कैसे बनते हैं ‘मिनी पाकिस्तान’?

राजेन्द्र भट्ट

नक्कारखाने में तूती – 5

रेलवे स्टेशन के पास वह एक सँकरे घरों-गलियों वाली ‘मुस्लिम’ बस्ती थी। उर्दू में बहुत सारे पोस्टर-झंडियाँ लगी थीं। उस छोटे शहर की अपनी मेजबान से पूछा कि क्या यहाँ कोई  जलसा वगैरह होने वाला है। उन्होंने रहस्य और घृणा के मिले-जुले भावों से आँखें बड़ी करते हुए बताया,” अरे, ये ‘मिनी पाकिस्तान’ है, कोई देश के खिलाफ बात लिखी होगी।“ मेजबान को  उर्दू नहीं आती है। (बाद में, मुझे पता चला कि शहर में पिछले दिनों किसी सूफी का उर्स मनाया गया था।)

       इस प्रसंग पर आगे चर्चा में मेरे आदरणीय मेज़बानों ने यह आम राय भी रखी कि ‘ये’ लोग ऐसी ही बस्तियों में ‘मुख्य धारा’ से अलग-थलग अपने अनपढ़-पिछड़े लोगों के बीच ही रहना चाहते हैं, बड़े कट्टर होते हैं। थोड़ा ज्यादा सुशिक्षित माने जाने वाले एक मेजबान ने बताया कि (अंग्रेज़ी में) इसे ‘घेटो’ यानि दड़बे में रहने की मानसिकता कहते हैं, जबकि हमारी ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की उदार, सबको साथ ले कर चलने की परंपरा है। फिर ये गंदे-जाहिल भी होते हैं।

       मैंने पूछा – क्या अगर इन लोगों में कोई पढ़ा-लिखा, साफ-सुथरा परिवार आपसे किराए पर, आपके घर का खाली सेट लेना चाहे तो आप उसे दे देंगे? आखिर एक परिवार तो आप जैसा उदार बने,  ‘घेटो’ से बाहर निकले। मेजबान असहज होकर बोले, अपने पड़ोस में ‘उन्हें’ कैसे रख सकते हैं?

       मेरे मेजबान के मित्रों-परिजनों में बहुतों की राय में उर्दू, फारसी और अरबी में कोई फर्क नहीं था। सभी ‘पाकिस्तानी’ हैं। 

       मुझे करीब चार दशक पूर्व, साहित्यिक पत्रिका ‘सारिका’ में, मशहूर हिन्दी लेखक गुलशेर खान ‘शानी’ का एक संस्मरण याद आया। शानी साहब मध्य प्रदेश से दिल्ली आए तो घर किराए पर लेने के लिए, किसी मित्र के जरिए एक डीलर से संपर्क किया। शानी साहब ने कहा कि वो पुरानी दिल्ली की तंग बस्तियों में नहीं रहना चाहते, नए बसते-फैलते शहर – नई दिल्ली और दक्षिण दिल्ली की खुली, आधुनिक बस्तियों में रहना चाहते हैं।

       डीलर ने जैसे ‘रहस्य’ समझ लिया। बोला, “आप चिंता न करें। हमने इन ‘-ल्लों’ को ठोक कर ठीक कर दिया है। ये आपके सामने नज़र नहीं उठा सकते।“

       दरअसल, डीलर ने ‘शानी’ साहब को “साहनी’ समझ लिया था। शानी साहब ने अपने संस्मरण में बताया था कि इस घटना की ऐसी प्रतिक्रिया हुई कि फिर वो दिल्ली में हमेशा मुस्लिम बस्तियों में ही रहे – अपने, दड़बे वाले, ‘ठुकने’ वालों के बीच। सही बात है, ये लोग उदार-आधुनिक हो ही नहीं सकते !

       पिछले दिनों, फेसबुक पर प्राइवेट सैक्टर में एक अच्छी पगार वाले मुस्लिम का मुंबई का अनुभव पढ़ा। डीलर अप्रत्यक्ष तरीके से कहते रहे, “ दरअसल, आपके साथ दिक्कत ये है—“ फिर एक भले सज्जन राजी हुए, एडवांस भी ले लिया। पर कुछ दिन बाद एडवांस लौटाने आ गए क्योंकि (आधुनिक-उदार) हाउसिंग सोसाइटी के प्रेसिडेंट-सेक्रेटरी नहीं मान रहे थे।

       ‘उन्हें’ हम ‘अपने यहाँ’ रहने नहीं देंगे, वहाँ रहेंगे नहीं। ‘वो’ वहाँ रहेंगे तो आँखें गोल कर रहस्य के अंदाज़ में कहेंगे – ‘देखा! हमने कहा था ना!!’ आखिर ये ‘मिनी पाकिस्तानों’ का पनपना कैसे खत्म होगा?

