आर्थिक-मंदी के दौर में पढ़ने लायक किताब

आज की बात

इधर करीब तीन-चार महीने पहले जब आर्थिक मंदी या ‘स्लो-डाउन’ की चर्चा ज़ोरों से चलने लगी और 2019 के लोकसभा चुनावों में मिली ज़बरदस्त जीत के तुरंत बाद ही अर्थशास्त्रियों ने थोड़ा सा खुलकर चेतावनियाँ जारी करनी शुरू कीं तो मुझ जैसे आम-आदमी को भी ये ज़रूरत महसूस हुई कि देश और समाज की दिशा और दशा ठीक से समझने के लिए आर्थिक विषयों के बारे में आधारभूत समझ बनाना अच्छा रहेगा।

पूजा मेहरा चूंकि आर्थिक विषयों की वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई बड़े अखबारों में काम कर चुकी हैं, इसलिए जब इस वर्ष चुनाव के ठीक पहले पैंगविन से उनकी किताब “The Lost Decade – 2008-18 : How India’s Growth Story Devolved into Growth without a Story” आई थी तो मैंने तुरंत खरीद ली थी लेकिन राजनीतिक घटनाक्रम से मैं शायद इतना हतप्रभ था कि इसे ऊपरी तौर पर उलट-पलट लिया लेकिन सिलसिलेवार ढंग से पढ़ने का मन नहीं बन रहा था।

फिर आर्थिक-मंदी की सुगबुगाहट बढ्ने लगी तो इस किताब की तरफ फिर एक बार ध्यान गया। अगस्त के अंत में पढना शुरू किया तो थोड़ा अफसोस भी हुआ कि अभी तक टाला क्यों! मुझे बिलकुल अंदाज़ नहीं था कि आर्थिक विषयों पर भी इस तरह लिखा जा सकता है कि आप उसे (करीब-करीब) एक ‘थ्रिलर’ की तरह पढ़ें।

शुरू के कुछ पृष्ठ पढ़ने के बाद ही मुझे अंदाज़ हो गया था कि मुझे अपनी वैबसाइट के लिए इसकी समीक्षा लिखने में मुश्किल नहीं होगी हालांकि जब लिखने बैठा तो लगा कि अर्थशास्त्रीय शब्दों और मुहावरों को हिन्दी में लिखने के लिए बहुत मेहनत पड़ेगी और इसलिए जल्दी से एक ड्राफ्ट अंग्रेज़ी में लिख लिया। चूंकि वैबसाइट पर अपना लिखा अंग्रेज़ी में पढ़ने की आदत नहीं है, इसलिए इसे ‘संडे-गार्जियन’ को भेज दिया क्योंकि उन्होंने इससे थोड़ा सा पहले मुझे एक पुस्तक की समीक्षा करवाई थी।

हालांकि उन्हें इस बार इसे प्रकाशित करने में काफी समय लग गया लेकिन एक-दो बार पूछताछ करने पर बताया कि वह इसे अवश्य छापना चाहते हैं, ऐसे में मैं इसे वैबसाइट पर इस्तेमाल करने को स्वतंत्र नहीं था। आज के संस्करण में यह प्रकाशित हो गया है तो अब इसका लिंक यहाँ दे रहा हूँ। ना खुलने की स्थिति में आप इस लिंक को कॉपी-पेस्ट कर सकते हैं। https://www.sundayguardianlive.com/news/consensus-needed-steady-stream-reforms

पुस्तक के बारे में इतना और जोड़ना चाहूँगा कि इसने राजनीतिक और आर्थिक विषयों के अंतरसंबंधों की बुनावट को इतनी अच्छी तरह समझाया है कि एक ऐसे पाठक के लिए, जो अर्थशास्त्र नहीं भी पढ़ा है, कुछ भी मुश्किल नहीं रह जाता। इसलिए मुझे ये सिफ़ारिश करने में कोई संकोच नहीं है कि यदि आपकी देश की राजनीति और इसके संचालन के लिए बनने वाली नीतियों में रुचि है तो इस पुस्तक को आप पढ़ें।

विद्या भूषण अरोरा

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