सहकारिता पर क्यों लागू नहीं है आरटीआई

आलोक कुमार*

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों एक ऐतिहासिक निर्णय लिया। देश के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय तक को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के अधीन कर दिया। यह मामला 2010 से लंबित था। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई के कार्यकाल की यह निर्णय याद दिलाता रहेगा। यह सूचना के मौलिक अधिकार को समझने वालों की जीत है। लेकिन देश की सहकारी संस्थाएं सुप्रीम कोर्ट नहीं हैं। सहकारी संस्थाओं में आरटीआई कानून लागू नहीं है। इफको, कृभको, नेफेड, एनसीसीएफ, सभी सहकारी बैंक, डेयरी और विपणन से जुड़ीं लाखों सहकारी संस्थाएं आरटीआई कानून के दायरे में नहीं आती हैं।

उम्मीद की जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब भारतीय सहकारी संस्थाओं पर आरटीई लागू करने का दबाब बढेगा। सहकारी संस्था आरटीआई से अलग क्यों है ?  यह पूछने पर भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एनसीयूआई) के अध्यक्ष एवं राज्यसभा सदस्य डॉ चंद्रपाल सिंह यादव का कहते हैं, ”सहकारी संस्थाएं लोगों की उद्यमी समूह हैं।  समूह के सदस्यों के प्रति उत्तरदायी होती हैं। सहकारी कानून में कोई सदस्य अपनी संस्था के बारे में हर तरह जानकारी हासिल कर सकता है। ऐसे में किसी बाहरी व्यक्ति को संस्था की सूचना देने की जरुरत नहीं है। इसलिए सहकारी संस्थाओं पर आरटीआई कानून लागू नहीं है।“

एनसीयूआई देश के सहकारी संस्थाओं की एपेक्स बॉडी है। एनसीयूआई देशव्यापी सहकारी शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों को खुद से अलग किए जाने के मामले को लेकर सरकार से दिल्ली हाईकोर्ट में उलझी पड़ी है। सहकारी संस्थाओं पर आरटीआई कानून का लागू नहीं होना, भ्रष्टाचार से जुड़े कई मामलों को उजागर होने से बचाने में कवच का काम करता है।

सहकारिता के बारे में उल्लेखनीय है कि यह सदियों से भारत में स्वंय सहायता समूह के तर्ज पर मौजूद है। भारत के स्वप्न निर्माताओं ने सहकारिता को देश के विकास का आधार माना था। उसपर चलते हुए आठवीं पंचवर्षीय योजना तक सहकारी संस्थाओं को सरकारी संरक्षण हासिल था। 1997 तक सहकारी उपक्रमों को आयकर में छूट हासिल थी। नतीजा रहा कि रोजगार पैदा करने में सहकारिताओं ने अतुलनीय योगदान दिया।

आज भी देश के 98 प्रतिशत गांव तक सहकारी संस्थाओं की पहुंच है। आठ लाख से ज्यादा सहकारी संस्थाएं मौजूद हैं। सहकारिता से 30 करोड़ भारतीय किसी न किसी रुप में जुड़े हैं। भारतीय सहकारी आंदोलन दुनिया का सबसे बड़ा रोजगार प्राप्ति का माध्यम बना हुआ है। सहकारिता के विशाल आकार और महत्व को उकेरते हुए केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने सहकारिता के लिए अलग मंत्रालय बनाने की पैरवी की है।

सहकारिता का क्षेत्र व्यापक है। इसका वास्ता सिर्फ कृषि तक सीमित नहीं है। बल्कि बैंकिग, उर्वरक, उत्पादन, विपणन आदि किसी भी क्षेत्र में उद्यम करने की इच्छा रखने वाला समूह सहकारी संस्था जिला, प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर पर निबंधित करा सकता है। सहकारी कार्यालय में निबंधित सहकारी संस्था के संचालन का लोकतांत्रिक कानून मौजूद है। संस्था को कानून का पालन करते हुए सभी पदाधिकारियों का सावधिक चुनाव कराना होता। संस्था के हरेक सदस्य के लिए एक-समान मत का अधिकार होता है। सहकारिता की एक खूबी यह भी है कि इसका लाभ किसी एक या सीमित व्यक्ति को नहीं बल्कि उसे उद्यमी समूह में शामिल सभी सदस्यों के बीच लाभांश के तौर पर वितरित किया जाता है।

