राकेशरेणु*
स्त्री – एक
एक दाना दो
वह अनेक दाने देगी
अन्न के।
एक बीज दो
वह विशाल वृक्ष सिरजेगी
घनी छाया और फल के।
एक कुआँ खोदो
वह जल देगी शीतल
अनेक समय तक अनेक लोगों को
तृप्त करती।
पृथ्वी को कुछ भी दो
वह और बड़ा,
दोहरा-तिहरा करके लौटाएगी
पृथ्वी ने बनाया जीवन सरस,
रहने-सहने और प्रेम करने लायक
स्त्रियाँ क्या पृथ्वी जैसी होती हैं ?
स्त्री –दो
यह जो जल है विशाल जलराशि का अंश
इसी ने रचा जीवन
इसी ने रची सृष्टि।
यह जो मिट्टी है, टुकड़ाभर है
ब्रह्मांड के अनेकानेक ग्रह नक्षत्रों में
इसी के तृणांश हम।
यह जो हवा है
हमें रचती बहती है
हमारे भीतर–बाहर प्रवाहित।
ये जो बादल हैं
अकूत जलराशि लिए फिरते
अपने अँगोछे में
जल ने रचा इन्हें हमारे साथ-साथ
उन्होंने जल को
दोनों समवेत रचते हैं पृथ्वी-सृष्टि।
ये वन, अग्नि, अकास-बतास
सबने रचा हमें
प्रेम का अजस्र स्रोत हैं ये
रचते सबको जो भी संपर्क में आया इनके।
क्या पृथ्वी, जल,
अकास, बतास ने सीखा
सिरजना स्त्री से
या कि स्त्री ने सीखा इनसे ?
कौन आया पहले
पृथ्वी, जल, अकास, बतास
या कि स्त्री ?
स्त्री – तीन
वो जो महुए के फूल बीन रही थीं
फूल हरसिंगार के
प्रेम में निमग्न थीं!
वो जो गोबर पाथ रही थीं
जो रोटी सेंक रही थीं
वो जो बेटियों को स्कूल भेज रही थीं
सब प्रेम में निमग्न थीं!
वो जो चुने हुए फूल एक-एक कर
पिरो रही थीं माला में
अर्पित कर रही थीं
उन्हें अपने आराध्य को
प्रेम में निमग्न थीं!
स्त्रियाँ जो थीं, जहाँ थीं
प्रेम में निमग्न थीं!
उन्होंने जो किया-
जब भी जैसे भी किया
प्रेम में निमग्न रहकर किया!
स्त्रियों से बचा रहा प्रेम पृथ्वी पर
प्रेममय जो है
स्त्रियों ने रचा!
स्त्री – चार
वे जो चली जा रही हैं क़तारबद्ध
गुनगुनाती, अंडे उठाए चीटियाँ
स्त्रियाँ हैं ।
वे जो निरंतर बैठी हैं
ऊष्मा सहेजती डिंब की
चिड़ियाँ, स्त्रियाँ हैं।
जो बाँट रही हैं चुग्गा
भूख और थकान से बेपरवाह
स्त्रियाँ हैं।
जीभ से जो हटा रही हैं तरल दुःख
और भर रही हैं जीवन
चाटकर नवजात का तन
स्त्रियाँ हैं।
जो उठाए ले जा रही हैं
एक-एक को
पालना बनाए मुँह को
स्त्रियाँ हैं।
स्त्रियाँ जहाँ कहीं हैं
प्रेम में निमग्न हैं –
एक हाथ से थामे दलन का पहिया
दूसरे से सिरज रहीं दुनिया।
स्त्री – पाँच
जो राँधी जा रही थीं
सिंक रही थीं धीमी आँच में तवे पर
जो खुद रसोई थीं रसोई पकाती हुई
स्त्रियाँ थीं।
व्यंजन की तरह सजाए जाने से पहले
जिनने सजाया खुद को
अनचिन्ही आँखों से बस जाने के लिए
वे स्त्रियाँ थीं।
शिशु के मुँह से लिपटी
या प्रेमी के सीने से दबी
जो बदन थीं, खालिस स्तन
स्त्रियाँ थीं।
जो तोड़ी जा रही थीं
अपनी ही शाख से
वे स्त्रियाँ ही थीं।
वे कादो बना लेती थीं खुद को
और रोपती जाती थीं बिचड़े
अपने शरीर के खेत में।
साग टूँगते हुए वे बना लेती थीं
खुद को झोली
जमा करती जाती थीं
बैंगन, झिंगनी, साग, या कुछ भी
और ऐसे चलतीं जैसे गाभिन बकरी
या जैसे छौने लिए जा रही कंगारु माँ।
वो एक बड़ा आगार थीं
जो कभी खाली न होता था
देखना कठिन था
लेकिन उनका खालीपन
सूना कोना-आँतर!
