घने देवदार वन में बसे जागेश्वर धाम को भी लग गई किसी की नज़र

डॉ सुरेश पंत*

पिछले कुछ महीनों से उत्तराखंड के शांत एकांत स्थान में स्थित जागेश्वर धाम चर्चा का विषय बना हुआ है। हल्द्वानी से अल्मोड़ा होकर पिथौरागढ़ जाने वाले राजमार्ग पर आरतोला से लगभग 3 किलोमीटर दूर समुद्र तल से लगभग 1900 मी ऊँचाई पर प्राचीन जागेश्वर धाम बसा हुआ है। यहाँ पर लगभग सवा सौ छोटे-बड़े प्राचीन मंदिर हैं जिनका निर्माण कत्यूरी और चंद राजवंशों के दौर में 7-वीं से लेकर 18-वीं शताब्दी ईसवी के बीच हुआ है। इनमें नागेश्वर ज्योतिर्लिंग माने जाने वाले जागेश्वर धाम के मुख्य मंदिर के अतिरिक्त मृत्युंजय मंदिर, केदारनाथ मंदिर, पुष्टि देवी मंदिर, लकुलीश मंदिर, भैरव मंदिर और कुबेर मंदिर अधिक प्रसिद्ध हैं।

मंदिर परिसर के चारों ओर कुछ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सघन देवदार वन का अनोखा प्राकृतिक दृश्य आँखों की भूख मिटाता है तो दूसरी ओर वहाँ का शांत आध्यात्मिक वातावरण मन को तृप्त कर देता है। यही कारण है कि एक बार जागेश्वर के दर्शन कर लेने के बाद पर्यटक उसे जीवन भर नहीं भूल पाते।

उत्तराखंड की धार्मिक सांस्कृतिक थाती है जागेश्वर। ऐसा मनोरम कि एक बार जो गया, आजीवन भुला नहीं पाता। दुर्लभ आध्यात्मिक शांति का एक बड़ा कारण जागेश्वरधाम के आसपास का सैकड़ों साल पुराने पेड़ों, पशु-पक्षियों के बसेरे वाला सघन देवदार वन है। विशाल पेड़ों की छाया में पनपने वाले पौधों, लता-गुल्मों का हरा-भरा आवरण सदा नमी बनाए रखता है जिसके परिणाम स्वरूप न केवल वातावरण शीतल और सुखद रहता है, अधोभौमिक जल स्तर भी ऊपर आ जाता है। मंदिर परिसर को छूकर बहती हुई सदानीरा जटा गंगा इन्हीं वृक्षों और उनकी नमी की देन है।

जागेश्वर धाम का धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से और प्राकृतिक पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है और साल भर लाखों यात्री यहाँ पहुँचते हैं। सावन महीने में तो प्रतिदिन हजारों दर्शनार्थी पहुँचते हैं। प्रत्येक सोमवार को और महत्वपूर्ण पर्व-त्योहारों के अवसर पर भी दर्शनार्थियों की भीड़ रहती है।

दुर्भाग्य से यही विशेषताएँ अब जागेश्वर धाम के कुछ लोगों की चिंता का और कुछ लोगों की अधिक से अधिक कमाने की भूख का कारण बन रही हैं। कुछ वर्षों से विकास के नाम पर तीर्थ स्थानों को पर्यटन स्थानों में बदल देने का रिवाज़ चल पड़ा है और जागेश्वर धाम को भी इसमें शामिल कर लिया गया है।

उत्तराखंड में चार धाम कॉरिडोर के नाम पर गढ़वाल के चारों प्राचीन धर्मों को चार लेन की चौड़ी सड़कों के द्वारा जोड़ने का कार्यक्रम चला। इसके अंतर्गत भी न्यायालयों और हरित प्राधिकरण के हस्तक्षेप के बावजूद 50,000 से अधिक पेड़ काटे गए। भू वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया गया। इसके दुष्परिणाम दिखाई पड़ने लगे हैं। जोशीमठ दरक रहा है, और निवासी अपने पक्के घरों को छोड़कर भाग रहे हैं। सिल्कियारा सुरंग के बैठ जाने से 40 मजदूरों के फँस जाने की दुर्घटना हुए अभी अधिक दिन नहीं हुए। बादल फटना, अचानक बाढ़ और भूस्खलन, ग्लेशियरों का पिघलना -खिसकना आदि हलचलें हिमालय क्षेत्र में आम हो गई हैं। नदियों में गिरे मलबे से होने वाले नुकसान का कोई आकलन नहीं है। अब विकास का यही नुस्खा उत्तराखंड के पूर्वी भाग यानी कुमाऊँ में आजमाया जाना है।

