आज प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कृषि क़ानूनों की वापसी की घोषणा के साथ ही जो कयास लगाए जा रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख ये है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब में आगामी विधानसभा चुनावों के कारण मोदी सरकार ने अपने अहम को ताक पर रख कर ये निर्णय किया है। विपक्ष इसे लोकतन्त्र की विजय तो बता रहा है लेकिन साथ ही सरकार की इस बात के लिए आलोचना कर रहा है कि उसने 600 किसानों की शहादत के बाद ये निर्णय किया है। इस पर भी चर्चा है कि क्या सिर्फ ये कानून वापिस लेने से किसानों की समस्याएँ हल हो जाएंगी? किसानों की एक बड़ी मांग तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी रूप देने की है। क्या संसद का आगामी सत्र इस विषय पर चर्चा भी करेगा? इस आलेख में हमें इन बहुचर्चित विषयों पर अपनी कोई राय नहीं देनी बल्कि कुछ ऐसी बातें करनी हैं जिनकी ज़्यादा चर्चा नहीं है।
गांधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को (अक्सर प्रशासन की शह से) पूजने वाला वर्ग आज काफी उदास होगा। पहले तो उन्हें गांधी के नाम से ही डर लगता था, किसानों के इस अहिंसात्मक आंदोलन के कामयाब होने के बाद तो उन्हें गांधी अपने सामने खड़े नज़र आएंगे। जब तक सत्ता पक्ष उन्हें कोई नई घुट्टी नहीं पिला देता, तब तक गोडसेवादी बदहवास से इधर-उधर भागते दिखेंगे। धन्यवाद सत्ता पक्ष का कि उसने गोडसेवादियों को गांधी को ज़िंदा देखने में मदद की! यह बात अलग है कि गांधी जी आज अगर सचमुच होते (या उनका कोई सच्चा अनुयाई भी होता) तो वह बहुत खुश ना हो रहे होते। बहरहाल, इसकी चर्चा आगे हो सकती है।
एक बात अपने उन मित्रों को कहनी है जो लोकतन्त्र की चिंता करते हैं और आज इसलिए खुश हैं कि वाह, जन-दबाव काम आया और इतनी अहंकारी सरकार को भी जनता के सामने झुकना पड़ा। यह बात भी सही है कि पिछले सात वर्षों में इस सरकार ने पहली बार किसी मुद्दे पर खुल कर अपनी हार मानी है क्योंकि इससे पहले जब 2016 में मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम को रद्द करने का प्रयास किया था तो उस समय जन-दबाव बनने के पहले ही राजनीतिक दलों और खास तौर पर अपने सहयोगी दलों और संभावित सहयोगी दलों के मुखर विरोध के दबाव में ही अपना फैसला उलट दिया था। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पर जिस तरह से देश भर के पूरे मुस्लिम समुदाय ने अपना अविश्वास और विरोध जताया था, यदि सरकार का लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति दिखावटी कमिटमेंट भी होता तो सरकार इस पर पुनर्विचार करती क्योंकि राजनीतिशास्त्र के विद्वान कहते हैं कि किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था की परीक्षा की घड़ी तब आती है जब उसे घोर असहमति और अल्पसंख्यक विचार से डील करना होता है। लेकिन बहुसंख्यकवाद की राजनीति के चलते मुसलमान वोट की अहमियत कम से कम लोकसभा चुनाव के लिए तो खत्म ही हो गयी है, इसलिए राजधानी दिल्ली सहित देश के अनेक भागों में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में चले अहिंसात्मक आंदोलनों को और विरोध को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया। लेकिन किसान आंदोलन का चुनावों पर असर पड़ सकता था, इसलिए सत्ता पक्ष किसी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहता था। हमारे एक मित्र ने तो टिप्पणी की कि सत्ता और किसानों के संघर्ष में हमेशा किसानों की ही जीत हुई है – चंपारण, खेड़ा, बारडोली से लेकर वर्तमान कृषि कानूनों तक!
