, युवा और बुजुर्ग डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं। इसका कारण है आपसी प्यार आत्मीयता सब कम हो रहे हैं। आपस में मेलजोल कम हो रहा है। संवादहीनता हर जगह हावी है। अखबारों में हर दस बारह दिन में बिगड़ते आपसी रिश्तों ,बच्चों की परवरिश, बुजुर्गों की देख भाल ,पति पत्नी के आपसी संबंधों को ले कर कालम छपते हैं। विशेषज्ञों की राय प्रकाशित होती है। इस बात पर ज़ोर दिया जा रहा है कि बच्चों को और बुजुर्गो को अकेले न रहने  दें। उनके साथ बैठें। उनसे बात करें। उन्हें अकेलापन महसूस न होने दें। विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि ये आधुनिकता का अभिशाप है जो हम पर हावी है। हमें एक एक दूसरे को समझना होगा। समर्थन देना होगा। एक दूसरे के लिये समय निकालना होगा। आपसी तालमेल बनाना होगा। इससे अकेलेपन की भावना दूर होगी। हमें खुद आगे बढ़ कर ये वातावरण बदलना होगा। घर की व्यवस्था कुछ ऐसी करनी होगी कि हफ्ते में दो चार बार सब साथ बैठें। खाना नाश्ता जो भी सम्भव हो पूरे सदस्य साथ हों। हो सके तो मोबाइल लैपटॉप के उपयोग पर  कुछ नियम बनाए। नो मोबाइल ज़ोन भी बनाये जा सकते हैं। ये सब कहना आसान है। फिर भी हमें आपस में बढ़ती दूरियों को कम करना होगा। एक दूसरे के साथ समय बिताने का हर सम्भव प्रयास करना पड़ेगा। हम अकेले बोल सकते हैं पर बातचीत नहीं कर सकते। खुश रह सकते हैं पर उल्लास का वातावरण नहीं बना सकते।  मतभेद से न डरें, बस मनभेद नहीं होना चाहिए। बातचीत का मज़ा लें फिर देखें जीवन कैसे बदलता है। सामान्य शिष्टाचार और आपसी व्यवहार हर रिश्ते का आधार होता है। उसे अपनायें।

किसी के साथ बैठना बहुत आसान होता है पर खड़े रहना बहुत कठिन। हम सब साथ बैठते भी हैं और मिलते भी हैं पर गौर करें क्या कोई आपके साथ खड़ा है? नहीं आप अकेले खड़े हैं। ये संवादहीनता आपको और अकेला कर देगी। आत्मीयता का महत्व समझें और असली वार्तालाप का प्रतिशत बढ़ा कर देखें आनन्द ही आनन्द बरसेगा।

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इस लेख की बैनर इमेज हमें लेखक ने ही उपलब्ध कराई है।

वर्षों आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग और केंद्र सरकार के अन्य संचार माध्यमों में कार्य-रत रहने के बाद नन्दिता मिश्र अब स्वतंत्र लेखन करती हैं। नन्दिता जी के लेख पहले भी इस वेब पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं जिनमें से एक “मन्ना – बोलचाल के कवि” आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

2 COMMENTS

  1. बहुत ज़रूरी विषय जिसपर न जाने कितनी भड़ास निकाली जा सकती है। पर लेखिका ने बड़े संयम से विषय को साधा है। इस निर्मम संवादहीनता से अजीब सा अवसाद और चिड़चिड़ापन घर करता जा रहा है। मुझे याद है, 5-6 मित्र परिवार, या फिर दो भी, बिना तामझाम मिलते थे। एक-दो सब्जी, चाय-पकौड़े या फिर दूसरे पेय के साथ बैठ जाते थे। गुलज़ार के गानों के अर्थ, हेमंत कुमार और जगजीतसिंह की आवाज़ या देश-समाज पर (व्हाट्सएप पर नहीं, पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ी) द्वेषहीन , elevating चर्चा होती थी। रिश्तेदार आते तो मन जुड़ जाते, अतीत वर्तमान बन कर मन को छू जाता। तन-मन रिपेयर हो जाता।
    अब तो, मेरा एक कॉलेज का दोस्त जिसे मैंने बहुत मेहनत से खुश होकर ढूंढ निकाला था, पिछले चार साल से रोज एक गुड़ मॉर्निंग भेजता था। शायद इस बीच मैं मर जाऊं, तब भी भेजता रहेगा!!

    नंदिता जी, विद्या जी,बहुत आभार।

  2. नंदिता जी का आलेख बहुत ही सामयिक और हमें बहुत कुछ सोचने को बाध्य करता है।

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