प्रधानमंत्री मोदी जी उत्तराखंड दौरे पर कहते रहे हैं कि इस सदी का तीसरा दशक उत्तराखंड का होगा। मानसखंड कॉरीडोर वही प्रोजेक्ट है, जिसका वादा चुनाव से पहले बीजेपी ने अपने विज़न डाक्यूमेंट में भी किया था। कहा जा रहा है कि मोदी जी की जागेश्वर यात्रा के समय उन्हें मानसखंड परियोजना का ड्राफ्ट दिखाया गया किंतु कुछ लोगों का यह भी कहना है कि इसमें स्थानीय लोगों को शामिल नहीं किया गया।

बताया जा रहा है कि मानस खंड कॉरिडोर परियोजना उर्फ़ मंदिर माला प्रोजेक्ट के तहत 29 मंदिरों को चिह्नित कर लिया गया है। कोशिश है कि जो स्थान सड़क से नहीं जोड़े जा सकते वहाँ रोपवे लगाए जाएँ। पहले चरण में लगभग 19 रोपवे भी चिह्नित किए गए हैं। मानस खंड कॉरिडोर राजमार्ग से जोड़े जाने वाले चिह्नित मंदिर निम्नलिखित बताए जा रहे हैं :

अल्मोड़ा : जागेश्वर महादेव, चितई गोलज्यू मंदिर, सूर्यदेव मंदिर, नंदादेवी मंदिर कसारदेवी मंदिर, झांकर सैम मंदिर।

पिथौरागढ़ : पाताल भुवनेश्वर, हाटकालिका मंदिर, मोस्टमाणू मंदिर, बेरीनाग मंदिर, मलेनाथ/तुंगनाथ मंदिर, थलकेदार मंदिर।

बागेश्वर : बागनाथ महादेव, बैजनाथ मंदिर, कोट भ्रामरी मंदिर।

चंपावत : पाताल रुद्रेश्वर गुफा, गोल्ज्यू मंदिर, पूर्णागिरी मंदिर, बाराही देवी मंदिर, देवीधुरा मंदिर, रीठा साहिब मंदिर।

नैनीताल : गोल्ज्यू मंदिर घोड़ाखाल, नैनादेवी मंदिर, गर्जियादेवी मंदिर, कैंचीधाम मंदिर, हनुमान मंदिर।

ऊधमसिंह नगर : चैती (बाल सुंदरी) मंदिर, अटरिया देवी मंदिर और नानकमत्ता साहिब।

मंदिर कॉरिडोर के पक्ष में अनेक तर्क दिए जाते हैं जिनमें मुख्य हैं कि पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी और स्थानीय लोगों को रोज़गार मिलेगा। उनकी आर्थिक दशा सुधरेगी। जहां तक जागेश्वर का प्रश्न है, कुछ स्थानीय निवासी और व्यवसायी, मंदिर के पुजारियों का एक वर्ग, मंदिर के पास ही पूजन सामग्री बेचने वाले, भोजन और चाय नाश्ता देने वाले ढाबे और छोटे होटल सड़क चौड़ीकरण की इस परियोजना को जागेश्वर कस्बे के लिए बेहद महत्वपूर्ण मान रहे हैं। जाहिर है कि इस वर्ग को पर्यावरण या पेड़ों की उतनी चिंता नहीं, जितनी अपने रोज़गार को अधिक लाभकर बनाने की है। उनका मानना यह है कि जितने पेड़ काटने हैं उनके बदले नए पेड़ लगा दिए जाएँ, पर काम न रोका जाए। यह विचित्र तर्क है। किसी 100 वर्ष की आयु के पेड़ को काटकर नया पेड़ लगाना माने 100 वर्ष उसके बड़े होने की प्रतीक्षा करना। वैसे भी देवदार के पेड़ों के विकास की गति बहुत धीमी होती है। संभवतः एक वर्ष में एक फुट या उससे कम। सरलता से कल्पना की जा सकती है कि एक हरे-भरे वन को उजाड़कर उसके स्थान पर नए पेड़ रोपकर कितने वर्षों में उस क्षेत्र को हरा भरा कर पाएँगे।