 कृषि मंत्रालय के साथ मौजूद सहकारिता विभाग के मातहत संचालित सहकारी बैंक को वित्त मंत्रालय से, उर्वरक विपणन और उत्पादन करने वाली सहकारी संस्थाओं को उर्वरक मंत्रालय से, डेयरी से जुड़ी सहकारी संस्थाओं राष्ट्रीय डेयरी डेवलमेंट बोर्ड से वास्ता रखना होता है। ऐसे में सहकारिता संचालन के लिए सिंगल विंडो की जरुरत बनी हुई है।

देश के विकास में सहकारी संस्थाओं ने कई प्रतिमान गढे हैं। सरकारी बैंकों के घाटों के खुलासे के दौर में कई सहकारी बैंकों के सफल संचालन से आने वाले नतीजे सबक में लिए जा रहे हैं। एमएस स्वामिनाथन की हरित क्रांति और वर्गीज कूरियन की श्वेत क्रांति ने सहकारी संस्थाओं के योगदान का प्रतिमान कायम किया है। लेकिन मौजूदा प्रतिद्वंदिता के दौर में सहकारी संस्थाओं को सरकार से न के बराबर मिल रहा संरक्षण, नए मिसाल गढने की राह में रोड़ा बना हुआ है।  

देश भर में सहकारिता कानून की एकरुपता के लिए संसद से पारित 97 वां संविधान संशोधन विधेयक 2012 से अदालत की तारीख के झमेले में अटका पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट में इसके सख्त पैरवी की जरुरत है। सहकारिता से जुड़े नेताओं का मानना है कि इसके लागू होते ही सहकारी संस्थाओं के आंतरिक लोकतंत्र को बहाल करने में आ रही दिक्कतों का समाधान हो सकता है। सहकारी संस्थाओं को ज्यादा पारदर्शी बनाया जा सकता है। हर क्षेत्र में सहकारी संस्था बनाकर उद्यम खड़ा करने की नई क्रांति लाई जा सकती है।

लिहाजा, सहकारिता की ताकत से वाकिफ एनसीयूआई के मुख्य अधिशासी एन. सत्यनारायण बताते हैं कि अर्थव्यवस्था को मंदी के दौर से निकालकर पांच ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने में सहकारी आंदोलन पूरी तरह से सक्षम है। बस जरुरत है कि सरकार का सहकारी आंदोलन में भरोसा लौट आए और 1997 से पूर्व की स्थिति बहाल हो।

गौरतलब है कि 1997 से पहले तक सहकारी संस्थाओं की आमदनी पर आयकर छूट की व्यवस्था थी। लेबर कॉपरेटिव फेडरेशन के नेता अशोक डबास के मुताबिक सहकारी संस्थाएं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से प्रतिवर्ष दो करोड़ लोगों को रोजगार देने के लक्ष्य को पूरा करने में सक्षम है। बस जरुरत सहकारिता में मौजूद भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने औऱ इमानदार लोगों को आगे बढाने का प्रबंध करने की है।

कृषि कॉपरेटिव से जुड़े प्रमुख नेताओं की राय में सहकारी संस्थाओं के सही प्रयोग से सन् 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लक्ष्य को हासिल करना मुमकिन है। इसके लिए सहकारी संस्थाओं को रोजगार विस्फोट से जुड़ी मनरेगा, मृदा परीक्षण लैब आदि सरकारी योजनाओं से जुड़ने की छूट देनी होगी।   

सहकारिता से जुड़ी असीमित संभावनाओं के बीच सहकारी संस्थाओं को आरटीआई के दायरे में लाने का प्रयास अटका पड़ा है। आरटीआई के दायरे में आने से बचने के लिए सहकारी नेताओं की दलील की अपनी जगह है। लेकिन क्या यह जरुरी नहीं है कि आम नागरिक भी छोटी सी शुल्क अदा कर सहकारी संस्थाओं के कामकाज से जुड़ी जानकारी हासिल कर ले। आखिर इसमें हर्ज़ ही क्या है, खासकर तब जब कई सहकारी संस्थाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी हैं। हजारों करोड़ के घोटाले हो चुके हैं।

सहकारिता का जिक्र होते ही लोगों के जेहन में घोटाले और घपले की कहानियां घुमड़ने लगती हैं, ऐसे में सहकारी संस्थाओं को आरटीआई के दायरे में लाने की मांग गैरवाजिब नहीं लगती। इससे सहकारी संस्थाओं को भ्रष्टाचार के संदेह से दूर करने में मदद मिल सकती है। साथ ही, सरकारी सहयोग की आकांक्षा रखने वाली सहकारी संस्थाओं की दावेदारी बढेगी।

*लेखक वरिष्ठ पत्रकार औऱ राजनीतिक विश्लेषक हैं.

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