स्त्री – छ:
एक स्त्री को पत्थर बना दिया गया
एक स्त्री को विष का प्याला दिया गया
एक स्त्री की अग्नि परीक्षा ली गई
नाक काट ली गई एक स्त्री की
एक स्त्री को ज़िंदा जला दिया गया।
बस इसलिए कि
उन्होंने थोड़ी जगह चाही अपने लिए
अपनी इच्छाओं-कामनाओं के लिए
बस थोड़ा सा आकाश चाहा
अपनी छोटी सी उड़ान के लिए
या फिर बस
मनुष्य बने रहने के लिए!
स्त्रियाँ वाचाल मानी गईं
उनकी इच्छाएँ थीं
वे धरती चाहती थीं
आसमान पाने की हसरत रखती थीं
डरे हुए पुरुष को अपनी सत्ता जाने का डर था
वह ऐसी सभी स्त्रियों से मुक्ति चाहता था।
इन्द्र को सत्ता जाने का डर था
अयोध्या को अपनी इज़्ज़त
राज्य के विभाजन की आशंका रही ययाति को
उसे भोग के लिए चाहिए थी स्त्री
बराबरी और हक़ जताने के लिए नहीं ।
डर था उन्हें वर्चस्व छूटने का
स्त्रियों के बेकहल होने का
इन्द्र, ययाति, देवदत्त, राम
एक ही पुरुष के थे अलग-अलग नाम ।
आर्यावर्त की यह कथा
हस्तिनापुर अयोध्या मिथिला
लंका किष्किन्धा चित्तौड़ होती हुई
नये मगध तक चली आयी थी ।
स्त्री – सात
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।
वह दुख समझना चाहता हूँ
जो उठाती हैं स्त्रियाँ
उनके प्रेमपगे आस्वाद को किरकिरा करने वाली
जानना चाहता हूँ
जनम से लेकर मृत्यु तक
हलाहल पीना चाहता हूँ
प्रताड़णा और अपमान का
जो वो पीती हैं ताउम्र
महसूसना चाहता हूँ
नर और मादा के बीच में भेद का
काँटे की चुभन
नज़रों का चाकू कैसे बेधता है
कैसे जलाती है
लपलपाती जीभ की ज्वाला
स्त्रीमन की उपेक्षा की पुरुषवादी प्रवृत्ति
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।
उनकी सतत मुस्कुराहट
पनीली आँखों
कोमल तंतुओं का रचाव
और उत्स समझना चाहता हूँ
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।
*पिछले दो दशक से अधिक समय से साहित्य-सृजन में रत राकेशरेणु के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा ई-पोर्टल पर कविताएँ, साहित्य, कला और थियेटर पर लेख आदि प्रकाशित होते रहते हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर कविताएँ, वार्ताएँ और परिचर्चाएँ भी प्रसारित हुई हैं। इस दौरान आधे दर्जन से अधिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया है। इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं – ‘रोजनामचा’ (कविता संग्रह), ‘इसी से बचा जीवन’ (कविता संग्रह) , ‘नये मगध में’ (कविता संग्रह – प्रकाश्य), ‘सोबती की सोहबत में'(सं), ‘फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास'(सं), ‘सौ वर्ष बाद छायावाद’(सं), ‘समकालीन हिंदी कहानियाँ’ (सं), ‘समकालीन मैथिली साहित्य’ (सं), ‘यादों के झरोखे’ (संकलन-संपादन)। फिलहाल साहित्य-संस्कृति की पत्रिका “आजकल ” के संपादक। मोबाइल : 9868855425 ईमेल: [email protected]
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