       फिर मेरे मेज़बान के घर में एक और वाकया हुआ। पड़ोस में एक समृद्ध-संभ्रांत परिवार है। 7-8 साल का बच्चा है, माता-पिता दोनों प्रोफेशनल हैं। दादाजी बच्चे को देखते हैं, पढ़ाते-लिखाते-संस्कार सिखाते हैं। वाकई बड़ा संस्कारी परिवार है – सभी शांत, सौम्य, मृदुभाषी, पूजापाठ करने वाले। बच्चा भी देखते ही प्रणाम करता है – अंग्रेजी भी अच्छी है, संस्कृत में श्लोक भी सुना देता है।

       किसी भी विषय की विशेषज्ञता न होने और मामूली पढ़े-लिखे होने की स्थिति में, ताल ठोक कर, पूरे अधिकार से जो चर्चा हो सकती है, घर में वही चर्चा हो रही थी – यानि राजनीति की। बच्चा भी अचानक बोला, ”सब नेताओं को गोली से उड़ा देना चाहिए।“ मासूम बच्चे के मुख से  मार-काट की नासमझ बात मुझे अच्छी नहीं लगी। मैंने उसे हिंसा की बजाय, प्रेम-प्यार की, गांधीजी की बातें बतानी चाहीं। बच्चे को ऐसे ‘डायलॉग्स’ में आम तौर से गद्गद तारीफ मिलती रही होगी। वह और दादाजी दोनों असहज थे। तर्क में बच्चा उलझ रहा था तो उसने अचानक बातचीत का ‘ट्रैक’ बदला और पूरी ताकत से बोला, “पाकिस्तान  को भी बम  से उड़ा देना चाहिए।“ मैंने हिम्मत नहीं हारी। उसे समझाया कि पाकिस्तान में भी तो इंसान ही रहते होंगे, मारने से जैसे तुम्हें दर्द होता है, उन्हें भी तो होगा।“ उसने और ज़ोर से चिल्ला कर कहा, ”नहीं, वहाँ इंसान नहीं रहते, मुसलमान रहते हैं।“

       मैं जवाब देने की हालत में नहीं था। बचपन से अब तक, मासूम प्यारे बच्चों  से जुड़े सारे साहित्यिक-सांस्कृतिक गीत, दृश्यों के साथ, अचानक मेरी आँखों के आगे घूमने  लगे। ‘ठुमकि चले रामचन्द्र, बाजत पैजनिया’ , ‘चंद्रखिलौना लेहूं’ से लेकर – खुद मिट्टी खाती और माँ को ‘काओ’ कहती, सुभद्राकुमारी चौहान की कविता के बच्चों की नटखट-मासूम छवियां आँखों के सामने आने लगे। बम-गोली वाला यह कैसा बच्चा था?

मुझे अपने दादा-दादी की पूजा याद आई, जिसके पूरी होने पर हम बच्चों को सिर पर फूल की पंखुड़ी के साथ आशीर्वाद और फिर बताशे या लड्डू के टुकड़े की उम्मीद रहती थी। वो दादा-दादी देश के  बंटवारे  और गांधीजी की हत्या के दर्द को देख-सुन चुके थे, इसलिए बम-गोलियों की बातें नहीं करते थे। इस बच्चे के दादाजी आज़ादी के कई बरस बाद पैदा हुए थे, आज़ादी लाने वाली पीढ़ी के नहीं थे। शायद  इन  दादाजी की पूजा की थाली में फूल-बताशों की जगह नफरत के बम-गोले और पागलपन के धतूरे के बीज रहे होंगे, जो उन्होंने ‘प्रसाद’ में इस मासूम को दिए होंगे!!