मुद्दे पर वापिस आयें तो आज मिली यह जीत जो किसानों की सीधी जीत जैसी दिख रही है, इसे सिर्फ एक रणनीतिक कौशल के तौर पर देखा जाना चाहिए, जिसमें सत्ता पक्ष थोड़ा पीछे हटता ज़रूर दिखता है लेकिन सत्तापक्ष ने जनता को इस विजय का एहसास देने से पहले जाने कितनी ही ऐसी चीज़ें कर रखी हैं जिनसे सत्ता में जन-भागीदारी कमज़ोर होती है और सत्ता का केन्द्रीयकरण बढ़ता है। वैसे यहाँ ये स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि सत्ता के केन्द्रीयकरण का काम पहली बार नहीं हो रहा और इन्दिरा गांधी के अधिनायकवाद की ओर बढ़े कदमों के अलावा भी देश में समय-समय पर ऐसे अवसर आते रहे हैं जब केंद्र सरकार ने ज़्यादा से ज़्यादा ताकत समेटने की कोशिश की है। क्या ये याद दिलाने की आवश्यकता है कि राज्य सरकारों के अधिकार हड़पने वाली सुरक्षा एजेंसी एनआईए का गठन चिदम्बरम ने किया था और आज जिस यूएपीए कानून का धड़ल्ले से दुरुपयोग किया जा रहा है, वह भी चिदम्बरम साहब की देन है। इन्कम टैक्स और एनफोर्समेंट डायरेक्टोरेट (प्रवर्तन निदेशालय) का दुरुपयोग भी पहली बार नहीं हो रहा। यह बात अलग है कि अब यह काम पहले से कहीं ज़्यादा कुशलता से हो रहा है और यहाँ तक कि जब कोविड के दौरान भास्कर ग्रुप के अखबारों ने ज़रा असुविधाजनक खबरें लिखीं तो उन पर भी छापे पड़ गए।
जनता की आज हुई इस जीत के साथ देश के विपक्ष को, यहाँ कि सिविल सोसाइटी को और यहाँ के सभी प्रबुद्ध लोगों को ये सोचना होगा कि सत्ता-पक्ष की आज एक कदम पीछे चली गई इस चाल का जवाब वह कैसे देते हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा को रोकना (यदि वह आज खेली गई इस बाज़ी के बावजूद भी संभव हो पाया तो) सत्ता पक्ष के लिए एक झटका ज़रूर होगा लेकिन उससे वह ज़्यादा समय तक विचलित नहीं रहने वाले। वोट की राजनीति समझने वाले कई प्रबुद्ध लोग अब यह कहने लगे हैं कि आरएसएस-भाजपा को सत्ता-च्युत करना अब अगले कई वर्षों या बल्कि दशकों तक संभव नहीं। इसमें संदेह नहीं कि ऐसा कहने वालों में प्रशांत किशोर जैसे संदिग्ध राजनीतिक प्रतिबद्धता वाले लोग भी हैं लेकिन यह भी सच है कि जब लोकतान्त्रिक तरीके से ऐसे लोग सत्ता में आ जाएँ जिनकी प्रतिबद्धता लोकतान्त्रिक मूल्यों की अपेक्षा अपने ही सपनों का राष्ट्र बनाने में हो तो फिर वो ऐसी आसानी से सत्ता नहीं जाने देंगे कि दो-चार प्रतिशत वोट शेयर इधर से उधर हुआ और वो झोला उठा कर चल दिये। वैसे उनका वोट शेयर भी ना खिसके, इसके पूरे इंतज़ाम वह सुनिश्चित कर रहे हैं।
वोट शेयर ना खिसके, इसके लिए कुछ ना कुछ चलता रहेगा। प्रशासनिक शिकंजा भी मज़बूत होता रहेगा और कल्याणकारी योजनाओं के पिटारे भी खुलेंगे। दोनों के उदाहरण ढूँढेंगे तो प्रशासनिक ‘सुधारों’ में एक बड़ा सुधार तो सरकार ने अभी हाल ही में अध्यादेश के ज़रिए किया है जिसमें यह व्यवस्था की गई है कि सीबीआई, सीवीसी और ई-डी के मुखिया का कार्यकाल पहले के निर्धारित दो वर्ष के बाद सरकार की इच्छा के अनुसार तीन वर्ष तक आगे बढ़ाया जा सकता है। इसे आप साधारण बदलाव ना मानिए। संसद का सत्र शुरू होने के दस-बारह दिन पहले लाये गए इस अध्यादेश को आनन-फानन में लाने के बाद ईडी के चीफ संजय मिश्रा का कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया गया। ये वही प्रवर्तन निदेशालय है जिसको लेकर आजकल ये आरोप लगाया जा रहा है कि उसका खुलकर राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है। कुल मिलाकर यह कि क्या तीन साल का कार्यकाल (एक-एक वर्ष करके) बढ़ाए जाने का प्रावधान करना इन संस्थाओं के अध्यक्षों को अपने पक्ष में रखने का उपाय नहीं है? यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है, ऐसी