अभी लगभग 3 किलोमीटर लंबी आरतोला जागेश्वर सड़क को वाहनों के आसान परिवहन के लिए 12 मीटर चौड़ा करने की योजना है। इसके लिए सड़क के किनारे 888 पेड़ चिह्नित किए गए  हैं जिनमें से लगभग 80 प्रतिशत से अधिक पेड़ देवदार के हैं और कुछ दूसरी प्रजातियों के भी हैं। यों तो प्रकृति में सभी पेड़ों का अपना महत्व है। किसी स्थान विशेष की भौगोलिक स्थिति जलवायु आदि के अनुसार ही वहाँ की प्राकृतिक वनस्पति होती है। देवदार का वृक्ष अपने सुगंधित काष्ठ, मनोहारी स्वरूप, शीतलता तथा अन्य अनेक कारणों से बहुत लोकप्रिय है। देवदार पहाड़ों में भी हर स्थान पर नहीं पाए जाते। स्थानीय विश्वासों के अनुसार देवदार पेड़ों का कहीं उगना ही उस स्थान के पवित्र होने का एक लक्षण है।

सोचने की बात यह भी है कि यदि एक मंदिर को जोड़ने वाली तीन-चार किलोमीटर सड़क को चौड़ा करने में लगभग हजार पेड़ काटे जाने  हैं तो छह जिलों में दूरदराज छिटके हुए स्थानों पर निर्मित 29 मंदिरों को जोड़ने में कितने किलोमीटर सड़क का चौड़ीकरण होगा और उसके परिणाम स्वरूप कितने पेड़ काटे जाएँगे, इसका कोई सरकारी आंकड़ा अभी उपलब्ध नहीं है किंतु यह गहन चिंता का विषय तो है ही।

देवदार के इन पेड़ों को चिह्नित किए जाने की ख़बर पर सोशल मीडिया में भी विविध प्रतिक्रियाएँ देखने को मिली हैं। कई पर्यावरण प्रेमियों और पत्रकारों ने अपने सोशल मीडिया हैंडलों से उत्तराखंड की पुष्कर धामी सरकार की इस पहल के लिए आलोचना की। कुछ दिन अनेक मंचों पर हुए शोरगुल के बाद उत्तराखंड सरकार ने फ़िलहाल मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जी ने संज्ञान लेते हुए संबंधित अधिकारियों को सर्वे की पुनः समीक्षा करने के निर्देश दिए हैं। मुख्यमंत्री कार्यालय के अनुसार “माननीय मुख्यमंत्री ने कहा कि हम इकोलॉजी और इकोनॉमी के बेहतर समन्वय के साथ प्रदेश को विकास के पथ अग्रसर करने हेतु प्रतिबद्ध हैं।”

इसका निहितार्थ यह भी हुआ कि काम रोका नहीं गया है, पुनः समीक्षा होनी है। क्योंकि मुख्य उद्देश्य मंदिरों को चौड़ी सड़क से जोड़ना है, इसलिए यह निश्चित है कि राज्य को ‘विकास के पथ पर अग्रसर करने हेतु प्रतिबद्ध’ होने के कारण काम नहीं थमेगा। पेड़ कटेंगे, संख्या कितनी होगी कहना मुश्किल है।

निस्संदेह विकास आवश्यक है किंतु विकास और विनाश में संतुलन का बिंदु क्या हो, यह विचारणीय है। एक समय पेड़ों की रक्षा के लिए सारे विश्व में चर्चा और प्रेरणा का विषय बने “चिपको आंदोलन” की जन्मभूमि यही उत्तराखंड है और विचित्र है कि आज वहाँ की सरकार ही पेड़ों को काटकर विकास करने को प्रतिबद्ध मालूम पड़ती है! उम्मीद ही की जा सकती है कि लोग शीत निद्रा से जागेंगे।

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1940 में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद में जन्मे डॉ सुरेश पंत समर्पित भाषाविद हैं और पिछले कई दशकों से भाषा संबंधी गुत्थियों को सुलझाते आए हैं। हाल ही में भाषा संबंधी उनकी तीन पुस्तकें – शब्दों के साथ-साथ (दो भाग) और भाषा के बहाने खूब चर्चा में हैं। वह ट्विटर पर भी बहुत लोकप्रिय हैं और अपने twitter-handle @drsureshpant पर भी लोगों की भाषा सम्बधी शंकाओं का समाधान देते रहते हैं। भाषा के अतिरिक्त उन्हें प्रकृति से भी विशेष अनुराग है और पिछले कुछ दशकों से उत्तराखंड में हो रही पर्यावरणीय क्षति को लेकर वह चिंतित रहते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है। 

1 COMMENT

  1. विचित्र विरोधाभास की स्थिति है. संतुलन बनाये रखने के लिए मध्यम पन्था ही एकमात्र उपाय है. उत्तराखंड की विभीषिका से सबक लेना चाहिए.
    धन्यवाद

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