तीन कविताएं

पारुल हर्ष बंसल*

दस्तक

बदला-बदला और अजनबी सा है

रुख हवाओं का…
आंधियों की हो चुकी है दस्तक….
बंद करना दरवाज़े और 

खिड़कियों का

 लाज़मी है जितना….
उससे कहीं ज़्यादा
ज़रूरी है
खुले रखना

दर-ओ-दीवार और
झरोखे हिय के
रुखसत करने को

ज़हरीले ख्यालों को

विदा करने को

विषैले विकारों को!
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अंगजा


बेल सी होती हैं लड़कियां
हठात पाती है अवलंब
मज़बूत कंधों का….
लिपटकर
ताउम्र बढ़ती ही जाती…
काई लगी दीवार हो
या सड़ांध मारती गलियाँ
या फिर हो टूटा छप्पर 
आंधी हो या लू के गरम थपेड़े 
और या फिर पड़ते हों ओले

ढाल उसी सांचे में 

अपने सारे ख्वाब…


गिले-शिकवे बिना
द्रुतगति से चढ़ना
चढ़ना और बढ़ना

यही हैं लड़कियां!

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संघर्ष

हार से हार का मध्यांतर

 एक पथरीली डगर…

 शक्त -अशक्त

 अनुभवों का विश्लेषण,

 अंगारों से शीतल धरा का चुंबन  

प्राप्य -अप्राप्य की अनुभूति…

हर क्षण  कुर्बानी..

सातवें आसमान

 को पाने की

और

‘सदा सुहागन रहो’ सुनते सुनते

उसी देहरी से पति के कांधे पर विदा होने की!

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*पारुल हर्ष बंसल मूलत: वृन्दावन से हैं और आजकल कासगंज में हैं। इनकी कवितायें स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं और वेब पोर्टल्स पर प्रकाशित होती रही हैं। स्त्री-अस्मिता पर कविताएं लिखना इनको विशेष प्रिय है। इनकी कवितायें पहले भी राग दिल्ली पर प्रकाशित हो चुकी हैं।

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