छोटी-छोटी लगने वाली कई चीज़ें हुई हैं जिनसे लोकतन्त्र को सुचारु रखने वाली संस्थाएं कमजोर हुई हैं चाहे वो न्यायपालिका हो, चुनाव आयोग हो या आरटीआई जैसे कानून। लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ मीडिया का तो क्या कहना! मेनस्ट्रीम मीडिया के कॉर्पोरेट स्वार्थ ऐसे हैं कि वो एक दुकानदार बन कर रह गए हैं जो किसी भी कीमत पर सरकारी इंस्पेक्टरों से पंगा नहीं लेना चाहता। इन बातों पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं, आज तो इसलिए ज़िक्र आ गया कि इतनी महत्वपूर्ण जांच संस्थाओं के मुखियाओं का कार्यकाल बढ़ाए जाने जैसे गंभीर विषय पर कहीं कोई खास चिंता नहीं दिखी।
कुछ लोगों को तो यह भी आशंका है कि आज के इस एक कदम पीछे हटने वाले फैसले से सत्ता-पक्ष के अंध-समर्थकों के बीच जो बेचैनी आई होगी, उन्हें ‘राहत’ पहुँचाने के उपाय भी सोचे जा रहे होंगे, इसलिए देश और समाज को कुछ समय तो दम साध कर रखना होगा क्योंकि पता नहीं क्या नई चीज़ आ जाए। वैसे भी ध्यान हटाने के लिए कुछ ऐसा होते रहना चाहिए कि लोग मग्न रहें क्योंकि खाने-पीने की वस्तुओं का दाम और बेरोजगारी की दर – दोनों ही जैसे एक दूसरे से शर्त लगाकर ऊपर की तरफ दौड़ रहे हैं और उन पर हमें टीवी चैनलों पर चर्चा नहीं चाहिए। खाये-अघाए मध्यम-वर्ग को चाहे ‘फूड-इन्फ़्लेशन’ का फर्क ना पड़ता हो और संगठित वर्ग का अफसर-कर्मचारी चाहे इसे डीए (महंगाई भत्ता) बढ्ने के अवसर के रूप में देखें, देश की अधिसंख्य जनसंख्या आज भी रोज़ कमा और रोज़ खा वाली स्थिति में अपना गुज़ारा कर रही है। सरकार का पोषण-अभियान पता नहीं कैसे चल रहा है क्योंकि आंगनवाड़ियाँ और स्कूल तो बंद पड़े हैं जहां गरीब बच्चे आ कर भोजन पा जाते थे। अब चाहे ‘हंगर-इंडेक्स’ बनाने वाले लोग मक्कार भी हों, तब भी कहीं कोई कमियाँ तो होंगी ही जो हम इसमें 2016 से लगातार नीचे गिरते जा रहे हैं।
तो किसानों की आज की इस जीत से उत्साहित लोगों को चाहिए कि वो इस जीत के जश्न को तब तक स्थगित रखें जब तक देश में लोकतन्त्र सुरक्षित नहीं हो जाता – हालांकि इसका कोई पैमाना नहीं होता लेकिन कुछ मोटा-मोटा अनुमान तो लग ही जाता है जैसे 1977 में इन्दिरा गांधी की हार और उसके बाद जनता पार्टी की सरकार द्वारा किए गए कुछ संशोधनों के बाद दुबारा आपातकाल जैसी स्थितियाँ बनने में करीब चार दशक तो लग ही गए। तो इस जीत का जश्न उन्हीं जश्नों के साथ मनाइएगा जब देश में असहमति के स्वरों को ज़्यादा ध्यान से सुना जायेगा (ना कि उन्हें जेल भेजा जाए), जब कोमेडियन्स और कलाकारों को धमकियाँ ना मिल रही हों, जब न्यायपालिका असहाय की तरह व्यवहार ना करे और सत्ता से कड़े सवाल पूछ सके, जब देश का हर नागरिक अपने को बराबर का महफूज़ समझे और उसे ऐसा ना लगे कि उसके अल्पसंख्यक होने के कारण उसको कैसी भी जिल्लत उठानी पड़ेगी या उसे पाकिस्तान जाने को कहा जाएगा, जब चुनाव आयोग फिर एक बार निष्पक्ष होगा और दिखेगा भी, जब ईवीएम मशीनों पर सवाल उठने से चुनाव आयोग और सत्ता पक्ष बेचैन होने की बजाय सर्वसम्मत ढंग से किसी सर्वमान्य उपाय तक पहुंचेगा (आखिर इतने सारे उन्नत देशों ने ईवीएम से फिर बैलेट पर वापसी की ही है) और तब जब हमारा देश लोकतन्त्र को परखने वाले इंडेक्स पर ना केवल अपना पुराना स्थान पा ले (2014 से 2020 के बीच भारत 26 स्थान नीचे गिर गया है) बल्कि इसकी गिनती ऊपर के दस-बीस देशों में हो!
तो जीत के जश्न को यह सब होने तक थोड़ा थम कर ही मनाना उचित ना होगा?
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विद्या भूषण अरोड़ा
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बहुत सुंदर विश्लेषण