             उस रात मैंने सपना देखा। प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ कहानी का मासूम-मुस्कराता हामिद अपनी दादी अमीना के लिए चिमटा घुमाए चला जा रहा है। दूसरी तरफ से शोले फिल्म के ‘इतना सन्नाटा  क्यों है भाई’ कहने वाले ‘इमाम साहब’ यों ही बता रहे हैं, ”ये जो ‘शोले’ वाला रामगढ़ था न, जिसमें हम सब साथ-साथ रहते थे, उसके ठाकुर साहब, उसकी बसन्ती, उसके जय-वीरू – सब हिन्दू थे; मेरी बड़ी हिफाजत करते थे। न जाने कितनी फिल्मों में प्यारे-प्यारे खान चाचा हुए हैं और उन्हें रचने वाले, फिल्म बनाने वाले और एक्टर का मजहब क्या था, कभी सोचा ही नहीं।“  

सपना तो सपना है ही। उसमें कब कौन दिख जाए पता नहीं चलता। तो उधर से ‘फिराक’ साहब निकल आए। बोले, ”ये कितनी वाहियात बात है कि में कहूँ कि उर्दू का हिन्दू शायर हूँ; मुझे उर्दू में लिखने के लिए देश का सबसे बड़ा ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिला। बहुत सारे लोगों को तो मालूम ही नहीं कि मेरा वास्तविक नाम रघुपति सहाय है।” फिराक अपने बारे में बताने के बाद कहने लगे, “और कहाँ कहाँ से निकालोगे भैया – तुम्हारे दूरदर्शन के सबसे ज़्यादा पॉपुलर होने वाले धार्मिक सीरियल ‘महाभारत’ के संवाद लिखने वाले राही मासूम रज़ा मुसलमान थे।”

       फिर मेरे सपने में प्रेमचंद चले आए। मैंने बेवकूफी भरा सवाल पूछा, “आप हिन्दू हैं लेकिन मुसलमानों के जीवन का, हमीद-अमीना का, कर्बला की लड़ाई का इतना सुंदर, इतना सच्चा खाका कैसे खींच लेते हैं?“ वह थोड़ा चिढ़े, ”कैसी बेवकूफी की बात है। हम एक ही बस्ती में रहते थे। एक-दूसरे की जिंदगी, सुख-दुख के साथी थे। अब तुम मेरी पीढ़ी के लोगों से, मजहब का ताना देकर  पूछोगे कि हमें ईदगाह-सेवइयों, होली-दिवाली, रामलीला-ताजिये, गुरूपर्ब-क्रिसमस के बारे में कैसे सब कुछ पता है? हम एक मिट्टी में, एक आसमान के नीचे रहते हैं कि नहीं?”

       सपने में भी मेरा ज़हरीला माहौल पीछा नहीं छोड़ रहा था। मेंने फिर पूछा, ”पर तब कुछ लोग ‘मिनी पाकिस्तान’ नहीं बनाते थे?” प्रेमचंद ने गुस्से से मुझे झिड़का, ”मैं तो  तुम्हारी सामूहिक आत्,महत्या यानि एक पाकिस्तान बनाने के कारनामे को देखने के लिए जिंदा नहीं था, पर उसी पाकिस्तान को बनाने के जख्म सत्तर साल तक तो सूख नहीं पाए हैं। अब हर शहर में ‘मिनी पाकिस्तान’ बनाते रहोगे तो पता नहीं, कितनी सदियाँ लग जाएंगी उन जख्मों को भरने में। मेहरबानी कर के अगर तुम्हारे भगवान या अल्लाह का वास्ता देकर कोई बम-गोलों की बात करे तो चुप मत रहो – उसका विरोध करो। कहो, कि हम इंसान अपने मामले खुद निपटा लेंगे। भगवान-खुदा हम सबकी  हिफाज़त के लिए हैं; उनकी हिफाज़त का दावा करते हुए आग लगाना, उनका कद छोटा करने की बेवकूफी भारी बात है।“

       सपना तो टूट गया। आखिर कोई कितनी देर तक सपनों में रह सकता है? हाँ ये है कि अगर इस प्रसंग में आए हमारे उर्दू-फारसी में गद्दारी सूंघने वाले, ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के साथ ही बम-गोलों के संस्कार देने वाले, धर्मस्थलों से या धर्म के नाम पर आग उगलने वाले, अतीत के गौरव को बखानते हुए पीछे की तरफ मुख कर चलने वाले, ‘विधर्मियों’ को किराये पर घर न देने वाले लोग समझदारी दिखाएँ तो अब और ‘मिनी पाकिस्तान’ नहीं बनेंगे।

       बनेगा तो भविष्य की ओर नजरें जमाये आगे बढ़ता,ज्ञान-विज्ञान-कला-संस्कृति से भरा-पूरा एकजुट शानदार, मज़बूत हिंदुस्तान – मज़बूत भारत।

अगली बार- नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सपने के बारे में।

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